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Sunday, May 5, 2024
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हिजाब मामले में हदीस के बजाए व्यक्तिगत राय को महत्त्व देता कर्नाटक हाईकोर्ट

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | क्या इस्लामी न्यायशास्त्र या कुरान को समझने के वैध स्रोत हदीसों पर कुरान की आयतों के फुटनोट्स में लिखी एक तफ़सीर (व्याख्यान) या लेखक की व्यक्तिगत राय को वरीयता दी जानी चाहिए? (अहादीस या हदीसें पैगंबर मुहम्मद साहब द्वारा दिये गए ज्ञान का संग्रह है, जो कुरान के बाद मुसलमानों के लिए मार्गदर्शन का प्रमुख स्रोत है. इसलिए कुरान के बाद इस्लामी धर्मशास्त्र में दूसरे सबसे महत्वपूर्ण स्थान पर हदीसें आती हैं.)

क्या किसी भी इस्लामिक मामले में किसी फैसले तक पहुंचने में हदीसों को पूरी तरह खारिज करके कुरआन में एक फुटनोट के रूप में मौजूद व्यक्तिगत राय को प्राथमिकता दिया जाना सही है? अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरने वाले कर्नाटक हिजाब मामले पर उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए फैसले में ऐसा ही किया गया है.

अब्दुल्ला यूसुफ अली द्वारा अनुवादित “पवित्र कुरान: अनुवाद और टिप्पणी” में सूरह अल-अहज़ाब की आयत/श्लोक 59 के फुटनोट 3767 से और सूरह अल-अहज़ाब की आयत/श्लोक नंबर 60 के फुटनोट 3768 यह संदेश देने की कोशिश करते हैं कि हिजाब कुरान द्वारा उन हालात में निर्धारित किया गया था जब मुस्लिम महिलाएं बाहर निकलती थीं और उन्हें असामाजिक तत्वों द्वारा छेड़ा या प्रताड़ित किया जाता था. ऐसे तत्वों को “झूठे मुसलमान” कहा गया है. कुरान उन्हें कपटी मुसलमान बताकर उनकी निंदा करता है जो अपने दिलों में अविश्वास और कपट रखते हैं और सक्रिय रूप से मुस्लिम समुदाय और इस्लाम को नुकसान पहुँचाने की कोशिश करते रहते हैं.

अब्दुल्ला यूसुफ अली द्वारा लिखित कुरान की व्याख्या और उनके द्वारा दिये गए अन्य तर्कों में वर्णित हिजाब संदर्भ अदालत के लिए यह घोषित करने का प्राथमिक कारण बन गया है कि हिजाब इस्लाम का एक अनिवार्य या अभिन्न अभ्यास नहीं है.

अली के अनुसार, हिजाब सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से जुड़ी एक प्रथा है और इसका उद्देश्य महिलाओं को उनके घरों से बाहर निकलने पर सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करना है. और इसलिए, हिजाब की प्रथा को तब समाप्त किया जा सकता है जब सामाजिक-सांस्कृतिक परिस्थितियों से महिलाओं की सुरक्षा और को कोई खतरा न हो.

यह हिजाब को लेकर यूसुफ अली द्वारा दिया गया उनका निजी दृष्टिकोण है, जिसकी पुष्टि हदीसें नहीं करती है. नबी के साथियों और बाद में शरीयत या इस्लामी न्यायशास्त्र लिखने वाले विद्वानों की अली की इस निजी राय पर कोई ‘इज्मा’ या आम सहमति भी नहीं है.

लेकिन फिर भी, अदालत ने अली की राय को स्वीकार कर लिया और हिजाब के समर्थन में मौजूद दो हदीसों को खारिज कर दिया. जबकि एक हदीस की वर्णनकर्ता हज़रत आयशा है, जो कि पैगंबर की पत्नी थीं, दूसरी हदीस में वर्णनकर्ता सफ़िया बिन्त शैबा हैं. याचिकाकर्ताओं ने दोनों हदीसों को अपने तर्कों के समर्थन में प्रस्तुत किया कि हिजाब इस्लाम में एक आवश्यक प्रथा है.

इन हदीसों को डॉ मुहम्मद मुहसिन खान की किताब “द ट्रांसलेशन ऑफ द मीनिंग्स ऑफ साहिह अल-बुखारी, अरबी-इंग्लिश’, भाग 6 से लेकर उल्लेखित किया गया था. इसे दारुस्सलाम प्रकाशन, रियाद, सऊदी अरब द्वारा प्रकाशित किया गया है. दारुस्सलाम प्रकाशन को विश्व स्तर पर इस्लामी साहित्य का सबसे प्रामाणिक प्रकाशक माना जाता है.

