इंडिया टुमारो
नई दिल्ली | दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी एन साईबाबा और पांच अन्य आरोपियों को कथित माओवादी लिंक मामले में बंबई उच्च न्यायालय की नागपुर पीठ ने मंगलवार को बरी कर दिया है.
कोर्ट ने गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (UAPA) के तहत कथित माओवादी-लिंक मामले में दिल्ली यूनिवर्सिटी के पूर्व प्रोफेसर जीएन साईबाबा और पांच अन्य की सज़ा रद्द कर दी.
यह फैसला जस्टिस विनय जोशी और जस्टिस वाल्मिकी एसए मेनेजेस की खंडपीठ ने सुनाया.
ज्ञात हो कि दिव्यांग प्रोफेसर जीएन साईबाबा और उनके सह-आरोपी माओवादी संगठनों से संबंध रखने और भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने के आरोप में 2014 में गिरफ्तारी के बाद से हिरासत में हैं.
गौरतलब हो कि 54 वर्षीय साईबाबा व्हीलचेयर पर हैं और 99 प्रतिशत विकलांग हैं. वह वर्तमान में नागपुर केंद्रीय कारागार में बंद हैं और साल 2014 में गिरफ्तारी के बाद से वह हिरासत में हैं.
बार एंड बेंच के अनुसार, मार्च 2017 में गढ़चिरौली की सत्र अदालत ने साईबाबा और अन्य को माओवादियों से संबंध रखने और देश के खिलाफ युद्ध छेड़ने जैसी गतिविधियों में लिप्त रहने का दोषी ठहराया था.
रिपोर्ट के अनुसार, सत्र अदालत ने कहा था कि साईबाबा और दो अन्य आरोपियों के पास गढ़चिरौली में भूमिगत नक्शों और जिले के निवासियों के बीच प्रसार के इरादे और उद्देश्य के साथ नक्सली साहित्य था, जिसका उद्देश्य लोगों को हिंसा का सहारा लेने के लिए उकसाना था.
साईबाबा ने सत्र अदालत के आदेश के खिलाफ बंबई उच्च न्यायालय का रुख किया और न्यायमूर्ति रोहित बी देव की अध्यक्षता वाली पीठ ने भी इस पर सुनवाई की.
कोर्ट ने 14 अक्टूबर, 2022 को शुक्रवार को अपील की अनुमति दी थी और साईबाबा को बरी कर दिया था. हालंकि, महाराष्ट्र सरकार ने इसके खिलाफ तुरंत सुप्रीम कोर्ट का रुख किया.
सुप्रीम कोर्ट ने बाद में 15 अक्टूबर, 2022 को एक विशेष बैठक की और उच्च न्यायालय के फैसले को निलंबित कर दिया. सुप्रीम कोर्ट ने बरी किए जाने को चुनौती देने वाली महाराष्ट्र सरकार की याचिका पर इस फैसले को पलट दिया और बॉम्बे हाईकोर्ट को मामले का नए सिरे से मूल्यांकन करने का निर्देश दिया.
लाइव लॉ के अनुसार, सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया कि बॉम्बे हाईकोर्ट को मंजूरी के सवाल सहित मामले के सभी पहलुओं पर विचार करना चाहिए. खंडपीठ ने इस बात पर जोर दिया कि हाईकोर्ट को अपने पहले के आदेश से प्रभावित हुए बिना, बिना किसी पूर्वाग्रह के और केवल मामले के गुण-दोष के आधार पर आगे बढ़ना चाहिए.
जस्टिस एम आर शाह और न्यायमूर्ति बेला एम त्रिवेदी की पीठ ने महाराष्ट्र सरकार की दलील के बाद यह आदेश पारित किया कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 465 के मद्देनजर मंजूरी देने में विफल रहने पर आरोपियों को बरी नहीं किया जा सकता.
बार एंड बेंच के अनुसार, लंबी सुनवाई के बाद, जस्टिस एमआर शाह और सीटी रविकुमार की शीर्ष अदालत की एक पीठ ने 19 अप्रैल, 2023 को उच्च न्यायालय के बरी करने के फैसले को रद्द कर दिया और मामले को नए सिरे से विचार के लिए उच्च न्यायालय में भेज दिया.
इस मामले की सुनवाई जस्टिस जोशी और मेनेजेस ने की.