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Thursday, May 9, 2024
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मौलाना आज़ाद मुसलमानों के नहीं, देश के नेता थे : प्रसिद्ध इतिहासकार इरफ़ान हबीब

–मसीहुज़्ज़मा अंसारी

नई दिल्ली | अपनी नयी किताब “मौलाना आज़ाद: एक जीवन” के मुख्य बिंदुओं पर प्रकाश डालते हुए प्रसिद्ध इतिहासकार प्रो. इरफ़ान हबीब ने कहा कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद केवल मुसलमानों के नेता नहीं बल्कि देश के नेता थे।

प्रोफेसर हबीब ने यह विचार अपनी किताब पर आयोजित चर्चा के दौरान व्यक्त किए। इस चर्चा का आयोजन दिल्ली स्थित शोध संस्थान सेंटर फॉर स्टडीज़ ऑफ प्लूरल सोसाइटीज़ (CSPS) द्वारा 19 मई को न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी के आर्ट एंड कल्चर सेंटर में किया गया था।

इस कार्यक्रम में इतिहासकार इरफ़ान हबीब के आलावा दिल्ली विश्विद्यालय के इतिहास विभाग के पूर्व प्रोफेसर और इतिहासकार अमर फारूकी और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के सेंटर फॉर पॉलिटिकल स्टडीज़ के असिस्टेंट प्रोफेसर डॉ. आमिर अली ने भी अपने विचार श्रोताओं के समक्ष पेश किया.

अपनी बात रखते हुए प्रो इरफ़ान हबीब ने कहा कि, मौलाना आज़ाद केवल राजनीतिक व्यक्ति या एक इस्लामिक विद्वान नहीं थे बल्कि उसके अलावा भी बहुत कुछ थे जिनपर बात करने की आवश्यकता है.

मौलाना आज़ाद एक लेखक, वक्ता, संगीत प्रेमी, कला प्रेमी, साहित्यकार, स्वतंत्रता सेनानी के साथ-साथ भारत विभाजन के विरुद्ध सबसे प्रखर आवाज़ थे जिनसे प्रभावित होकर लाखों मुसलमानों ने मुस्लिम लीग का विरोध किया और मौलाना आज़ाद का समर्थन किया.

उन्होंने कहा कि, अलहिलाल और अलब्लाग जैसी पत्रिका निकालकर मौलाना आज़ाद ने अपने राष्ट्रवादी विचारों से लोगों को प्राभावित किया. नेहरू के साथ की गई चर्चा को भी बड़ी साहित्यिक शैली में गुबार ए खातिर में दर्ज किया है. गुबार ए खातिर में लिखे गए उनके पत्र उच्च कोटि की साहित्य शैली में शुमार किया जाता है.

मौलाना आज़ाद देश के बंटवारे के घोर विरोधी थे और इसका प्रमाण उनके लेख और उनके भाषण हैं. अपने विचारों को बड़े ही सरल अंदाज़ में रखते थे और उसके प्रति दृण थे.

उन्होंने कहा कि, आज़ादी के बाद वो देश के शिक्षा मंत्री बने और शिक्षा की मज़बूत बुनियाद रखी लेकिन इसके साथ ही वो विस्थापित लोगों के बच्चों की शिक्षा के लिए भी प्रयासरत थे और पाकिस्तान से आए लोगों की शिक्षा का प्रबंध करने में बड़ा योगदान दिया. उस समय यह एक बड़ी चुनौती थी.

प्रो इरफ़ान हबीब ने कहा, मौलाना आज़ाद पर किताब लिखना मैने इसलिए चुना क्योंकि उनका इस्लाम को लेकर जो विचार था वह सबसे अलग और प्राभावित करने वाला था. उन्होंने इस्लाम को उपनिवेशवाद के विरोध में एक औजार के रुप में इस्तेमाल किया. केवल भारत में ही नहीं बल्कि मुस्लिम दुनिया में उपनिवेशवाद का उन्होंने विरोध किया. उस समय यह बहुत महत्वपूर्ण था क्योंकि मुस्लिम दुनिया कहीं न कहीं उपनिवेशवाद का शिकार थी, मुस्लिम देश कहीं ब्रिटेन के अधीन थी तो कहीं फ्रांस के. उस समय इस्लाम की व्याख्या उपनिवेशवाद के विरोध में करना एक क्रांतिकारी विचार था.

