सैयद ख़लीक अहमद
नई दिल्ली | गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति (जीएसडीएस) द्वारा हाल ही में प्रकाशित मासिक हिंदी पत्रिका अंतिम जन के जून अंक को हिंदुत्ववादी विचारक विनायक दामोदर सावरकर को समर्पित किया गया था, जिसकी गांधीवादियों, शिक्षाविदों और विपक्षी नेताओं द्वारा कड़ी निंदा की गई.
जीएसडीएस भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत आता है और इसे संस्कृति मंत्रालय से ही मार्गदर्शन और वित्तीय सहायता प्राप्त होती है. जीएसजीडी का नेतृत्व देश के प्रधानमंत्री करते हैं, देश के पीएम होने के नाते फिलहाल जीएसजीडी का नेतृत्व मोदी कर रहे हैं. भाजपा के वरिष्ठ नेता विजय गोयल इसके उपाध्यक्ष हैं.
1984 में जीएसडीएस की स्थापना के बाद से, इसके अध्यक्ष हमेशा प्रधान मंत्री रहे हैं.
पीएम के तहत आने वाले जीएसडीएस, गांधीवादियों और कई सरकारी विभागों के अधिकारियों को उनकी गतिविधियों के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है. एक स्वायत्त निकाय के रूप में संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट के अनुसार समिति का मूल उद्देश्य और लक्ष्य, “विभिन्न सामाजिक-शैक्षिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से महात्मा गांधी के जीवन, मिशन और विचारों का प्रचार करना है.”
पत्रिका के जून के अंक में 68 पृष्ठों पर एक तिहाई लेख सावरकर को समर्पित हैं, कुछ लेख धार्मिक सहिष्णुता पर गांधीजी के कार्यों पर हैं और कुछ पूर्व प्रधान मंत्री अटल बिहार वाजपेयी के एक लेख पर आधारित हैं.
पत्रिका की प्रस्तावना में गोयल ने सावरकर को महात्मा गांधी के समान स्थान व महत्व दिया है, उनका दावा है कि “इतिहास में सावरकर का स्थान स्वतंत्रता संग्राम में गांधी से कम नहीं है.”
गोयल ने कहा, “यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि सावरकर को स्वतंत्रता आंदोलन में उनकी भूमिका के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा दो बार आजीवन कारावास की सजा दिए जाने के बावजूद, उन्हें कई वर्षों तक राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं दिया गया.” हालांकि, गोयल सावरकर द्वारा अंग्रेज़ो से की गई दया याचिकाओं और जेल से रिहा होने के बाद ब्रिटिश सरकार से सावरकर को मिलने वाली पेंशन का ज़िक्र करना भूल गए.
लिबरल बुद्धिजीवियों, वामपंथियों और वामपंथी शिक्षाविदों के अलावा कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों दलों द्वारा सावरकर की उनकी हिंदुत्ववादी विचारधारा और अंग्रेज़ो से मांगी गई माफी के कारण हमेशा आलोचना की जाती है. अपने आलेख में सावरकर के आलोचकों पर कटाक्ष करते हुए गोयल कहते हैं कि, “यह वास्तव में दुर्भाग्यपूर्ण है कि जो लोग एक दिन के लिए भी जेल नहीं गए, जिन्होंने कोई तकलीफ नहीं झेली और देश और समाज के लिए कुछ भी योगदान नहीं दिया, वे सावरकर जैसे देशभक्त की आलोचना करते हैं.”
सत्ता परिवर्तन के साथ जीएसजीडी की वैचारिकी में आये बदलावों पर टिप्पणी करते हुए गांधी पीस फाउंडेशन के अध्यक्ष कुमार प्रशांत ने इंडिया टुमारो को बताया कि, चूंकि जीएसडीएस का नेतृत्व प्रधान मंत्री करते हैं, इसलिए यह सरकार का विशेषाधिकार है कि वह मनचाही सामग्री को प्रकाशित करे.
प्रशांत ने कहा, “चूंकि वर्तमान सरकार आरएसएस और सावरकर की हिंदुत्व की विचारधारा में विश्वास करती है, इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि जीएसजीडी हिंदुत्व विचारधारा के प्रवर्तक सावरकर पर समर्पित एक विशेष अंक लेकर आया है.”
उन्होंने आगे बताया कि, “इसके अलावा यूं भी पीएम मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार हर ऐतिहासिक घटना को बदल कर पेश करने की कोशिश कर रही है और इसीलिये, सावरकर पर एक विशेष अंक प्रकाशित करना और उनकी छवि अच्छी बनाने के लिए इतिहास को बदल कर पेश करने पर भी आश्चर्य नहीं होना चाहिए.”
