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Thursday, May 9, 2024
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आपराधिक क़ानून विधेयकों और विपक्षी सांसदों पर कार्रवाई को लेकर विशेषज्ञों ने जताई चिंता

-अनवारुलहक़ बेग

नई दिल्ली | आईपीसी, सीआरपीसी और साक्ष्य अधिनियम की जगह क्रिमिनल लॉ बिलों को पारित करने की सरकार की जल्दबाज़ी और बड़ी संख्या में विपक्षी सांसदो के निलंबन पर नई दिल्ली में आयोजित हुई कानूनी चर्चा में सेवानिवृत्त न्यायाधीश, कानूनी विशेषज्ञ और वरिष्ठ वकील शामिल हुए.

मंगलवार शाम एसोसिएशन फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ सिविल राइट्स (एपीसीआर) द्वारा आयोजित बैठक में इस मुश्किल समय में न्यायपालिका की महत्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर दिया गया.

दोनों सदनों से 141 विपक्षी सांसदों के निलंबन के बाद, लोकसभा ने बुधवार दोपहर तीन संशोधित आपराधिक कानून विधेयक पारित किए. वर्तमान संसद के अंतिम शीतकालीन सत्र के दौरान, अब तक कुल 141 संसद सदस्यों (लोकसभा से 95 और राज्य सभा से 46) को निलंबित कर दिया गया है, इसके बाद अब विपक्षी गठबंधन इंडिया के केवल 44 सांसद बचे हैं जो दूरसंचार, आपराधिक कानूनों और मुख्य चुनाव आयुक्त और अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति से संबंधित कई प्रभावशाली विधेयकों को पारित करने की प्रक्रियाओं और चर्चाओं में भाग ले पाएंगे.

इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, नई दिल्ली में “बिटविन बार्स एंड फ्रीडम: रीसेंट ज्यूडिशियल ट्रेंड्स” (सलाखों और आज़ादी के बीच वर्तमान न्यायिक प्रवृत्तियां) विषय पर अपने उद्घाटन भाषण में, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर अपूर्वानंद झा ने बड़ी संख्या में विपक्षी सांसदों के निलंबन के समय की निंदा की.

उन्होंने कहा कि, बहस के बिना या देश की एक बहुत बड़ी आबादी के प्रतिनिधियों की अनदेखी करते हुए व्यापक और प्रभावशाली आपराधिक कानून पारित करने का सरकार का प्रयास जो व्यक्तिगत जीवन और राष्ट्र की संरचना दोनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है.

प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा, “विचार-विमर्श और संवाद लोकतंत्र के महत्वपूर्ण पहलू हैं लेकिन यहां लोकतंत्र को केवल बहुसंख्यकों की इच्छा स्थापित करने (थोपने) के रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया जा रहा है.”

भारत के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के हालिया बयान “लोकतंत्र में बहुमत का अपना तरीका होगा लेकिन अल्पसंख्यक को अपनी बात कहनी होगी” का ज़िक्र कर प्रोफेसर अपूर्वानंद ने वर्तमान स्थिति पर व्यंग्य करते हुए कहा कि, इसकी एक व्याख्या यह हो सकती है इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि अल्पसंख्यक क्या कहते हैं, अंततः बहुमत की ही जीत होगी.

लोकतंत्र और बहुलवादी समाज में कानून के शासन, समानता, निष्पक्षता और प्रक्रियात्मक अखंडता के सर्वोपरि महत्व पर ज़ोर देते हुए, प्रोफेसर अपूर्वानंद ने कहा कि न्यायपालिका का कार्य सिर्फ कार्यकारी या सरकार की अन्य शाखाओं के साथ “पारस्परिक सहयोग” करना नहीं है बल्कि सिद्धांतों को तनावपूर्ण, प्रतिकूल संबंधों के बीच भी बनाए रखते हुए, नियमों का पालन सुनिश्चित करने के लिए जांच और संतुलन का अभ्यास करना है.

