-समी अहमद
पटना | बिहार के गोपालगंज के डीएम रहे जी. कृष्णैया की हत्या के मामले में दोषी, पूर्व राजनेता आनंद मोहन सिंह की रिहाई का बिहार सरकार का फैसला चर्चा में है. इस आदेश ने विपक्षी भारतीय जनता पार्टी को मुश्किल में डाल दिया है क्योंकि वह इस फैसले का समर्थन या विरोध करने को लेकर असमंजस में है.
बिलकिस बानो मामले के दोषियों को रिहा करने के गुजरात सरकार के फैसले के कारण भाजपा नेताओं को नीतीश कुमार की निंदा करने के लिए इस मामले में उच्च नैतिक आधार नहीं मिल पा रहा है. इसके अलावा, राजनीतिक समीकरण बीजेपी को नीतीश कुमार की कार्रवाई की निंदा करने की अनुमति नहीं दे रहे हैं क्योंकि इससे बीजेपी के राजपूत वोट बैंक नाराज़ हो सकते हैं.
5 दिसंबर, 1994 को तेलंगाना के महबूबनगर जिले (तत्कालीन आंध्र प्रदेश का हिस्सा) के रहने वाले दलित आईएएस अधिकारी जी. कृष्णैया को मुज़फ्फरपुर में एक भीड़ द्वारा उनकी सरकारी कार से खींचकर उस वक़्त मार दिया गया था, जब वह एक आधिकारिक बैठक में भाग लेकर हाजीपुर से गोपालगंज जा रहे थे. बिहार पीपुल्स पार्टी के तत्कालीन प्रमुख आनंद मोहन पर डीएम की हत्या के लिए भीड़ को उकसाने का आरोप लगाया गया था.
आनंद मोहन को पहले निचली अदालत ने फांसी की सज़ा सुनाई थी लेकिन इसे आजीवन कारावास में बदल दिया गया था. मोहन की पत्नी लवली आनंद और उनके पुत्र चेतन आनंद भी राजनीति में हैं. विडंबना यह है कि आनंद मोहन सिंह राजद सुप्रीमो लालू प्रसाद के घोर विरोधी थे, लेकिन अब मोहन परिवार राजद के साथ है.
अप्रैल 2016 में, जब आनंद मोहन का परिवार एनडीए के साथ था, बिहार सरकार ने बिहार रिहाई कानून में संशोधन किया और उन लोगों को रिहाई सूची से बाहर कर दिया जिन्हें ऑन-ड्यूटी अधिकारी की हत्या के लिए दोषी ठहराया गया था, जिन्हें रिहाई की छूट दी जा सकती थी.
जैसे ही आनंद मोहन ने अपने कारावास के 15 वर्ष से अधिक पूरे किए, उनकी रिहाई की मांग तेज़ हो गई. हालाँकि, 2016 में किए गए कानून में बदलाव के कारण, यह संभव नहीं था, लेकिन आनंद मोहन के परिवार और उनके राजपूत समुदाय से उन्हें रिहा करने की मांग प्रबल हो गई.
आनंद मोहन की रिहाई के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को राजनीतिक दांव पेंच के कारण मजबूर होना पड़ा. महागठबंधन के तीन सहयोगियों, राजद, जद (यू) और कांग्रेस में राजपूतों सहित उच्च जाति के सदस्यों की एक बड़ी संख्या है. उन्हें लगता है कि इससे राजपूत वोटों में सेंध लगाने का रास्ता साफ हो सकता है, जो कथित तौर पर बड़े पैमाने पर बीजेपी के साथ हैं.
कुछ महीनों से यह खबर थी कि आनंद मोहन की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए कानून में बदलाव किया जाएगा. जब एक कार्यक्रम में कुछ लोगों ने आनंद मोहन की रिहाई के लिए नारा लगाया तो नीतीश कुमार ने खुद संकेत दिया था कि वे और उनकी टीम छूट कानूनों में संशोधन को हटाने के पक्ष में थे.
इसलिए, 2016 में किए गए छूट कानून में संशोधन को हटा दिया गया. अब ड्यूटी पर तैनात सरकारी कर्मचारी की हत्या में शामिल लोगों को भी चौदह साल जेल में रहने के बाद रिहा किया जा सकता है.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले महागठबंधन के इस सियासी हथकंडे ने बीजेपी को कठघरे में खड़ा कर दिया है. भाजपा असमंजस में है, वह आनंद मोहन की रिहाई का विरोध नहीं कर सकती क्योंकि राजपूत उनके मूल मतदाता हैं. दूसरी ओर, भाजपा नहीं चाहती कि नितीश कुमार आनंद मोहन की रिहाई का श्रेय ले.
इस स्थिति ने भाजपा नेताओं को परस्पर विरोधी बयान जारी करने के लिए मजबूर कर दिया है. बीजेपी के आईटी विभाग के प्रभारी अमित मालवीय ने ट्वीट किया, “राजद की कुटिल साज़िशों के सामने घुटने टेकने के लिए नितीश कुमार को शर्म आनी चाहिए.” मालवीय का विचार है कि इस निर्णय के पीछे राजद की ‘चालबाजी’ है.
