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Sunday, May 5, 2024
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हल्द्वानी में 4365 घरों को गिराने के उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश पर सुप्रीम कोर्ट ने लगाई रोक

–मसीहुज़्ज़मा अंसारी

नई दिल्ली | सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को हल्द्वानी में रेलवे की ज़मीन से अतिक्रमण हटाने के मामले में उत्तराखंड हाईकोर्ट के निर्देश पर रोक लगा दी है. उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश पर प्रशासन ने 4365 से अधिक परिवारों को बेदखल करने की नोटिस जारी कर ध्वस्त करने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी.

हालांकि वहां रह रहे लोगों का दावा है कि वे वर्षों से इस इलाके में रह रहे हैं और उनके पास सरकारी अधिकारियों/ विभागों द्वारा मान्यता प्राप्त सभी वैध दस्तावेज़ भी मौजूद हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने याचिका की सुनवाई करते हुए कहा कि, सात दिन में लोगों को हटाने के हाईकोर्ट के निर्देश पर आपत्ति जताते हुए कहा, “7 दिनों में 50,000 लोगों को नहीं हटाया जा सकता है.”

जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस अभय एस ओका की पीठ ने 20 दिसंबर, 2022 को उत्तराखंड हाईकोर्ट द्वारा पारित फैसले के खिलाफ दायर विशेष अनुमति याचिकाओं के एक बैच में उत्तराखंड राज्य और रेलवे को नोटिस जारी करते हुए यह आदेश पारित किया.

उत्तराखंड हाईकोर्ट के आदेश के बाद सरकार ने एक हफ्ते में घरों को खाली करने को कहा था

उत्तराखण्ड हाईकोर्ट के आदेश के बाद हल्द्वानी में रेलवे के किनारे 2.2 किलोमीटर लंबी पट्टी पर बसी दशकों पुरानी आबादी को हटाने के लिए प्रशासन ने प्रक्रिया शुरू कर दी थी. इलाके का सर्वे और सीमांकन किया जा रहा था. स्थानीय प्रशासन द्वारा अख़बारों के माध्यम से वहां रहने वाले परिवारों को घर खाली करने की नोटिस दी गई. इस आबादी में रहने वाली 95 प्रतिशत से अधिक आबादी मुस्लिम है.

हालांकि वहां रहने वालों का ये दावा है कि वे 100 साल से भी अधिक समय से वहां रहते आरहे हैं और उनके पास उसके सभी आवश्यक डॉक्यूमेंट मौजूद हैं. कई परिवारों ने इंडिया टुमारो को 1940 और उस से पहले के भी ज़मीन के, हाउस टैक्स के और अन्य सभी कागज़ात दिखाए हैं जो किसी भूमि पर आधिकारिक स्वामित्व होने की पुष्टि करते हैं.

उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश के बाद क्षेत्र को खाली करने के लिए सात दिन का समय दिया गया था. जिन इलाकों को चिन्हित किया गया वह 78 एकड़ से अधिक है और वहां लगभग सवा लाख लोग रहते हैं. हालांकि इतनी बड़ी आबादी कहां जाएगी इसका कोई रोड मैप राज्य सरकार या स्थानीय प्रशासन के पास नहीं है.

इन इलाकों में कई सरकारी स्कूल, प्राइवेट स्कूल, मस्जिद मंदिर, धर्मशाला, आंगनबाड़ी केंद्र मौजूद हैं. इतनी बड़ी आबादी के सामने कई स्तर संकट खड़ा हो गया है जिसका कोई हल दिखाई नहीं देता.

हालांकि उत्तराखंड हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है जिसमें आज, 5 जनवरी को सुनवाई होने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने कार्रवाई पर रोक लगा दी है.

क्या है पूरा मामला ?

रेलवे की की ज़मीन पर अतिक्रमण का मामला कई वर्षों से कोर्ट में था. इस मामले में अभी कार्रवाई चल ही रही थी कि हाईकोर्ट ने एकतरफा फैसला देते हुए घरों को ध्वस्त करने का फैसला दे दिया.