संसद की कार्यवाही के दौरान उपराष्ट्रपति द्वारा बार-बार यह दावा किया गया कि ‘न्यायपालिका उनकी निगरानी नहीं कर सकती या उनसे ऊपर नहीं हो सकती और वे अंतिम हैं क्योंकि उनके पास सदन में संख्या बल है’ इस दावे को बहुत खतरनाक बताते हुए प्रोफेसर झा ने बहुसंख्यकवाद के समय में अदालतों की महत्वपूर्ण भूमिका पर ज़ोर दिया.

बहुसंख्यकवाद के दौर में अदालतों की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में दो साल पहले भारत के मुख्य न्यायाधीश के बयान पर चर्चा करते हुए प्रोफेसर झा ने पिछले दो वर्षों में अदालतों के वास्तविक व्यवहार पर सवाल उठाया. उन्होंने बाबरी मस्जिद के फैसले को संभावित रूप से बहुसंख्यकवादी इच्छा के आगे झुकने का एक ज्वलंत उदाहरण बताया , जिससे मौजूदा कार्रवाइयों और ऐसे समय के दौरान अदालतों द्वारा वांछित कार्रवाई के बारे में गंभीर सवाल खड़े हो गए.

उन्होंने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) को वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद परिसर का सर्वेक्षण करने की अनुमति देने के हालिया फैसलों पर भी सवाल उठाया. उन्होंने कहा कि सर्वेक्षण ‘बंद विवादों’ को फिर से शुरू कर सकता है और पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम 1991 को पूरी तरह से बेकार कर सकता है.

प्रो. झा ने चिंता जताई कि ‘बहुसंख्यकवादी हमले या बुलडोज़र’ पर अंकुश लगाने की तत्काल आवश्यकता को संबोधित करने के बजाय, अदालतें इसे और मज़बूत करती दिख रही हैं.

इस अवसर पर, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी दिल्ली (सीसीजी-एनएलयूडी) में सेंटर फॉर कम्युनिकेशन गवर्नेंस के प्रोजेक्ट ऑफिसर, एडवोकेट फवाज़ शाहीन ने एपीसीआर द्वारा प्रकाशित “रिफॉर्म एंड रिफ्लेक्शन (सुधार और प्रतिबिंब): आपराधिक कानूनों का विश्लेषण (संशोधन) विधेयक, 2023” शीर्षक से एक विस्तृत रिपोर्ट प्रस्तुत की.

फ़वाज़ शाहीन ने प्रस्तावित आपराधिक कानून बिलों के लिए गृह मंत्री द्वारा घोषित उद्देश्यों की आलोचना की, विशेष रूप से ब्रिटिश औपनिवेशिक विरासत को समाप्त करने और आपराधिक न्याय प्रणाली में उपनिवेशवाद के बाद का क्षण लाने का लक्ष्य जैसे उद्देश्यों को पूरा करने में यह बिल विफल रहा है.

वर्तमान समय में पुलिस के रवैये, उनकी गिरफ्तार करने और हिरासत में लेने की शक्ति और उनकी जवाबदेही की कमी को औपनिवेशिक विरासत के रूप में बताते हुए, शाहीन ने टिप्पणी की कि संविधान और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा उल्लिखित दिशानिर्देशों के बावजूद, बिल का पाठ और सार आपराधिक कानूनों के मसौदे में कोई बदलाव लाते नहीं दिखता है और यह नागरिक-समर्थक रवैये को प्रतिबिंबित करने में विफल है, इस प्रकार यह एक औपनिवेशिक विरासत का ही प्रतिनिधित्व करता है.

फवाज़ शाहीन ने हथकड़ी लगाने, मॉब लिंचिंग और देशद्रोह जैसे अत्यधिक विवादास्पद मामलों से संबंधित विधेयकों की खामियों पर प्रकाश डाला. हथकड़ी लगाने की शक्ति के मुद्दे के संबंध में, शाहीन ने उल्लेख किया कि विधेयक ने पुलिस को व्यक्तियों को हथकड़ी लगाने का अधिकार देता है, जो सुप्रीम कोर्ट के विभिन्न निर्णयों का खंडन करता है. शीर्ष अदालत ने पहले हथकड़ी लगाने की प्रथा की निंदा करते हुए इसे भारतीय संविधान द्वारा प्रदत्त अधिकारों का उल्लंघन बताया था.