अदालत ने हदीस को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि याचिकाकर्ताओं ने डॉ. मुहम्मद मुहसिन खान की योग्यताओं और प्रमाणिकता का उल्लेख नहीं किया है, भले ही पुस्तक के पहले ही पृष्ठ में “पूर्व निदेशक, यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल, इस्लामिक यूनिवर्सिटी, अल-मदीना अल मुनव्वारा, किंगडम ऑफ सऊदी अरब के रूप में उनका परिचय दिया गया है.

कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के पृष्ठ संख्या 72 में है कि, “एक टिप्पणीकार के लिए आवश्यक प्रमाण-पत्रों के रूप में इसे नहीं माना जा सकता.” इसका मतलब है कि पुस्तक में उल्लिखित योग्यता-पत्र प्रमाणित नहीं हैं और अदालत उन्हें मान्यता नहीं दे सकती है.

हालांकि, उच्च न्यायालय ने पाया कि जम्मू और कश्मीर उच्च न्यायालय के एक फैसले में डॉ मुहम्मद मुहसिन खान का संदर्भ दिया गया है. लेकिन फैसले के पेज संख्या 72 ही पर ज़िक्र है कि “उक्त मामले (जम्मू कश्मीर न्यायालय का फैसला) में डॉ मुहम्मद मुहसिन खान द्वारा हदीस की व्याख्या की प्रमाणिकता और विश्वसनीयता के बारे में न तो कोई चर्चा की गई ना ही कुछ कहा गया है.”

हालाँकि अदालत अब्दुल्ला यूसुफ अली के कुरान के अनुवाद के संस्करण और उनकी टिप्पणी (गुडवर्ड बुक्स, 2019 पुनर्मुद्रण द्वारा प्रकाशित) की प्रमाणिकता पर चर्चा किये बिना उस पर भरोसा कर लिया. यहां प्रश्न यह उठता है कि, “अब्दुल्ला यूसुफ अली के अनुवाद और कमेंट्री की प्रामाणिकता और विश्वसनीयता क्या है? कोर्ट ने खुद से केवल अब्दुल्ला यूसुफ अली के संस्करण का चयन कर लिया जबकि याचिकाकर्ताओं के अधिवक्ताओं ने अब्दुल हलीम, मुहम्मद तकीउद्दीन अल-हिलाली, डॉ मुहम्मद मुहसिन खान और डॉ मोहम्मद महमूद गली जैसे अन्य कुरानिक टिप्पणीकारों के संस्करणों का भी हवाला दिया था.

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ने अब्दुल हलीम की व्याख्या प्रकाशित की है. वह लंदन विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ ओरिएंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज में इस्लामिक स्टडीज के प्रोफेसर थे. मोरक्को से संबंध रखने वाले स्कॉलर अल-हिलाली ने लखनऊ में दारुल उलूम नदवतुल उलेमा में अरबी अध्ययन के हेड के रूप में काम किया है. अल-हिलाली ने इस्लाम के दूसरे सबसे पवित्र स्थल मस्जिद-ए-नबवी में नमाज़ भी पढ़ाई है. उन्होंने इस्लाम के सबसे पवित्र स्थल मक्का में मस्जिद अल-हरम में भी शिक्षण कार्य किया.

डॉ मुहम्मद मुहसिन खान और अल-हिलाली द्वारा किया गया कुरान का अनुवाद और टिप्पणी सऊदी अरब सरकार द्वारा प्रकाशित और वितरित की जाती है. डॉ. मुहम्मद मुहसिन खान अफगान मूल के थे. मिस्र से आने वाले डॉ. घाली युनाइटेड किंगडम के एक्सेटर विश्वविद्यालय से शिक्षित थे, और काहिरा के अल-अज़हर विश्वविद्यालय में इस्लामी अध्ययन के प्रोफेसर के रूप में कार्यरत थे.

जहां तक बात अब्दुल्ला यूसुफ अली की पृष्ठभूमि की है तो अली ने एक भारतीय सिविल सेवा (आईसीएस) अधिकारी के रूप में काम किया और प्रथम विश्व युद्ध में अंग्रेजों का समर्थन किया था, हालांकि उन्होंने तुर्की खिलाफत के विरुध्द अंग्रेज़ो के पक्ष का विरोध किया था. उन्होंने लाहौर में इस्लामिया कॉलेज के प्रिंसिपल के रूप में भी काम किया, जो अब पाकिस्तान में है. हालाँकि, उन्होंने कभी भी किसी भी संस्थान में इस्लामी या अरबी विषय नहीं पढ़ाया.

हालांकि इससे लोगों की असहमति हो सकती है लेकिन, कर्नाटक उच्च न्यायालय ने अपने विवेक से फैसले का आधार बनाने के लिए अब्दुल्ला यूसुफ अली की कुरानिक व्याख्या को चुना. आइए देखें कि अब्दुल्ला यूसुफ अली के कुरान की टिप्पणी के संस्करण को चुनने के बारे में कर्नाटक उच्च न्यायालय क्या कहता है? अदालत द्वारा पेश किए गए कारणों में से एक यह है कि “बार में इसकी प्रामाणिकता और विश्वसनीयता के बारे में सहमति है. इस लेखक का विचारशील और सामान्यीकरण करने वाला नज़रिया कुरान की आयतों को उनके उचित परिप्रेक्ष्य में देखता है. वह आम सहमति वाले सार्वभौमिक सिद्धांतों को प्रस्तुत करते हैं. उनके कार्य में व्यवस्थित पूर्णता है.”