गोला नदी पर एक पुल का निर्माण हुआ था जो 4 सालों में ही टूट गया. 2014 में रविशंकर जोशी नाम के एक व्यक्ति ने हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की और ये सवाल उठाया कि गोला नदी पर बने पुल के टूटने का क्या कारण था. हाईकोर्ट कोर्ट ने एक कमेटी बनाई और कमेटी ने इलाके का दौरा करने के बाद ये रिपोर्ट दी कि गोला नदी के किनारे बसने वाले लोग अवैध रूप से कब्ज़ा कर के रहते हैं और इन लोगों ने खुदाई ज़्यादा कर दी जिसके कारण पुल गिर गया.

इसके बाद कोर्ट ने रेलवे को तलब किया, रेलवे ने बताया कि उनकी 59 एकड़ ज़मीन है. इस से पूर्व भी एक PIL दाख़िल की गई थी, उस समय रेलवे ने अपनी ज़मीन 29 एकड़ बताई थी लेकिन अब रेलवे 59 एकड़ ज़मीन बता रहा है. अभी तक रेलवे यह आधिकारिक रूप से तय नहीं कर सका है कि उसकी असल ज़मीन कितनी है.

इस मामले मे एक अंतरिम आदेश आया जिसके खिलाफ लोगों ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया जहाँ सुप्रीम कोर्ट ने ये निर्देश दिया कि यह मामला पीपी एक्ट (Public Premises (Eviction of Unauthorised Occupants) Act, 1971) के तहत देखा जाना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि इस एक्ट के तहत अतिक्रमण करने वाले को पहले व्यक्तिगत रूप से नोटिस दी जाएगी.

नोटिस देने में काफी गड़बड़ी सामने आई. ऐसे लोगों को काफी संख्या मे नोटिस दी गई जिनकी 10 साल पहले मौत हो चुकी है. एलेक्ट्रिसिटी बिल के हिसाब से सब को एक साथ नोटिस भेज दी गई जबकि कोर्ट के आदेश के अनुसार नोटिस उस व्यक्ति विशेष को देना है जो अवैध रूप से रह रहा है.

एडवोकेट मोहम्मद यूसुफ के अनुसार, पीपी एक्ट की में यह बात कही गई है कि अधिकारी नोटिस देने से पहले यह सुनिश्चित करेगा कि ज़मीन किसकी है, रेलवे की या राज्य सरकार की, यह सुनिश्चित करने के बाद ही नोटिस दी जाएगी.

नोटिस ‘अवैध’ है

क़ानून के जानकारों का कहना है कि जो नोटिस दी गई वह अवैध है. एडवोकेट मोहम्मद यूसुफ के अनुसार, ऐसा कोई भी आदेश नहीं है जो यह स्पष्ट करता हो कि यह राज्य सरकार की ज़मीन है या रेलवे की. जो नोटिस दी गई है वो बुनियादी तौर पर अवैध नोटिस है. क्योंकि उस नोटिस में यह कहीं भी नहीं कहा गया है कि यह ज़मीन रेलवे की है.

उन्होंने बताया कि, नोटिस में बिना किसी साक्ष्य के यह कह दिया गया है कि ज़मीन रेलवे की है. कार्रवाई शुरू हुई तो लोगों ने आपत्ति फ़ाइल की लेकिन कोरोना काल शुरू हो गया. कोरोना काल में एक जनरल नोटिस जारी कर दिया गया कि कोरोना काल में इस मामले में सुनवाई नहीं होगी. कोरोना काल खत्म होने के बाद मामले की सुनवाई शुरू होने की किसी सूचना के बिना ही सभी मामले में एकतरफा कार्रवाई करते हुए फैसला दे दिया गया.

कोर्ट में 1100 के लगभग अपील लंबित है

रविशंकर मामले के दौरान पीपी एक्ट में 1700 अपील फाइल की गई जिसमें 1100 के लगभग अपील पेंडिंग हैं. उसको दरकिनार करते हुए हाईकोर्ट ने यह फैसला दे दिया जो लगभग 160 पेज का है. पीपी एक्ट के तहत अभी ये मामला चल रहा है और ये तय होना बाक़ी है कि किसकी ज़मीन वैध है और कहां अवैध कब्ज़ा है.