मॉब लिंचिंग पर, शाहीन ने कहा कि हालांकि बिल में मॉब लिंचिंग को संबोधित करने वाले प्रावधान पेश किए गए हैं, लेकिन मॉब लिंचिंग के विरुद्ध प्रस्तावित दंड अपर्याप्त हैं. उन्होंने कहा, “नए विधेयक में ‘मॉब लिंचिंग’ शब्द का विशेष रूप से उल्लेख किए बिना, एक समूह द्वारा की जाने वाली हत्या के अपराध के भीतर अपराधों की विशेष श्रेणी के रुप पेश किया गया है. यहां तक कि यह बिल मुद्दे के मूल कारणों, जैसे कमज़ोर समूहों और अल्पसंख्यकों को निशाना बनाकर नफरत या गलत सूचना का प्रसार, साथ ही ऐसी घटनाओं के पीछे के राजनीतिक उद्देश्यों को भी संबोधित करने में विफल है.

शाहीन ने बताया कि, विधेयक पेश करते समय गृह मंत्री ने औपनिवेशिक राजद्रोह कानून (कोलोनियल सिडिशन लॉ) को हटाने का वादा किया था. “हालांकि, नया बिल तो इसी का व्यापक और कठोर रूप फिर से प्रस्तुत करता है.”

आतंकवादी अपराध की परिभाषा को व्यापक बनाने पर चिंता व्यक्त करते हुए, एडवोकेट शाहीन ने कहा कि, आतंकवाद विरोधी कानून, यूएपीए की धारा 15 से 21 तक के अधिकांश प्रावधानों को नए बिल में एक सामान्य आपराधिक अपराध के तहत दोहराया गया है. “इसके अलावा, नया बिल यूएपीए की तुलना में आतंकवादी संगठन की सदस्यता को अधिक अस्पष्ट रूप से परिभाषित करता है, जिससे संभावित रूप से ऐसे समूहों से जुड़े व्यक्तियों को अपनी गलती साबित किए बिना उन्हें अपराधी घोषित किया जा सकता है. यूएपीए के विपरीत, नए बिल में किसी पर आरोप लगाने से पहले सरकारी मंज़ूरी की आवश्यकता नहीं होगी. इन प्रावधानों को लागू करने का निर्णय अब पुलिस अधीक्षक पर निर्भर करेगा, जिससे इसके संभावित दुरुपयोग और अतिरेक के बारे में चिंताएं और बढ़ गई हैं.”

फवाज़ शाहीन ने स्मार्टफोन या इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की जांच और जब्ती के लिए कानूनी रूप से अनिवार्य ढांचे की कमी के लिए नए बिल की आलोचना की. उन्होंने कानून आयोगों और सुप्रीम कोर्ट के फैसलों की सिफारिशों के बावजूद ज़मानत प्रावधानों को अपडेट करने में विफल रहने के लिए भी नए विधेयक की आलोचना की.

देश में ज़मानत याचिकाओं से निपटने में देरी क्यों हो रही है, यह सवाल उठाते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय और तेलंगाना उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति आर.एस. चौहान ने कहा था कि आंकड़े चौंकाने वाले हैं.

उपलब्ध नवीनतम आंकड़ों के अनुसार, ज़मानत आवेदनों की संख्या बढ़कर 4.3 लाख हो गई है, जिनमें से 3 लाख विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित हैं. सुप्रीम कोर्ट की 2019 से 2020 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, उस वर्ष सुप्रीम कोर्ट में 20,745 ज़मानत आवेदन लंबित थे. वर्तमान में, सुप्रीम कोर्ट में आने वाले मुकदमों में से 33 प्रतिशत मामले ज़मानत याचिकाओं के है.

ज़मानत देने को हतोत्साहित करने वाली वर्तमान संस्कृति को खत्म करने की आवश्यकता की ओर इशारा करते हुए, न्यायमूर्ति चौहान ने सुझाव दिया कि इस संकट को हल करने के लिए, हमें शीर्ष स्तर पर साहस की आवश्यकता है. उन्होंने सभी स्तरों पर न्यायिक रिक्तियों को संबोधित करने के लिए त्वरित कार्रवाई का आग्रह किया.