सवाल यह है कि हिजाब मामले में कर्नाटक न्यायालय की बार में किसने अब्दुल्ला यूसुफ अली और अन्य लेखकों के अनुवाद पढ़े हैं? अगर उन्होंने इसे नहीं पढ़ा है और कुरान और इस्लाम को नहीं समझते हैं, तो ऐसे संवेदनशील मामले में उनकी सिफारिश कैसे स्वीकार की जा सकती है? कोर्ट अपने फैसले के समर्थन में अब्दुल्ला यूसुफ अली के ‘प्रथम संस्करण की प्रस्तावना’ के अंश भी पेश करती है. प्रस्तावना के ये पैराग्राफ अब्दुल्ला यूसुफ अली के अनुवाद और टिप्पणी की विशिष्टता के बारे में बताते हैं. लेकिन यह तो सर्वविदित है ही कि प्रत्येक लेखक प्रस्तावना में अपने काम के व्यापक बिंदुओं का उल्लेख करता ही है.

उच्च न्यायालय द्वारा अब्दुल्ला यूसुफ अली की कुरान की व्याख्या पर भरोसा करने का दूसरा कारण यह बताया गया है कि सुप्रीम कोर्ट ने इसी तरह के मामलों (इस्लामिक मामलों) में अब्दुल्ला यूसुफ अली की पुस्तक को “आधिकारिक स्रोत” के रूप में माना है. उदाहरण के लिए, तीन तलाक से सम्बंधित शायरा बानो के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने अब्दुल्ला यूसुफ अली की किताब पर ही भरोसा किया था.

बैंच के अनुसार, एक अन्य कारण यह है कि “बार में किसी ने भी इस लेखक (अब्दुल्ला यूसुफ अली) की गहन विद्वता या उनकी टिप्पणी की प्रामाणिकता पर विवाद असहमति नहीं दर्शायी. हम भी, कुरान पर उनकी टिप्पणियों को प्रबुद्ध और तर्क और न्याय के लिए बेहद सटीक पाते हैं.”

अन्य लेखकों के अनुवादों और टिप्पणियों को खारिज करने के लिए कोर्ट को चाहिए था कि या तो उन्हें पढ़कर या विशेषज्ञों की टिप्पणियों के आधार पर उन्हें खारिज किया जाता. लेकिन यह पहलू अदालत की चर्चा से गायब है कि अन्य लेखकों टिप्पणीकारों को क्यों खारिज कर दिया गया.

बेंच से, हमें यह पूछने की ज़रूरत है कि, “क्या बार में इस्लामिक धर्मशास्त्र के विशेषज्ञ हैं? विशेष रूप से कुरान की व्याख्या, जिनकी सिफारिशों पर भरोसा किया जा सकता है? क्या जज खुद ही इस्लाम के विशेषज्ञ बेंच का हिस्सा बन रहे हैं और कुरान की व्याख्या कर रहे हैं? जज किस आधार पर दावा कर रहे हैं कि लेखक की टिप्पणियां उनके “तर्क और न्याय” के उचित हैं? क्या न्यायाधीशों ने अन्य लेखकों की टिप्पणियों को पढ़ा था और क्या उन्होंने उन्हें कम प्रामाणिक और कम विद्वतापूर्ण पाया था?

एक और सवाल उठता है कि क्या जजों को धर्म के बारे में उस स्थिति में फैसला करना चाहिए जब वे इसके बारे में नहीं जानते हैं? ऐसी स्थिति से निपटने के लिए अदालतों में एक व्यवस्था होती है जिसके अनुसार अदालत की सहायता के लिए एक न्याय मित्र नियुक्त किया जाता है. जब अदालत में किसी इस्लाम के जानकार या मौलाना की कोई राय या हलफनामा रिकॉर्ड में नहीं था, तो अदालत ने इस मामले में न्याय मित्र क्यों नहीं नियुक्त किया?

अदालत कम से कम किसी मुस्लिम विद्वान और मुस्लिम समुदाय से संबंधित इस्लामी विशेषज्ञ की राय या हलफनामा मांग सकती थी या न्याय करने के लिए और अदालत की सहायता के उद्देश्य से मुसलमानों के एक योग्य और प्रमुख मंच ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को भी बुला सकती थी. हैरानी की बात यह है कि अदालत ने ऐसा नहीं किया और स्वयं ही एक इस्लामी विशेषज्ञ बनकर फैसला किया कि “इस्लाम में हिजाब ज़रूरी नहीं है”.

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