प्रो इरफान ने अपने वक्तव्य में कहा कि जब अल्लामा इक़बाल जैसा क़ाबिल इंसान धर्म की बुनियाद पर राज्य और स्टेट का समर्थन कर रहा था वहीं उस समय मौलाना आज़ाद अपनी लोकतांत्रिक बुनियाद पर जमे रहे और देश के बंटवारे का विरोध किया.

उन्होंने कहा, मौलाना आज़ाद ने बड़ी मज़बूत दलील के साथ और पैगंबर के जीवन से उदाहरण देते हुए देश के विभाजन का विरोध किया. मौलाना ने कहा था कि, जब पैग़म्बर के समय अरब में यहूदी और मुसलमान एक साथ रह सकते हैं तो हिंदुस्तान में मुस्लिम और हिंदू एक साथ क्यों नहीं रह सकते.

प्रो इरफान हबीब ने अपने वक्तव्य में महान कवि अल्लामा इक़बाल की इस्लामिक राष्ट्रवाद को लेकर आलोचना भी की. उन्होंने कहा कि, “अल्लामा इक़बाल ने इस्लामिक राष्ट्रवाद की बात की और उसकी वकालत की जो बड़ी हैरत की बात है. एक बड़े विद्वान, कवि और इस्लाम के गहन अध्यन के बावजूद उन्होंने इस्लामिक राष्ट्रवाद का समर्थन किया और उसके आंदोलन को बल दिया. दूसरी तरफ मौलाना आज़ाद का कहना था कि इस्लाम को किसी बाउंड्री में क़ैद करने का विचार ही इस्लाम के खिलाफ़ है.”

उन्होंने कहा कि, हालांकि अल्लामा इक़बाल के समय में ही बहुत से इस्लामिक राष्ट्र वजूद में थे लेकिन उनकी पहचान अलग थी.

प्रो इरफ़ान ने कहा कि, मौलाना आज़ाद और अल्लामा इक़बाल में कई बातों में समानता होने के बावजूद इसलामी राष्ट्रवाद के बिंदू पर मतभेद था और दोनों के अपने अपने तर्क थे. दोनों इस्लाम के विद्वान थे, आधुनिक सोच और शिक्षा के साथ महान लेखक और थिंकर थे लेकिन इस्लाम के नाम पर किसी राष्ट्र की स्थापना को लेकर दोनों में गहरा विरोध था.

उन्होंने कहा कि, मौलाना आज़ाद ने अपने जीवन में वैचारिक मतभेद के कारण कभी भी अल्लामा इक़बाल से कोई संबंध नहीं रखा. जब 1938 में अल्लामा इक़बाल की मौत हुई तो मौलाना आज़ाद ने डेढ़ लाइन में शोक संदेश लिख कर औपचारिकता निभाई.

प्रो इरफान ने कहा कि, यह बहुत ही महत्वपूर्ण बिंदु है कि एक समय में ही दोनों बड़े विद्वानों के रहते हुए और कई बातों में काफ़ी समानता होते हुए भी दोनों का इस्लामिक राष्ट्रवाद को लेकर गहरा विरोध था.

इरफ़ान हबीब ने मौलाना आज़ाद पर बात रखते हुए कहा कि, वह एक रिवायती मौलाना नहीं थे बल्कि कला एवं साहित्य में रुचि रखने वाले व्यक्ति थे. उन्होंने आज़ादी के बाद इस क्षेत्र में कई संस्थानों की बुनियाद रखी. संगीत नाट्य अकादमी, ललित कला अकादमी की बुनियाद रखी. इसकी बुनियाद नेहरू के प्रधानमंत्री कार्यकाल में ज़रूर रखी गई लेकिन इसके स्तंभ मौलाना आज़ाद थे. मौलाना आज़ाद को संगीत बहुत पसंद था. उन्होंने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जाकर सितार बजाना सीखा.

