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Tuesday, May 7, 2024
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देश के राजनीतिक नक्शे से क्षेत्रीय दलों को मिटाने की कवायद में जुटी भाजपा

अखिलेश त्रिपाठी | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली | देश के राजनीतिक नक्शे से क्षेत्रीय दलों को मिटाने की कवायद में भाजपा पूरी तरह जुटी हुई है। यूपी में सपा को चुनाव आयोग द्वारा दिया गया नोटिस इसी कड़ी का हिस्सा है। देश में छोटे-छोटे राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय दलों को साथ लेकर और उनका मोर्चा बनाकर केंद्र सरकार की सत्ता में बैठने वाली भाजपा अब क्षेत्रीय दलों को मिटाने का ख्वाब देख रही है।

भाजपा इन क्षेत्रीय दलों को इसलिए मिटाना या खत्म करना चाहती है, ताकि वह अकेले दम पर सत्ता का सुख भोगे। भाजपा द्वारा पहले देश से कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया जाता था। लेकिन भारत कांग्रेस मुक्त नहीं हुआ। अब भाजपा देश के राजनीतिक नक्शे से क्षेत्रीय दलों को खत्म करना चाहती है। यह वही भाजपा है, जिसने केंद्र सरकार से कांग्रेस को हटाने के लिए छोटे-छोटे राजनीतिक दलों से हाथ मिलाया था और उनकी बैसाखी के सहारे ही केंद्र सरकार की सत्ता हासिल की थी।

क्षेत्रीय दलों के सहारे पहले 2014 में भाजपा ने केंद्र सरकार की सत्ता हासिल किया और नरेंद्र मोदी देश के प्रधानमंत्री बने। इसके बाद 2019 के चुनाव में भी इन्हीं क्षेत्रीय दलों का सहारा लेकर एक बार फिर केंद्र सरकार की सत्ता प्राप्त की। लेकिन 2021 आते-आते भाजपा को अपने सहयोगी दल खराब लगने लगे। परिणाम यह हुआ कि धीरे-धीरे करके भाजपा के सहयोगी क्षेत्रीय दल उससे दूर होने लगे।

आज की मौजूदा स्थिति में भाजपा के साथ महाराष्ट्र की रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया उसके साथ है, जिसके कर्ताधर्ता रामदास अठावले हैं जो केंद्रीय मंत्री हैं। इसके अलावा यूपी की क्षेत्रीय पार्टी अपना दल उनके साथ है। इस पार्टी की मुखिया अनुप्रिया पटेल हैं, जो मोदी सरकार में केंद्रीय राज्यमंत्री हैं। भाजपा के मोर्चे में आज की स्थिति में कोई अन्य राजनीतिक दल नहीं बचा है।

भाजपा की सबसे बड़ी सहयोगी पार्टी महाराष्ट्र में शिवसेना थी। शिवसेना से महाराष्ट्र में सरकार बनाने के मुद्दे पर मतभेद हो गए, जिसके चलते शिवसेना ने भाजपा से अलग होने का फैसला कर लिया और बाद में कांग्रेस और शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ मिलकर राज्य में सरकार बना ली। इसके बाद भाजपा और शिवसेना के रिश्ते बहुत ज्यादा ही खराब हो गए। बाला साहब ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। भाजपा ने उनकी सरकार को अधिक समय तक नहीं चलने दिया और तोड़फोड़ कर सरकार को गिरा दिया।

इसके बाद शिवसेना तोड़कर अलग हुए एकनाथ शिंदे के साथ मिलकर भाजपा ने सरकार बनाई। भाजपा को इतने में ही संतोष नहीं हुआ, तो उसने लोकसभा में शिवसेना संसदीय दल में बंटवारा करवा दिया इसके बाद भाजपा ने शिवसेना पार्टी में भी बंटवारा करवाया। लेकिन इस सबके बावजूद जनता के बीच शिवसेना (उद्धव ठाकरे) के गुट ने जब महाराष्ट्र में रैली की, तो उसमें अपार भीड़ जुटी। इसीसे शिवसेना उद्धव ठाकरे गुट की ताकत का पता चला।

महाराष्ट्र के बारे में यह तथ्य है कि जब-जब शिवसेना में बंटवारा हुआ, तब-तब शिवसेना मज़बूत होकर उभरी। शिवसेना से बाहर जाने वाले राजनेता चूक गए और शिवसेना मज़बूती के साथ खड़ी नज़र आई। भाजपा ने 2019 के लोकसभा चुनाव में शिवसेना के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था और उसे बड़ी जीत हासिल हुई थी तथा उसको अधिकतम लोकसभा सीटें हासिल हुई थीं। लेकिन अब हालात बदल चुके हैं और शिवसेना अलग मोर्चे के साथ खड़ी है।