मीडिया को ज़िम्मेदार बनने के लिए कहते हुए, उन्होंने मीडिया ट्रायल पर अंकुश लगाने की आवश्यकता पर बल दिया क्योंकि ये मिडिया ट्रायल न्यायपालिका में लोगों के विश्वास को कम कर सकते हैं.

ज़मानत प्रक्रिया के बारे में बात करते हुए सेवानिवृत्त न्यायाधीश, बॉम्बे और इलाहाबाद उच्च न्यायालयों के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति अभय थिप्से ने व्यापक रूप से स्वीकृत इस सिद्धांत पर प्रकाश डाला कि ज़मानत देना नियम है और जेल अपवाद है.

उन्होंने कहा कि आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय जेलों में दो-तिहाई आबादी विचाराधीन कैदियों की है. उचित आधार पर ज़मानत प्रक्रिया में अदालतों के सामने आने वाली विभिन्न समस्याओं का हवाला देते हुए न्यायमूर्ति थिप्सी ने कहा कि न्यायाधीशों को अकेले दोषी नहीं ठहराया जा सकता है, क्योंकि कई कारकों पर विचार करने की आवश्यकता है.

विपक्षी सांसदों के निलंबन और उनकी अनुपस्थिति में आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम जैसे महत्वपूर्ण कानूनों के पारित होने पर गहरी चिंता व्यक्त करते हुए, प्रसिद्ध कार्यकर्ता और सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण ने कहा कि, “सरकार तानाशाह है क्योंकि उन्हें लगता है कि ऐसा करने से उन्हें रोकने वाला कोई नहीं है.” यह सब लोकतंत्र, नागरिक स्वतंत्रता और अनुच्छेद 21 में निहित मौलिक अधिकारों का पूरी तरह से हनन है.

भूषण ने मुख्य रूप से न्यायपालिका का ज़िक्र करते हुए स्पष्ट रूप से पूछा “उन्हें कौन रोक सकता है?”. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि संविधान न्यायपालिका को न केवल शक्ति देता है, बल्कि मौलिक अधिकारों की रक्षा करने का गंभीर कर्तव्य भी सौंपता है और यह सुनिश्चित करता है कि कार्यपालिका और विधायिका दोनों अपने अधिकार की उचित सीमा के भीतर काम करें.

भूषण ने बताया कि कुछ समस्याएं पहले टाडा, पोटा, नारकोटिक्स एक्ट और अब नए आपराधिक कानून संशोधन जैसे कठोर कानूनों के निर्माण से उत्पन्न हुईं क्योंकि ये कानून ऐसी स्थिति पैदा करने की कोशिश करते हैं जिसमें पुलिस के पास लगभग असीमित शक्तियां होती हैं और जहां नागरिकों की स्वतंत्रता वस्तुतः पुलिस या सरकार के हाथ में होती है.

कड़े ज़मानत प्रावधानों वाले इन सभी कठोर कानूनों का ज़िक्र करते हुए, जो अनुच्छेद 21 के अधिकारों का उल्लंघन करते हैं, उन्होंने कहा कि ‘दुर्भाग्य से, नए बिल में न केवल उन्हें बरकरार रखा गया है, बल्कि अदालत से कुछ फैसले आ रहे हैं जो कहते हैं कि ज़मानत देते समय इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि क्या आरोपी के ख़िलाफ़ सबूत नगण्य हैं या नहीं, इस पर भी विचार किया जा सकता है.”

इस स्थिति में, उन्होंने न्यायपालिका से व्यक्तिगत स्वतंत्रता की रक्षा के लिए विशेष रूप से सक्रिय होने का आग्रह किया.

अधिवक्ता सुरूर मंदर ने नागरिकों और उनके अधिकारों की सुरक्षा पर बोलते हुए, उत्तरपूर्वी दिल्ली हिंसा मामले के दौरान न्यायमूर्ति एस मुरलीधर के स्थानांतरण की घटना का उल्लेख किया. न्यायमूर्ति मुरलीधर की अगुवाई वाली पीठ ने 24 घंटे के भीतर हिंसा रोकने में दिल्ली पुलिस की विफलता पर नाराज़गी व्यक्त की थी.

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