हल्द्वानी में लाइन 17 में कुछ ज़मीन शत्रु सम्पत्ति के रूप में दर्ज है. उन सम्पत्तियों को कुछ लोगों ने आक्शन सेल सर्टिफिकेट के माध्यम से ख़रीदा, केंद्र सरकार ने उन्हें आक्शन सेल सर्टिफिकेट जारी किया. लोकल अथारिटी ने उन्हें पट्टे जारी किए. नजूल लैंड की नीति आने के बाद लोगों ने अपनी ज़मीनों को फ्री होल्ड कराया. फ्री होल्ड करवाने के बाद राज्य सरकार ने भूस्वामियों से पैसे लेकर उनको बैनामा भी कर दिया है.

ज़मीन के स्वामित्व को लेकर राज्य और रेलवे में मतभेद

जिस ज़मीन को रेलवे अपना बता रहा उस ज़मीन को लेकर राज्य सरकार और रेलवे में भी मतभेत है. राज्य सरकार ने कोर्ट में स्वीकार किया है कि रेलवे और राज्य की ज़मीन को लेकर विवाद है.

2016 में राज्य सरकार ने पीआईएल मामले में एक हलफनामा दिया है और कहा है कि अभी यह तय नहीं हो सका है कि यह ज़मीन रेलवे की है या राज्य सरकार की है, इसलिए अभी इसकी निशानदही नहीं हो सकी है. हालांकि अब राज्य सरकार ने पीछे हटते हुए कहा है कि वह मेरी ज़मीन नहीं है. जबकि 2016 के आफ़िडेविट में राज्य सरकार ने कोर्ट में इस ज़मीन को लेकर अलग बात कही है.

सरकार ने टैक्स लिया, करोड़ों का विकास कार्य हुआ, 1940 के डॉक्यूमेंट हैं और अब अवैध?

जिस भूमि को राज्य सरकार अवैध बता रही है उस भूमि के स्वामित्व को लेकर राज्य और रेलवे में हमेशा से मतभेत रहा है. राज्य सरकार ने यहां बसने वालों को सभी आवश्यक डॉक्यूमेंट उपलब्ध कराए हैं और उसका मूल्य लिया है. यहां रहने वालों के पास ज़मीन के कागज़ात हैं जो अथॉरिटी द्वारा जारी किये गए हैं. यहाँ लोगों के पास सेल डीड हैं, पट्टे हैं, फ्री होल्ड हुए हैं.

एडवोकेट मोहम्मद यूसुफ के अनुसार, यहां रहने वाले बाकी जो कब्जेदार हैं उनसे लोकल अथारिटी हाउस टैक्स लेती है. जब भी कोई हाउस टैक्स देता है वो वैध कब्ज़ेदार है, अनाधिकृत या अवैध कब्ज़ेदार नहीं हैं. इस क्षेत्र में लोकल अथारिटी और राज्य सरकार की तरफ से करोड़ों रूपय के निवेश हुए हैं, बिजली पानी सड़कें और सारी सुविधा उपलब्ध कराई गई है, लोगों के पास आधार कार्ड हैं, लोग यहां वोटर हैं, 25-30 साल से वोट डालते आरहे हैं, लोग 80 साल से वहां बसे हुए हैं और उन्हें इस तरह से अचानक उजाड़ दिया जाएगा. यहां स्कूल है, कालेज है, मंदिर है, धर्मशाला है, आगंवाणी केंद्र हैं.

उन्होंने कहा, “अगर ज़मीन राज्य सरकार की है तो केंद्र सरकार कैसे दावा कर सकती है? सुप्रीम कोर्ट के आदेश के अनुसार अवैध कब्ज़ेदारों को व्यक्तिगत रूप से कार्रवाई करेंगे न की बुलडोज़र चला देंगे. इसमें चिन्हित कर के बताना होगा कि कौन सा प्लॉट है जो अवैध है?

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