कांग्रेस नेता राहुल गांधी की कन्याकुमारी से लेकर कश्मीर तक की जा रही पदयात्रा से भी भाजपा का राजनीतिक गणित गड़बड़ा गया है। इसकी मुख्य वजह राहुल गांधी की पदयात्रा को जनता का मिल रहा अपार जनसमर्थन है। राहुल गांधी को जनता के मिल रहे जनसमर्थन से महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे और शरद पवार को नई ताकत मिलती नजर आ रही है। इसीलिए इन राजनेताओं ने राहुल गांधी की पदयात्रा का महाराष्ट्र में प्रवेश करने पर स्वागत करने का फैसला लिया है। साथ महाराष्ट्र में राहुल गांधी की दो बड़ी रैली करने का भी विचार बनाया है। उद्वव ठाकरे और शरद पवार राहुल गांधी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में बड़ा राजनीतिक उलटफेर करना चाहते हैं, इससे भाजपा को तगड़ा झटका लगेगा।

आज की स्थिति में भाजपा अलग-थलग पड़ती नज़र आ रही है। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के साथ तेलगुदेशम और उसके नेता चन्द्रबाबू नायडू थे। इसी तरह तेलंगाना में केसीआर (के चंद्रशेखर राव मुख्यमंत्री) भी भाजपा के साथ थे। अब यह दोनों भाजपा के साथ नहीं हैं। तेलंगाना में केसीआर की सरकार को गिराने के लिए भाजपा जुटी हुई है। पता चला है कि तेलंगाना में कुछ लोगों को गिरफ्तार किया गया है और उनके पास से भारी मात्रा में नकदी रकम बरामद की गई है। उनसे पूछताछ में पता चला है कि यह रकम तेलंगाना सरकार को गिराने के लिए आई थी।

उड़ीसा में बीजू जनता दल की सरकार है। इसके मुखिया नवीन पटनायक उड़ीसा के मुख्यमंत्री हैं। यह भी भाजपा के साथ थे। लेकिन क्षेत्रीय दलों को खत्म करने के भाजपा के इरादों को भांपकर यह भी भाजपा से अलग होकर ताल ठोक रहे हैं। इनका अपना जनाधार है। इनकी ईमानदार छवि जनता की नज़र में बसी हुई है। अब यह अपनी पार्टी को खत्म करने का मंसूबा बनाने वाले लोगों के साथ क्यों खड़े होंगे? इनके भाजपा से अलग होकर चुनाव लड़ने से भाजपा को पसीना आ जाएगा और भाजपा को उड़ीसा में लोकसभा चुनाव में खाता खोलना मुश्किल हो जाएगा।

झारखंड में हेमंत सोरेन की सरकार है। इसको गिराने के लिए भाजपा ने बड़े-बड़े दांव पेंच चले। कोलकाता में कांग्रेस के विधायकों को पैसा देकर तोड़ने का काम किया गया। लेकिन समय रहते ममता बनर्जी ने इन विधायकों को पैसा समेत गिरफ्तार करवा दिया गया। इससे झारखंड सरकार गिरने से बच गई। लेकिन इसके बावजूद हेमंत सोरेन को विधानसभा में बहुमत साबित करना पड़ा।बहुमत में हेमंत सोरेन को विश्वास मत हासिल हुआ। आज झारखंड में सारे समीकरण भाजपा के खिलाफ हैं। यहां पर 14 लोकसभा सीट हैं। अब भाजपा को यहां बड़ी दिक्कतों से जूझना पड़ेगा। भाजपा के रास्ते में कांटे ही कांटे बिछे हुए हैं और इन पर से चलकर भाजपा को गुजरना पड़ेगा।

पश्चिम बंगाल की बात न की जाए, तो यह बेमानी होगी। दिल्ली की सत्ता पर बैठने का रास्ता पश्चिम बंगाल से शुरू होकर बिहार और यूपी होते हुए दिल्ली जाता है। इस तरह पश्चिम बंगाल की चर्चा करना जरूरी है, क्योंकि यहां पर भाजपा के पास 20 से अधिक लोकसभा सदस्य हैं। लेकिन अब राजनीतिक परिदृश्य बदला हुआ है। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी की सरकार है और हवा ममता बनर्जी के साथ- साथ बह रही है।

