इंडिया टुमारो
नई दिल्ली | आरटीआई कार्यकर्ता अमित जेठवा की जुलाई 2010 में हुई हत्या के मामले में गुजरात उच्च न्यायालय ने सोमवार को भाजपा के पूर्व सांसद दीनू सोलंकी और छह अन्य को बरी कर दिया है.
अदालत ने इस मामले में सीबीआई की जांच को लापरवाही करार दिया.
सूचना का अधिकार (आरटीआई) कार्यकर्ता अमित जेठवा की हत्या के मामले में भाजपा के पूर्व सांसद दीनू सोलंकी और छह अन्य को जुलाई 2019 में उम्रकैद की सज़ा सुनाई गई थी.
जेठवा की 20 जुलाई 2010 को अहमदाबाद में गुजरात उच्च न्यायालय के सामने बार काउंसिल की इमारत के बाहर दो लोगों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
आरटीआई कार्यकर्ता अमित जेठवा की हत्या के बाद हमलावर एक मोटरसाइकिल और एक देसी रिवॉल्वर छोड़कर मौके से फरार हो गए थे.
जस्टिस एएस सुपेहिया और जस्टिस विमल के व्यास की खंडपीठ ने सोमवार को अदालत में फैसला पढ़ते हुए कहा कि यह मामला ‘भयावह और उतना ही आश्चर्यजनक’ है कि हत्या के बाद हमलावरों को पकड़ा नहीं गया और वे अहमदाबाद शहर की सीमा से फरार हो गए.
अमित जेठवा ने आरटीआई द्वारा गिर वन क्षेत्र में अवैध खनन गतिविधियों को उजागर करने की कोशिश की थी, जिसमें कथित तौर पर भाजपा सांसद दीनू सोलंकी शामिल थे. साल 2010 में अमित जेठवा की गुजरात हाईकोर्ट परिसर के पास दो लोगों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी.
2019 में सोलंकी और छह अन्य को एक सीबीआई की विशेष अदालत ने दोषी ठहराया और आजीवन कारावास की सजा सुनाई.
इस मामले में दोषी पाए गए पांच अन्य आरोपियों में शैलेष पंड्या, बहादुर सिंह वढेर, पंचेन जी देसाई, संजय चौहान और उदयजी ठाकोर शामिल थे.
सोमवार (6 मई) को हाईकोर्ट के जस्टिस एएस सुपेहिया और जस्टिस विमल के. व्यास की पीठ ने कहा कि पूरी जांच एक दिखावा थी और सच्चाई को हमेशा के लिए दफनाने के सभी प्रयास किए गए थे. अदालत ने कहा, ‘अपराधी ऐसा करने में सफल भी हो गए हैं.’
पीठ ने यह कहते हुए कि हाईकोर्ट ने जांच सौंपते समय सीबीआई पर भरोसा जताया था और कहा, “सीबीआई ने भी ढिलाई और लापरवाही से जांच की है.”
अदालत ने कहा कि, “जांच अधिकारी सही मानकों का पालन करने और लोक अभियोजक अपने कर्तव्य में विफल रहे.”
कोर्ट ने कहा, “विरोधी गवाहों से जिरह एक खोखली औपचारिकता जैसी थी. साक्ष्य जुटाने का कोई प्रयास नहीं किया गया. सभी गवाह पुलिस सुरक्षा का मज़ा ले रहे थे, लेकिन वे सभी मुकर गए और अभियोजन से बच गए.”
रिपोर्ट के अनुसार, अदालत ने सवाल उठाते हुए कहा कि, “यह अजीब लगा कि सीबीआई अधिकारी मुकेश शर्मा ने उस स्थान पर, जहां कथित साजिश रची गई थी, को नज़रअंदाज़ कर दिया या वहां जाना भूल गए और इसे भाजपा के दीनू सोलंकी से जोड़ने का कोई प्रयास नहीं किया.”
अदालत ने कहा कि, “सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि मृतक के मोबाइल फोन से कोई डेटा एकत्र नहीं किया गया है, हालांकि कॉल रिकॉर्ड उपलब्ध थे.”
अदालत ने कहा कि ऐसा लगता है कि जांच को जानबूझकर खराब किया गया है ताकि अपराध में आरोपी की संलिप्तता के नतीजे को बदला जा सके.
कोर्ट ने न्यायविद नानी ए पालखीवाला का हवाला देते हुए कहा, “हमारे लोकतंत्र और राष्ट्र की एकता और अखंडता का अस्तित्व इस अहसास पर निर्भर करता है कि संवैधानिक नैतिकता संवैधानिक वैधता से कम आवश्यक नहीं है. धर्म दिलों में रहता है; जब यह वहां मर जाता है, तो कोई संविधान, कोई कानून, कोई संशोधन इसे नहीं बचा सकता है.”