उन्होंने कहा, “बिहार सरकार ने बिहार जेल नियमावली, 2012 में संशोधन करके ‘ड्यूटी पर सरकारी कर्मचारी के हत्यारे’ श्रेणी के कैदियों को चोरी-छिपे हटा दिया था, जिससे डॉन से राजद नेता बने आनंद मोहन की रिहाई का मार्ग प्रशस्त हो गया था, जो दलित आईएएस अधिकारी जी कृष्णय्या की हत्या के लिए आजीवन कारावास की सजा काट रहा था …”
उन्होंने सवाल किया, “सत्ता पर काबिज़ होने के लिए आपराधिक सिंडिकेट का सहारा लेने वाला क्या विपक्षी नेता के तौर पर भी भारत का चेहरा हो सकता है?”
अमित मालवीय शायद बिहार में अपनी ही पार्टी के पदाधिकारियों की मंशा को लेकर अवगत नहीं है. वरिष्ठ नेता और राज्यसभा सदस्य सुशील कुमार मोदी ने आनंद मोहन की रिहाई की खुलकर वकालत की थी. जैसा कि सरकार ने करने का फैसला किया, मोदी इस पर आपत्ति जताने के अलावा कुछ नहीं कह सकते थे कि यह “MY (मुस्लिम-यादव) समीकरण के लिए था. उनके कहने का आशय यह था कि आनंद मोहन सिंह के नाम पर मुस्लिम और यादव समुदाय के सज़ायाफ्ता कैदियों पर एहसान किया जा रहा है.
लेकिन केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह और राजीव प्रताप रूडी जैसे भाजपा नेता आनंद मोहन को रिहा करने के फैसले का स्वागत कर रहे हैं. रूडी आजीवन कारावास की सज़ा काट रहे प्रभुनाथ सिंह की रिहाई की मांग कर रहे.
जद (यू) के युवा नेता और उसके पूर्व प्रवक्ता प्रगति मेहता ने Indiatomorrow.net को बताया, “अगर नियम आनंद मोहन को रिहा करना संभव बना सकता है, तो इसे अशोक महतो के साथ भी लागू किया जाना चाहिए, जो उम्रकैद की सज़ा काट रहे हैं. अशोक महतो एक कुर्मी डॉन है और कई लोगों का मानना है कि आनंद मोहन की रिहाई दूसरों को रिहा करने की मांग को बढ़ाएगी.
वरिष्ठ नेता सिराज अनवर ने लिखा कि कानून को लागू करने और संशोधन को भेदभावपूर्ण नहीं होना चाहिए. उन्होंने कहा कि दिवंगत एम.पी. और एक हत्या के दोषी मोहम्मद शहाबुद्दीन ने सोलह साल जेल में काटे थे, उन्हें रिहा क्यों नहीं किया गया?
इस फैसले से महागठबंधन सहयोगी भाकपा-माले स्पष्ट रूप से नाराज़ है, लेकिन उन्होंने आनंद मोहन की रिहाई का विरोध करने के बजाय, अपने उन सदस्यों की रिहाई की मांग की है, जो टाडा के तहत दोषी ठहराए गए बीस साल से अधिक समय से जेल में हैं.
भाकपा माले के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने एक प्रेस बयान में पूछा, “बिहार में कैदियों की चुनिंदा रिहाई क्यों? जबकि 14 साल से अधिक उम्र के 27 कैदियों को रिहा किया जा रहा है, अरवल के छह ग्रामीण गरीब कार्यकर्ता – कामरेड जगदीश यादव, चूड़ामन भगत, अरविंद चौधरी, अजीत साव, लक्ष्मण साव, श्याम चौधरी – जो 22 साल से अधिक समय से जेल में हैं, क्या वे छोड़े गए हैं?”
दीपांकर ने कहा, “वे उन चौदह साथियों के जीवित सदस्य हैं जिन्हें 2003 में टाडा के तहत न्याय के घोर उपहास में दोषी ठहराया गया था. इन 14 टाडा कैदियों में से छह – कामरेड शाह चंद, मदन सिंह, सोहराय चौधरी, बालेश्वर चौधरी, महंगु चौधरी और माधव चौधरी – की पहले ही जेल में मौत हो चुकी है.”
उन्होंने बताया कि टाडा के 14 दोषियों में से केवल एक – त्रिभुवन शर्मा – को 2020 में उच्च न्यायालय द्वारा रिहा किया गया था. तब से तीन साल बीत चुके हैं, एक और टाडा कैदी की जेल में मृत्यु हो गई, और अब कैदियों की इस चयनात्मक रिहाई ने और अधिक अन्याय किया है ख़ासकर उन पीड़ितों पर जो पहले ही बिहार की जेलों में अपने जीवन के दो दशक से अधिक समय बिता चुके हैं.
उन्होंने सलाह दी कि कैदियों की रिहाई की नीति निष्पक्ष और पारदर्शी होनी चाहिए. उन्होंने “उन सभी उत्पीड़ित गरीब लोगों की रिहाई की मांग की, जिन्हें निषेध अधिनियम के तहत गलत तरीके से बंद कर दिया गया है.”