ऐसी स्थिति में बंगाल में अब भाजपा की दाल गलना मुश्किल है। ममता बनर्जी की मोदी सरकार से पटरी नहीं बैठ रही है और वह मोदी सरकार के खिलाफ हैं। वह मोदी सरकार के खिलाफ यानी भाजपा के विरुद्ध बनने वाले राजनीतिक दलों के मोर्चे के साथ खड़ी होंगी। पश्चिम बंगाल में इस बार भाजपा को अगर दो-चार लोकसभा सीटें हासिल हो जाएं, तो यह बड़ी बात होगी। लेकिन इसकी संभावना कम है।

पश्चिम बंगाल के बाद बिहार का नम्बर आता है। यहां पर 2019 के चुनाव में भाजपा सबसे अधिक लोकसभा सीटें जीती थी। वह भी तब, जब उसका जदयू से चुनावी गठबंधन था। लेकिन इस समय परिस्थितियों ने पलटी खाई है और भाजपा का जदयू से गठबंधन टूट गया है। जदयू और राजद बिहार में एक साथ आ गए हैं और इन्होंने भाजपा से अलग होकर सरकार बना ली है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार मोदी सरकार को ललकार रहे हैं और केन्द्र से भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने की बात कह रहे हैं।

नीतीश कुमार छोटे- छोटे राजनीतिक दलों और क्षेत्रीय दलों का मोर्चा बनाकर भाजपा के खिलाफ लोकसभा चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे हैं। इसी सिलसिले में वह अपने राजनीतिक दलों के बनने वाले मोर्चे में यूपी में सपा को अपने साथ रखना चाहते हैं। इसकी बड़ी वजह भी है, क्योंकि यूपी में सपा आज बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में विपक्ष में खड़ी है। सपा के साथ आने से भाजपा को नीतीश कुमार की ओर से लोकसभा चुनाव में तगड़ी टक्कर मिल सकती है और भाजपा केंद्र सरकार की सत्ता से बेदखल भी हो सकती है।

भाजपा नीतीश कुमार के बनने वाले मोर्चे से बहुत ही ज्यादा घबराई हुई है। वह यह मानकर चल रही है कि अगर यूपी में नीतीश कुमार के मोर्चे के साथ सपा खड़ी हो गई, तो भाजपा की केंद्र सरकार से विदाई तय है। इसीलिए भाजपा बहुत सोच समझकर सधी हुई चाल चलकर सपा को नीतीश कुमार के मोर्चे में जाने से रोकने के लिए उसको उलझाने का काम कर रही है। इसी कड़ी में भाजपा खुद सामने न आकर चुनाव आयोग के जरिए सपा को घेरने और उसको उलझाने में जुट गई है।

भाजपा के इशारे पर ही चुनाव आयोग ने सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव को नोटिस देकर यह पूछा है कि मतदाता सूची से मतदाताओं के नाम काटने का सबूत दें, जिससे हम कार्यवाही करें। ज्ञात हो कि अखिलेश यादव ने अभी कुछ दिन पहले चुनाव आयोग पर आरोप लगाते हुए कहा था कि विधानसभा चुनाव में मतदाता सूची में हर विधानसभा सीट पर यादवों और मुसलमानों के 20-20 हजार नामहटाए गए हैं। पूरा तंत्र मिलकर सपा को मिली हुई जीत को भाजपा को दिलवाने का काम किया है।

अखिलेश यादव के इस आरोप पर चुनाव आयोग ने उनको नोटिस देकर इस संबंध में सबूत मांगा है। चुनाव आयोग इस तरह की नोटिस देकर अखिलेश यादव पर दबाव बनाने का काम कर रहा है। चुनाव आयोग भाजपा के इशारे पर अखिलेश यादव पर इसलिए दबाव बना रहा है, जिससे अखिलेश यादव नीतीश कुमार के राजनीतिक दलों के मोर्चे में शामिल न हों और भाजपा आसानी से यूपी में अधिकतम लोकसभा सीटें जीतने में कामयाब हो जाए। लेकिन चुनाव आयोग का यह दबाव काम नहीं करेगा।

