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Wednesday, May 8, 2024
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उर्दू पत्रकारिता के दो सौ साल: अतीत, वर्तमान और भविष्य

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में प्रेस क्लब ऑफ इंडिया, नई दिल्ली में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया था. इसका विषय था “भारत निर्माण में उर्दू पत्रकारिता की भूमिका”. यह कार्यक्रम 27 मार्च 2022 को आयोजित किया गया था.

हालाँकि उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष पूरे होने के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम के लिहाज़ से यह विषय अधूरा ही प्रतीत होता है. इस कार्यक्रम की चर्चा में भारत और विदेशों में उर्दू पत्रकारिता की वर्तमान स्थिति, इसके भविष्य और इसके अतीत के गौरव को वापस हासिल करने के लिए आवश्यक रणनीतियों पर आधारित मुद्दों को शामिल किया जाना चाहिए था. इसके अलावा, चर्चा में उन कारणों को ज़रूर शामिल किया जाना चाहिए था जो अतीत में उर्दू पत्रकारिता को गौरवान्वित करते थे और समकालीन भारत में इसके पतन के लिए ज़िम्मेदार रहे.

प्रमुख वक्ताओं में से एक, शाहिद सिद्दीकी ने कहा कि उर्दू पत्रकारिता का अत्यधिक महत्व स्वतंत्रता आंदोलन में इसकी महत्वपूर्ण भूमिका के कारण है. सिद्दीकी के अनुसार, भारत का स्वतंत्रता आंदोलन और उर्दू पत्रकारिता एक दूसरे के पर्यायवाची हैं.

भारत भर के कई अन्य उर्दू पत्रकारों ने भी चर्चा में भाग लिया. लगभग सभी वक्ता वर्तमान स्थिति से नज़रे फेर कर उर्दू पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत को लेकर महिमा मण्डन कर रहे थे. कार्यक्रम में शामिल वक्ताओं में से किसी ने भी, यहाँ तक कि सिद्दीकी ने भी, उर्दू पत्रकारिता के पतन पर कोई चर्चा नहीं की कि इसने पत्रकारिता में आना महत्वपूर्ण स्थान क्यों खो दिया?

हिंदी पत्रकारिता के भी उर्दू पत्रकारिता से कोई बेहतर हालात नहीं है

अगर हम ​​गिरते प्रोफेशनल स्टेंडर्ड या पेशेवर स्तर की बात करें तो हिंदी पत्रकारिता की स्थिति भी उर्दू पत्रकारिता से बेहतर नहीं है. दोनों की एक ही समस्या हैं: प्रोफेशनलिज़्म और विश्वसनीयता की कमी. हालांकि हिंदी पत्रकारिता अपने उर्दू की तुलना में थोड़ी बेहतर स्थिति में हो सकती है, क्योंकि हिंदी को राज्य संरक्षण तो मिलता ही है साथ ही इसके पाठको की संख्या भी ज़्यादा है, यह दोनों ही स्थिति उर्दू के लिए उपलब्ध नहीं है. इसके अलावा, 1947 के बाद हिंदी राष्ट्रभाषा बन गई, और इसलिए, यह लोगों की आजीविका से जुड़ गई. इससे हिंदी मीडिया को अपनी पहुंच बढ़ाने में मदद मिली. लेकिन महत्वपूर्ण मुद्दा गुणवत्ता और प्रोफेशनलिज़्म का है, जिसमें हिंदी की हालत भी उर्दू पत्रकारिता के समान ही है.

उर्दू पत्रकारिता : खोजी पत्रकारिता की अग्रदूत

हम इस पर चर्चा करते हैं कि 1947 से पहले उर्दू पत्रकारिता को किस बात ने विश्वसनीयता प्रदान की थी. उर्दू पत्रकारिता पर उपलब्ध पुस्तकों और अन्य साहित्य लेखों से यह पता चलता है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उर्दू पत्रकारों ने खोजी रिपोर्टों के अलावा मुख्य रूप से घटनाक्रम की ग्राउंड रिपोर्टिंग पर ध्यान केंद्रित किया था.

इसलिए यह कहा जा सकता है कि अविभाजित भारत में उर्दू पत्रकारिता ग्राउंड रिपोर्टिंग और खोजी पत्रकारिता का अग्रदूत रही है. उक्त दोनों ही पहलुओं ने उस समय के पाठकों के बीच उर्दू पत्रकारिता और उर्दू पत्रकारों की विश्वसनीयता को स्थापित करने और गौरव दिलाने का काम किया था.

