फ़रहाना रियाज़
नई दिल्ली | कुछ दिन पहले सुल्ली डील ऐप के ज़रिये मुस्लिम समाज की महिलाओं को निशाना बनाया गया. जब लोगों ने ट्विटर पर अपना ‘डील ऑफ द डे’ शेयर करना शुरू किया यह ऐप तब सामने आया. इसमें मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरों और निजी जानकारियों को नीलाम किया गया जिसमें मुसलमान महिला शोधर्थियों, कलाकारों , पत्रकारों और कार्यकर्ताओं को निशाना बनाया गया.
होस्टिंग प्लेटफॉर्म गिटहब पर इस ऐप को बनाया गया, जिसमें ओपन सोर्स कोड का भंडार है. मुस्लिम महिलाओं की तस्वीरें, उनके नाम और ट्विटर हैंडल इस ऐप में शेयर किए गए थे. इस ऐप में सबसे ऊपर पर लिखा था- ‘फाइंड योर सुल्ली डील’। मुस्लिम महिलाओं के लिए यह शब्द बेहद अपमान जनक हैं. एक मुस्लिम महिला की तस्वीर, उसका नाम, उसकी पूरी प्रोफाइल जिसमें उसका ट्विटर हैंडल भी इस ऐप पर क्लिक करने के बाद साझा होती थी. ट्विटर पर कई महिलाओं द्वारा इस ऐप का विरोध किये जाने पर गिटहब ने एप को अपने प्लेटफॉर्म से हटा लिया.
इससे पहले भी इसी साल ईद के मौके पर एक यूट्यूब चैनल ‘लिबरल डोज’ ने मुस्लिम महिलाओं की ईद की तस्वीरों का इस्तेमाल कर उनकी ऑनलाइन ‘नीलामी’ की थी. इस मामले में दिल्ली पुलिस की स्पेशल सेल की साइबर सेल ने एफआईआर दर्ज की है लेकिन अभी तक इस मामले में कोई गिरफ्तारी नहीं हुई है.
अकसर हमें ख़बर पढ़ने को मिलती रहती है कि सोशल मीडिया पर पोस्ट करने पर या किसी ट्वीट पर पोस्टकर्ता के ख़िलाफ़ केस दर्ज कर लिया गया. कुछ मामलो में तो लोगों के ख़िलाफ़ देशद्रोह का केस भी दर्ज हुआ है. ऐसे मामलों में अकसर देखने में आता है कि मुस्लिम नाम वाले के ख़िलाफ़ जल्दी एक्शन लिया जाता है. यह भी देखने को मिला है कि सिर्फ़ शक के आधार पर किसी भी मुस्लिम युवा को उठाकर जेल में डाल दिया गया है मगर इतने बड़े मामले में अभी तक कोई गिरफ़्तारी नहीं हुई है.
बहुत से लोग जो इस गंभीर मुद्दे को सिर्फ़ साइबर क्राइम की नज़र से देख रहे हैं उनका कहना है कि इसे धर्म की नज़र से न देखा जाए. हालांकि, प्रश्न यह है कि इस घटना को धार्मिक नज़रिए से क्यों नहीं देखा जाए जबकि इसमें सिर्फ़ एक धर्म की महिलाओं को ही निशाना बनाया गया है.
भारत का संविधान किसी भी नागरिक को उसके मज़हब के मुताबिक़ ज़िन्दगी गुज़ारने की पूरी आज़ादी देता है. हालांकि, संविधान में दी गई इस धार्मिक आज़ादी के बावजूद मुसलमानों को हमेशा से भेदभाव और हिंसा का सामना करना पड़ा है. पिछले कुछ सालों से भेदभाव और हिंसा की घटनाओं में इज़ाफा हुआ है.
कभी मुस्लिम मर्दों को फ़र्ज़ी आतंकवाद के केस में फंसाया जाता है तो कभी गौ रक्षा के नाम पर मोब लिंचिंग की जाती है. मुस्लिम मर्दों को लव जिहाद के मनगढ़ंत मामलों में फंसाया जाता है. अभी कुछ दिन पहले ही मुस्लिम महिलाओं के ख़िलाफ़ हरियाणा के पटौदी में हुई पंचायत में खुलेआम अपमानजनक बातें कही गई.
नागरिकता क़ानून के विरोध में मुस्लिम महिलाओं द्वारा किये गये आन्दोलन की गूँज विश्व स्तर पर सुनाई दी. मुस्लिम महिलाओं की इन मुखर आवाज़ों से घबराये हुए लोग अब उन्हें निशाना बना रहे हैं. अफ़सोस की बात यह है कि मुस्लिम महिलाओं के साथ हो रही इन शर्मनाक घटनाओं पर मीडिया की वह महिला एंकर्स ख़ामोश हैं जो तीन तलाक और परदे जैसे मुद्दे पर मुखरता से बोलती हैं.
मुसलमान महिला शोधर्थियों, कलाकारों, पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के साथ हुई इस घटना पर समाज के लिबरल, सेक्युलर बुद्धिजीवी वर्ग, नारीवादी संगठन में भी कोई ज़्यादा हलचल नहीं दिखाई देती है. अगर इस तरह का मामला किसी दूसरे मुल्क में किसी अन्य समुदाय की महिलाओं के साथ होता तो क्या तब भी मीडिया, समाज के लिबरल, सेक्युलर बुद्धिजीवी वर्ग या नारीवादी संगठन इसी तरह ख़ामोशी रहते ?
यह देखा गया है कि जब किसी धर्म, जाति या दल की महिला को निशाना बनाया जाता है तो पीड़ित महिला के धर्म, जाति और दल से जुड़ी महिलाएं उनका साथ देती हैं और उनका बचाव करती हैं. महिलाओं को अपने इस सेलेक्टिव एप्रोच में बदलाव लाना होगा.
महिलाओं को यह सोचना होगा कि कोई महिला किसी भी धर्म, जाति और दल से हो, उसके ख़िलाफ़ हो रहे अत्याचार पर बोलना उनका कर्तव्य है. मुखर होकर बोलने के सहारे ही महिलाओं के ख़िलाफ़ हो रहे इन अत्याचारों को रोका जा सकता है. यदि हम ऐसा नहीं करते तो इसके गंभीर परिणाम भुगतने होंगे क्योंकि आज पीड़िता किसी एक धर्म से है तो कल किसी और धर्म या जाति से हो सकती है.
(फ़रहाना रियाज़ एक स्वतंत्र पत्रकार हैं और विभन्न पत्र पत्रिकाओं में मानवाधिकार और महिलाओं से जुड़े मुद्दों पर लिखती रहती हैं.)