अखिलेश यादव की सपा आज यूपी में एक बड़ी राजनीतिक ताकत के रूप में मैदान में खड़ी हुई है। नीतीश कुमार और अखिलेश यादव मिलकर यूपी में भाजपा को लोहे के चने चबवा सकते हैं यानी भाजपा को चुनावी मैदान में तगड़ा झटका दे सकते हैं। इसीलिए भाजपा ने चुनाव आयोग के जरिये अखिलेश यादव को नोटिस दिलवा कर नीतीश कुमार के साथ उनको जाने से रोकने की कवायद की है। अब अखिलेश यादव चुनाव आयोग के दबाव में आते हैं या वह चुनाव आयोग को क्या जवाब देते हैं, यह तो वही जानें। लेकिन चुनाव आयोग की भूमिका 2022 के विधानसभा चुनाव में निष्पक्ष नहीं रही है।

इस बात का सबसे बड़ा सबूत यह है कि चुनाव के दौरान सपा ने लखनऊ रेंज की पुलिस अधिकारी आईजी लक्ष्मी सिंह के तबादला करने के लिए चुनाव आयोग को एक पत्र लिखा था। सपा ने अपने पत्र में यह आरोप लगाया था कि लक्ष्मी सिंह के पति राजेश्वर सिंह लखनऊ की सरोजिनी नगर विधानसभा क्षेत्र से भाजपा उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ रहे हैं और उनकी पत्नी लक्ष्मी सिंह लखनऊ रेंज की आईजी हैं। यह चुनाव प्रभावित कर रही हैं, इसलिए इनका तबादला कर दिया जाए। लेकिन चुनाव आयोग ने सपा के इस पत्र पर कोई कार्यवाही नहीं की। राजेश्वर सिंह विधायक बन गए और लक्ष्मी सिंह आईजी बनी रहीं। चुनाव आयोग ने इस पर क्यों कार्यवाही नहीं किया? इस सवाल का जवाब तो, वही दे सकता है। लेकिन इससे चुनाव आयोग की निष्पक्षता सन्देह के घेरे में है, इसको वह झुठला नहीं सकता है।

उधर दूसरी ओर सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने चुनाव आयोग पर फिर निशाना साधा है और उन्होंने कहा है कि चुनाव आयोग ने चुनाव में शिकायतों का क्यों नहीं संज्ञान लिया? अखिलेश यादव ने चुनाव आयोग से कहा है कि, “पार्टी के पदाधिकारियों ने चुनाव के समय चुनाव आयोग के अधिकारियों से मुलाकात कर शिकायत की। लेकिन इसके बावजूद लक्ष्मी सिंह का तबादला नहीं किया गया, जबकि यहीं के सरोजनी नगर क्षेत्र में उनके पति भाजपा के प्रत्याशी थे।”

अखिलेश यादव ने इस तरह की बात कहकर चुनाव आयोग को एक बार फिर कठघरे में खड़ा कर दिया है। इससे चुनाव आयोग की विश्वसनीयता पर संकट खड़ा हो गया है। अब चुनाव आयोग संदेह के घेरे में ही नहीं बल्कि अपने ही बुने जाल में फंस गया है और उसकी विश्वसनीयता खतरे में पड़ गई है। भाजपा को मदद करने के फिराक में चुनाव आयोग बुरी तरह फंस गया है और उसे अखिलेश यादव को नोटिस देना भारी पड़ रहा है।

भाजपा द्वारा अकेले पूरे देश पर राज करने का उसका सपना कभी पूरा नहीं होगा। समूचे देश में अलग-अलग राज्यों की अपनी विशेषता है और उसकी अलग-अलग समस्याएं हैं। आजादी के बाद से लेकर आज तक देश पर राज करने वाली राजनीतिक पार्टियों ने राज्यों की मूलभूत समस्याओं की ओर कभी ध्यान नहीं दिया है। अगर इन्होंने ध्यान दिया होता, तो ऐसी नौबत नहीं आती।

देश में अधिकतर क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का जन्म उनके अपने राज्यों की समस्याओं के कारण हुआ है, ऐसे में वे राजनीतिक दल कभी खत्म नहीं हो सकते हैं। हां केंद्र की सत्ता पर बैठने का सपना देखने वाले बड़े राजनीतिक दल का केंद्र की सत्ता हासिल करने का सपना जरूर टूट सकता है। इसकी वजह अपने सहयोगी पार्टियों से वादा खिलाफी और उनको खत्म करने का मंसूबा बनाना है। भाजपा क्षेत्रीय दलों को खत्म करने का जो मंसूबा बनाए हुए है, वह उसी पर भारी पड़ सकता है।

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