एक बात जिस पर ध्यान देने की ज़रूरत है, वह यह है कि उर्दू पत्रकारों ने 1947 से पहले कठिन परिस्थितियों के बावजूद पत्रकारिता में उच्च स्तर का प्रोफेशनलिज़्म हासिल किया था. उन्होंने सरकार के विरोधियों की तरह काम किया. उन्होंने तत्कालीन ब्रिटिश सरकार के विद्रोह की भूमिका निभाई. और इसलिए, ब्रिटिश सरकार ने उन्हें निशाना बनाकर हमले भी किये.

ब्रिटिश सरकार अंग्रेज़ी पत्रकारिता को समर्थन और सहयोग देती थी इसके विपरीत सरकार द्वारा उर्दू पत्रकारों को दबा दिया गया था. उर्दू पत्रकारों के प्रकाशनों पर प्रतिबंध लगा दिया गया, उनके परिसरों को सील कर दिया गया और उनके मालिकों और संपादकों को कई मामलों में जेल भेज दिया गया. एक उदाहरण मौलवी मुहम्मद बाकर हैं, जिन्हें ब्रिटिश सरकार की नीतियों के खिलाफ लिखने के कारण एक बड़ी तोप के सामने बांधकर उड़ा दिया गया था. उन्हें बिना मुकदमे के सज़ा दी गई थी.

हालाँकि, उर्दू पत्रकारों के पक्ष में एक बात यह थी कि उर्दू उस वक्त एक सामान्य भाषा थी, जो संयुक्त भारत में बड़ी संख्या में पढ़ी और बोली जाने वाली भाषा थी.

इसलिए, उस समय उर्दू भाषा में निकाले जाने वाले अखबारों सभी वर्गों द्वारा पढ़े जाते थे, चाहे पाठक किसी भी धर्म के हों. हालाँकि, 1947 में आज़ादी के बाद भारत में उर्दू को अनौपचारिक रूप से मुसलमानों की भाषा घोषित कर दिया गया. परिणामस्वरूप, उर्दू सरकारी कार्यालयों से गायब हो गई. स्कूलों और कॉलेजों ने धीरे-धीरे उर्दू पढ़ाना बंद कर दिया, जिससे उर्दू जानने वालों की आबादी कम हो गई.

इसलिए, आज़ादी के बाद भारत में उर्दू मीडिया धीरे-धीरे व्यावहारिक रूप से ‘मुस्लिम मीडिया’ के रूप में सिमट गया. इसके पाठकों की संख्या केवल मुसलमानों तक ही सीमित हो गई. इसके विपरीत हिंदी को आधिकारिक संरक्षण मिला क्योंकि इसे आधिकारिक भाषा बना दिया गया था, उर्दू को इस नुकसान का सामना करना पड़ा. उर्दू आजीविका से नहीं जोड़ी गई थी.

वर्तमान भारत में उर्दू पत्रकारिता के पतन के कारण

उर्दू मीडिया के पाठकों की संख्या में गिरावट उर्दू पत्रकारिता के पतन का एक प्रमुख कारण है. यूपी जैसे राज्यों में जहां मुसलमानों की सबसे बड़ी संख्या है वहां भी उर्दू को सौतेला व्यवहार का सामना करना पड़ता है. इसके विपरीत, पड़ोसी देश पाकिस्तान में क़्वालिटी कंटेंट, प्रोफेशनलिज़्म औऱ विश्वसनीयता के लिहाज़ से उर्दू पत्रकारिता या तो अंग्रेज़ी पत्रकारिता के बराबर है या एक कदम आगे है.

लेकिन सवाल यह है कि भारत में उर्दू पत्रकारिता का स्तर क्यों गिर गया है, और इसने लोगों के बीच अपनी विश्वसनीयता क्यों खो दी है? क्यों उर्दू की पाठक संख्या कम हो गई है? नीति निर्माता उर्दू अखबारों में छपने वाले समाचारों और लेखों का उल्लेख क्यों नहीं करते? उर्दू पत्रकारिता में यह गिरावट क्यों आई है?

जब तक हम इन सवालों के जवाब नहीं खोजते, तब तक हम उर्दू पत्रकारिता के गौरवशाली अतीत को पुनः स्थापित करने के लिए कोई ठोस रणनीति नहीं बना सकते. सिर्फ अपने अतीत की गौरव गाथाएं गाने से हमें अपने लक्ष्य हासिल करने में मदद नहीं मिलेगी. हमें उर्दू पत्रकारिता के वर्तमान पतन के कारणों का पता लगाने का प्रयास करना चाहिए.