हालाँकि कुमार प्रशांत ने महात्मा गांधी और सावरकर की अलग-अलग विचारधाराओं के कारण सावरकर को समर्पित जीएसजीडी पत्रिका के एक विशेष अंक का कड़ा विरोध किया. उनके अनुसार, “गांधी और सावरकर की तुलना करना सबसे बड़ी बेईमानी होगी. यह निहायत ही मूर्खतापूर्ण और बचकाना है.”
वो आगे कहते हैं कि, “संघ परिवार ऐसा इसलिए कर रहा है क्योंकि जहां तक स्वतंत्रता आंदोलन का सवाल है, आरएसएस इतिहास-विहीन है और इसलिए वे छल के माध्यम से सावरकर को गांधी की स्थिति के बराबर खड़ा करने की कोशिश कर रहे हैं.”
इसके अलावा प्रसिद्ध गांधीवादी कुमार प्रशांत आगे बताते हैं कि, “एक अदालत ने सावरकर को गांधीजी की हत्या की साज़िश रचने का आरोप से बरी कर दिया था. सावरकर की मृत्यु के बाद स्थापित कपूर आयोग ने पुष्टि की थी कि हत्या की साज़िश सावरकर द्वारा रची गई थी. हालांकि उसी आयोग ने कहा कि सावरकर के खिलाफ एक नया आपराधिक मामला शुरू करने की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वह अब मर चुका है. लेकिन आयोग की रिपोर्ट ने उन्हें महात्मा गांधी की हत्या के पीछे मुख्य मास्टरमाइंड पाया.”
कुमार प्रशांत ने मांग करते हुए कहा कि, सुप्रीम कोर्ट को कपूर आयोग के निष्कर्षों के आधार पर महात्मा गांधी की हत्या के संदर्भ में फिर से जांच का आदेश देना चाहिए. उन्होंने कहा कि, सुप्रीम कोर्ट में पुनर्विचार की मांग वाली एक याचिका दायर की गई थी, लेकिन मार्च 2018 में तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश एस ए बोबडे की पीठ ने याचिका को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि, “यह व्यर्थ की कवायद होगी.”
द हिंदू के सवालों का जवाब देते हुए पत्रकार धीरेंद्र के झा ने भी साजिश का एंगल उठाया था. झा ‘गांधीज़ असेसिन : द मेकिंग ऑफ नाथूराम गोडसे एंड हिज़ आइडिया ऑफ इंडिया’ नामक पुस्तक के लेखक हैं. झा के हवाले से ‘द हिन्दू’ ने लिखा था कि, “गांधी की हत्या के षड्यंत्र की ठीक से जांच नहीं की गई थी. गांधी की हत्या के पीछे की साज़िश की जांच के लिए कपूर जांच आयोग 1966 में बहुत बाद में स्थापित किया गया था. आयोग ने स्पष्ट रूप से कहा था कि सावरकर और उनके समर्थकों के एक समूह ने गांधी को मारने की योजना बनाई थी. हत्या के मुकदमे के दौरान सावरकर को मिले संदेह का लाभ सावरकर के लिए पूरी तरह से बरी होने के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.”
लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति रूप रेखा वर्मा ने सावरकर पर समर्पित ‘अंतिम जन’ के अंक पर टिप्पणी करते हुए कहा कि, “सावरकर का महिमामंडन या गांधी और सावरकर को एक ही आसन पर बिठाना पूरे स्वतंत्रता आंदोलन का अपमान है. यह भारत के चरित्र को नष्ट करने के बराबर है, जो कई संस्कृतियों और धर्मों का एक मिश्रण है.”
उन्होंने कहा कि, “सावरकर ने जिन्ना से बहुत पहले द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को प्रतिपादित किया था और राष्ट्र को धर्म के साथ जोड़ा था. धर्म पर आधारित सावरकर का राष्ट्रवाद भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के लोकाचार के खिलाफ है. स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान ऐसी कोई घटना नहीं हुई जब हिंदू और मुसलमानों ने एक साथ मिलकर अंग्रेज़ो के खिलाफ लड़ाई न की हो और अपना खून न बहाया हो.”
गांधी पीस फाउंडेशन के सदस्य गुजरात विद्यापीठ के पूर्व कुलपति सुदर्शन अयंगर ने कहा कि, “चूंकि जीएसजीडी सरकार पर निर्भर है, इसलिए इसे सत्ता में बैठे लोगों की राजनीतिक विचारधारा के अनुसार चलाया जाएगा. लेकिन गांधी एक आवश्यकता है उसे कोई नहीं छोड़ सकता. गांधी लोगों के मानस में हैं और उनकी तुलना सावरकर या किसी और से करके उनकी स्थिति को कम नहीं किया जा सकता है.”
कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने मीडियाकर्मियों से कहा कि भाजपा सरकार गांधी स्मृति की संस्था को नष्ट करने की कोशिश कर रही है.