1949 में उन्होंने सरदार पटेल को एक पत्र लिखा. उस समय सरदार पटेल सूचना और प्रसारण मंत्री थे. उन्होंने लेटर में कहा, “मैं आप के मंत्रालय में दख़ल देने के लिए माफी चाहता हूं, आप बुरा न मानें कि मैं आप के कार्यक्षेत्र में दखल दे रहा. संगीत में मेरा व्यक्तिगत लगाव है इसलिए जब मैं संगीत का प्रसारण देखता हूं तो इसके ख़राब स्तर से मुझे दुख होता है. अगर आप चाहें तो मैं इसके स्तर को बेहतर बनाने के लिए आप का सहयोग कर सकता हूं ताकि प्रसारित की जाने वाले म्यूज़िक की गुणवत्ता बेहतर हो सके.

मौलाना आज़ाद और उनके परिवार पर बात रखते हुए प्रो हबीब ने कहा, “मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना खैरुद्दीन अपने परिवार को लेकर अरब चले गए और वहीं रहने लगे. मौलाना आज़ाद अरब के मक्का में पैदा हुए. उस समय अरब में ओटोमन साम्राज्य (उस्मानी सल्तनत) का दौर था. उस्मानी सल्तनत या उस्मानी इस्लाम दर्वेशी और सूफी स्वभाव से प्रेरित था. उस समय वहाबी इस्लाम का उदय हो रहा था. मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना खैरुद्दीन ओटोमन इस्लाम से प्राभावित थे. उन्हें भी लोग पीर की तरह मानते थे.

प्रो इरफान ने कहा कि, सूफी और दर्वेशी इस्लाम के शासन में अरब में पैदा हुए मौलाना आज़ाद के जीवन पर ख़ासा प्रभाव पड़ा. सूफी इस्लाम वहाबी इस्लाम की तुलना में अधिक समावेशी था इसलिए मौलाना आज़ाद के जीवन पर भी इसका असर साफ दिखाई देता है.

मौलाना आज़ाद के पिता मौलाना खैरुद्दीन अपने इलाज के लिए हिंदुस्तान वापस आकर कोलकाता में रहने लगे. उन्होंने मौलाना आज़ाद को मदरसे में इसलिए नहीं पढ़ाया क्योंकि उन्हें डर था कि मदरसे का मौलवी उन्हें वहाबी इस्लाम पढ़ाएगा. इसलिए उनकी शिक्षा किसी मदरसे में नहीं हुई बल्की उन्होंने घर पर ही स्वतंत्र रहकर तालीम हासिल की.

प्रो हबीब ने कहा, मौलाना आज़ाद के जीवन में हमेशा इसका प्रभाव देखने को मिलता है, उनकी लेखनी में, उनके भाषणों में, उनके विचार में और उनके स्वाभाव में.

मौलाना आज़ाद पर आगे बात करते हुए उन्होंने कहा, “वह हमेशा से धर्म के नाम पर देश के विरोधी थे इसीलिए उन्होंने मुस्लिम लीग का विरोध किया और कौम की बुनियाद पर स्टेट की स्थापना को बात करने वालों से दूरी बनाए रखे.”