बार-बार यह कहा जाता रहा है कि उर्दू मीडिया के पास संसाधन नहीं हैं. इसे न तो राजभाषा का दर्जा प्राप्त है और न ही इसे आजीविका से जोड़ा गया है. उत्तर भारत में शायद ही कोई सरकारी स्कूल हो जो अपने छात्रों को उर्दू पढ़ाता हो. उर्दू की शिक्षा मुस्लिमों द्वारा संचालित कुछ स्कूलों और मुस्लिम मदरसों तक सिमट कर रह गई है. इससे उर्दू अखबारों और पत्रिकाओं की पाठक संख्या और पहचान प्रभावित हुई है.

प्रौद्योगिकी और प्रगति के कारण पिछले कुछ वर्षों में पत्रकारिता में बहुत बदलाव आया है, लेकिन इस पेशे के मूल या बुनियादी सिद्धांत अब भी वही है, जो कि “ग्राउंड रिपोर्टिंग, खोजी पत्रकारिता और मूल लेखन”.

भविष्य की राह

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उर्दू पत्रकारों ने खोजी पत्रकारिता को अंजाम दिया, ग्राउंड रिपोर्टिंग की. हालाँकि आज जो हम करते है यह उससे अलग रहा होगा. उर्दू पत्रकारों को अपने पेशे के इस सबसे महत्वपूर्ण पहलू पर विचार करने की ज़रूरत है. क्या हम ग्राउंड रिपोर्टिंग, इन्वेस्टिगेटिव रिपोर्टिंग और ओरिजिनल कटेंट प्रकाशित कर रहे हैं?

क्या हम कुछ ऐसा प्रकाशित कर रहे हैं जिसे अंग्रेज़ी और हिंदी मीडिया द्वारा सराहा जा रहा हो और जिसका वो अनुसरण करना चाहें? मुझे इस बात का पूरा यकीन है कि मुख्यधारा का अंग्रेज़ी और हिंदी मीडिया उर्दू मीडिया या मुस्लिम मीडिया की स्टोरी फॉलो करेगा, अगर उर्दू पत्रकार बेहतरीन ग्राउंड रिपोर्टिंग और जांच रिपोर्ट लेकर आते हैं. मैं दुख के साथ कहता हूं कि हम प्रोफेशनलिज़्म में विफल रहे हैं. हम में से अधिकांश अंग्रेज़ी मीडिया से उठाए गए समाचारों और लेखों को अनुवाद करके प्रकाशित कर रहे हैं.

हम अपनी कमज़ोरियों को यह कहकर नहीं छिपा सकते कि उर्दू मीडिया घरानों के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं और उर्दू के खिलाफ सरकारी पूर्वाग्रह काम करते हैं. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उर्दू पत्रकारों को भी इसी तरह की समस्या का सामना करना पड़ा, फिर भी, वे प्रिंट मीडिया के सबसे लोकप्रिय और बहुत प्रभावी साधन थे.

उस वक्त भी सरकार उनसे डरती थी और लोगों उनके समाचारों और विचारों की मौलिकता के कारण उन पर भरोसा किया करते थे. तो, अगर उर्दू पत्रकार स्वतंत्रता संग्राम के दौरान प्रतिकूल परिस्थितियों में बेहतर प्रदर्शन कर सकते हैं और नाम और प्रसिद्धि अर्जित कर सकते हैं, तो वे अब ऐसा दोबारा क्यों नहीं कर सकते? लेकिन एक तथ्य यह भी है कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान उर्दू पत्रकारों ने पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में लिया था जो उनकी सफलता का कारण हो सकता है. हालांकि, अब ऐसा नहीं है.

कई लोग इस निष्कर्ष से असहमत हो सकते हैं. लेकिन इस संबंध में मेरे पास उर्दू पत्रकारिता के ध्वजवाहकों से पूछने के लिए एक बुनियादी सवाल है कि “हिजाब मामले में कर्नाटक के उच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसले को वरिष्ठ पत्रकारों और शीर्ष उर्दू संपादकों सहित कितने उर्दू पत्रकारों ने पढ़ा है?” इस मुद्दे ने अंतरराष्ट्रीय सुर्खियां बटोरीं और अब निर्णय के लिए सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया गया है. कुछ प्रमुख उर्दू दैनिक और साप्ताहिक समाचार पत्रों में इस विषय पर रिपोर्ट और लेख जो मैंने पढ़े हैं उनसे पता चलता है कि उर्दू पत्रकारों और संपादकों ने इसे नहीं पढ़ा है.

इस विषय पर उर्दू के वैचारिक लेख और रिपोर्टिंग अलग होती अगर उन्होंने इसे पूरा पढ़ा होता. एक बहुत बुद्धिमान व्यक्ति भी अपने काम के साथ न्याय नहीं कर सकता अगर उसके पास सही जानकारी का अभाव है, जो कि किसी भी पत्रकार के लिए काम करने के लिए सबसे ज़रूरी होता है. उर्दू अखबारों में लिखे गए लेख समाचार एजेंसियों और अंग्रेज़ी मीडिया द्वारा रिपोर्ट किए गए फैसले के कुछ अंशो पर ही आधारित हैं.

समाचार एजेंसियों और अंग्रेज़ी अखबारों की ज़रूरत उर्दू अखबारों की तरह नहीं है. अंग्रेज़ी समाचार पत्रों और समाचार एजेंसियों के पास उस तरह के पत्रकार भी नहीं हैं जो हिजाब मुद्दे और न्यायाधीशों द्वारा कुरान और हदीस के उद्धरणों के साथ की गई टिप्पणियों को अच्छे से समझ सकें. इसलिए, उर्दू मीडिया की यह ज़िम्मेदारी थी कि वह अपनी स्टोरीज़ और लेखों के माध्यम से पाठकों को यह बताती कि कैसे न्यायाधीश कुरान के अनुवादकों और टिप्पणीकारों की व्यक्तिगत राय के आधार पर अपने फैसले पर पहुंचे हैं, न कि कुरान के प्रत्यक्ष आदेशों के आधार पर.

अदालत अपने निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए किसके अनुवाद और टिप्पणियों पर निर्भर भरोसा किया? अदालत ने कुरान के अन्य अनुवादकों और टिप्पणीकारों को क्यों खारिज कर दिया? और वे किसके अनुवाद पर निर्भर थे और क्यों? इस तरह के कई अन्य सवालों पर आधारित लेख हमारे पाठकों का हिजाब मुद्दे के महत्व और इस पर दिए गए फैसले पर ज्ञानवर्धन करते, मगर दुर्भाग्य से, उर्दू मीडिया ने आज तक इसके बारे में नहीं लिखा है. और इसका कारण यह है कि उन्होंने फैसला पढ़ा ही नहीं है. इसे उनकी सुस्ती कहें या प्रोफेशनलिज़्म की कमी, लेकिन सच्चाई यह है कि उन्होंने अपने पाठकों और अपने पेशे के साथ न्याय नहीं किया है.

प्रौद्योगिकी के विकास ने मीडिया प्रकाशनों की लागत को बहुत कम कर दिया है. इसलिए, उर्दू मीडिया द्वारा अपर्याप्त संसाधनों के नाम पर लगाया जाने वाला बहाना उचित नहीं लगता. डिजिटल प्लेटफॉर्म के आविष्कार ने चीज़ों को आसान बना दिया है. ऑनलाइन समाचार पोर्टलों को दुनिया भर के लोग कभी भी कहीं भी खोल कर देख सकते हैं. यदि हमारे लेख उच्च स्तर के हैं और प्रासंगिक विषयों पर आधारित हैं, तो वे निस्संदेह पाठकों को आकर्षित करेंगें.

उर्दू पत्रकारिता करने वालों को अपने आपको एक पाठक की जगह रखकर खुदसे यह सवाल करना चाहिए कि आखिर मैं उर्दू मीडिया की रिपोर्टिंग क्यों पढूं? हमें निश्चित रूप से पता चलेगा कि क्यों भारत में उर्दू, हिंदी और अंग्रेज़ी की समझ रखने वाले लोग उर्दू और हिंदी मीडिया की उपेक्षा करते हैं और अंग्रेज़ी मीडिया को प्राथमिकता देते हैं.

क्या हम वाकई उर्दू प्रेस के पुराने गौरव को पुनर्जीवित करना चाहते हैं? फिर मौलवी बाकर और उनके जैसे दूसरे लोगों की तरह कड़ी मेहनत करने के अलावा कोई विकल्प नहीं है. हमें सभी मुद्दों पर ओरिजिनल स्टोरीज़ करनी होंगी और अंग्रेज़ी मीडिया से कंटेट उठाने या मुख्यधारा के मीडिया से चीज़ें लेने की आदत छोड़नी होगी.

क्यों न हम एक सप्ताह या एक महीने में केवल कुछ स्टोरीज़ करें लेकिन साथ ही साथ यह सुनिश्चित करें कि वे ओरिजिनल हों, जांच के आधार पर की गई ग्राउंड रिपोर्टिंग हो, और मानवीय आधार पर प्रोफेशनलिज़्म के सर्वोत्तम मानकों का अनुसरण किया गया हो. यह कार्य, हमारे अस्तित्व की मज़बूती को सुनिश्चित करेगा और हमें अपने देश में सर्वश्रेष्ठ मीडिया के साथ प्रतिस्पर्धा करने में मदद करेगा. यह विश्वसनीयता सुनिश्चित करेगा, पाठकों की संख्या बढ़ाएगा और वित्तीय आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए राजस्व को हासिल करने में मदद करेगा.

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