मौलाना आज़ाद ने अपने राष्ट्रवादी और लोकतांत्रिक विचारों से समर्थकों की एक बड़ी तादाद जमा की थी जो उन्ही की तरह देश के बंटवारे के विरोधी थे और लोकतांत्रिक मूल्यों के पक्षधर थे. इनमें सबसे बड़ा नाम अल्लाह बख्श सूमरो का है. जब मौलाना आज़ाद दोबारा कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए तो मुस्लिम लीग ने 23 मार्च 1940 को लाहौर में मुसलमानों के लिए एक अलग आजाद देश की मांग का प्रस्ताव पारित किया. इसके तुरंत बाद 27 से 30 अप्रैल 1940 के बीच अल्लाह बख्श सूमरो ने भी दिल्ली में उन मुसलमानों का एक बड़ा सम्मेलन आयोजित किया जो बंटवारे के विरोध में थे और मौलाना आज़ाद के विचारों से प्रभावित थे. इस ऐतिहासिक जनसभा का नाम आजाद मुस्लिम कॉन्फ्रेंस रखा गया था और इसमें देशभर से लगभग एक लाख मुसलमानों ने हिस्सा लिया. उस समय एक लाख लोगों की जनसभा करना काफ़ी मुश्किल था. देश के बंटवारे के विरोध में मुसलमानों की इतनी बड़ी जनसभा के बाद मुस्लिग लीग घबरा गई. 14 मई, 1943 को कुछ अज्ञात लोगों ने अल्लाह बख्श सूमरो की हत्या कर दी. हत्या का आरोप मुस्लिम लीग पर लगा, हालांकि यह साबित नहीं हो सका.

इसी प्रकार दारुल उलूम देवबंद ने भी मौलाना आज़ाद के विचार से प्रभावित होकर बंटवारे का विरोध किया.

गुबार ए खातिर का ज़िक्र करते हुए प्रो इरफ़ान ने कहा कि जेल में बन्द रहने के दैरान उन्होंने कई लेटर लिखे जो अलग अलग विषयों पर अधारित थे. उन्होंने चाय पर बहुत विस्तार से लिखा जिसमें यह भी कहा कि जेल में मेरे साथ सिर्फ जवाहर लाल नेहरू हैं जिनके साथ मैं चाय पीता हूं वरना यहां कोई और नहीं है जिसके साथ मैं चाय साझा कर सकूं.

मौलाना आज़ाद म्यूज़िक सुनने के शौकीन थे और उन्होंने गुबार ए ख़ातिर में इस पर विस्तार से बात की है. अपनी कला और साहित्य के प्रति रुचि के कारण ही मौलाना आज़ाद ने साहित्य अकादमी, ललित कला अकादमी, संगीत कला अकादमी की स्थापना की.

उन्होंने कहा कि मौलाना आज़ाद की शिक्षा और शोध में गहरी रुचि को इस बात से समझा जा सकता है कि शिक्षा मंत्री बनने के बाद जब शिक्षा और शोध संस्थानों की स्थापना हुई तो अधिकतर के उद्घाटन समारोह में मौलाना आज़ाद ख़ुद मौजूद रहे.

मौलाना आज़ाद राजनीती से परे देश के निर्माण में बहुत ही महत्वपूर्ण और बुनियादी क़िरदार निभाया.

1927 में मौलाना आज़ाद ने अल हिलाल में कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो पब्लिश किया और लिखा कि मैं कार्ल मार्क्स की विचाराधारा का समर्थक नहीं हूं लेकिन एक बड़ा विद्वान जिसकी विचाराधारा ने कई मुल्क पर राज किया है और पाठकों को उसे पढ़ना चाहिए इसलिए मैं इसे साझा कर रहा हूं.

प्रो इरफ़ान हबीब ने कहा कि मौलाना आज़ाद बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे और समावेशी विचार रखने वाले व्यक्ति थे. वह किसी मुसलमान के लीडर नहीं थे बल्कि देश के लीडर थे जो लोकतान्त्रिक विचारों के साथ साथ इस्लाम को एक बड़े विस्तृत अंदाज़ में देखते थे.

कार्यक्रम के अंत में सेंटर फॉर स्टडीज़ ऑफ प्लूरल सोसाइटीज़ (CSPS) के डायरेक्टर प्रो. डॉ ओमैर अनस ने प्रो इरफ़ान हबीब व अन्य वक्ताओं सहित श्रोताओं का आभार व्यक्त किया और कहा कि CSPS छात्रों में शोध करने को लेकर उनके मार्गदर्शन के लिए कार्य कर रहा है और उसी के क्रम में इस प्रकार के विषयों पर चर्चा आयोजित की जाती है जिसे आगे भी CSPS करता रहेगा.

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