-हुमा मसीह
नई दिल्ली | सुप्रीम कोर्ट की जज जस्टिस हिमा कोहली ने कुछ दिनों पूर्व दिल्ली विश्वविद्यालय के लॉ सेंटर में “खेल के माध्यम से महिला सशक्तिकरण के मुद्दे और चुनौतियां” विषय पर आयोजित सेमिनार में बोलते हुए खेलों में महिलाओं को सशक्त बनाने और उन्हें समान अवसर देने पर विस्तार से बात की.
उन्होंने महिलाओं को खेलों में सशक्त बनाने और उनके समक्ष आने वाली चुनौतियों का समाधान करने के लिए क़ानूनी सुधारों की भी वकालत की.
जस्टिस कोहली ने अपने संबोधन में कहा कि, “…भारत में महिलाओं को खेल में उत्कृष्टता हासिल करने में कई बाधाओं का सामना करना पड़ता है. लैंगिक असमानताएं महिलाओं को खेलों में पूरी तरह से भाग लेने और इसका लाभ उठाने से रोकती रहती हैं.”
महिलाओं की खेलों में भागीदारी को बढ़ाने के संदर्भ में जस्टिस कोहली का बयान बहुत महत्वपूर्ण है, ख़ासकर ऐसे देश में जहाँ की पहचान और विशेषता उसकी विभिन्नता हो.
कई अध्ययनों का हवाला देते हुए जस्टिस कोहली ने कहा कि, किशोरावस्था में खेलों में लड़कियों की भागीदारी में काफी गिरावट आई है, जिसकी वजह सामाजिक मानदंडों और सपोर्ट सिस्टम की कमी है.
जस्टिस हिमा कोहली ने जिन बाधाओं का ज़िक्र किया उसके अलावा एक और बाधा है जो भारत में अलग-अलग तबकों की महिलाओं को खेलों में आगे बढ़ने से रोकती है. वह बाधा है खेलों के गैर समावेशी नियम जिसमें पहनावे और विभिन्नता की संस्कृति के लिए स्थान न होना है.
भारत में विभिन्नता को अपनाने में असहज होते समाज का असर अन्य संस्थाओं के साथ-साथ खेल नियमों को बनाने वाली कमेटियों और संस्थाओं पर भी साफ़ नज़र आता है. विभिन्न खेलों में महिला खिलाड़ियों के ड्रेस उन्हें असहज करते हैं. बहुत सी होनहार महिला खिलाड़ी खेलों में कपड़ों को लेकर असहज होती हैं और इसी कारण खेलों में प्रवेश नहीं करतीं.
अगर खेलों के नियम थोड़े लिब्रल और समावेशी हों जो भारत की भी विभिन्नता को अपने नियमों में स्थान देते हों तो बहुत सी होनहार महिला खिलाड़ियों को खेल में आगे बढ़ने और बेहतर प्रदर्शन करने के लिए मददगार साबित होगा. चाहे वह सामाजिक मान्यता या अपनी संस्कृति से जुड़े रहने वाली महिला खिलाड़ी हों या हिजाब पहनने वाली महिला खिलाड़ी हों.
खेल नियमों का हवाला देकर या बैकवर्ड होने का ताना देकर हम महिला खिलाड़ियों की असहजता का मज़ाक इसलिए नहीं उड़ा सकते क्योंकि हमारे सामने ऐसे ढ़ेरों उदाहरण मौजूद हैं जहाँ कई देशों ने ड्रेस को लेकर नियमों में बदलाव किया है और उन महिला खिलाड़ियों ने बेहतरीन प्रदर्शन भी किया है.
वर्तमान में दुनिया का वह तबका जिसे लिबरल समझा जाता है, समाज/ विश्व में पाई जाने वाली विविधता को एकरूपता के रंग में रंग देने को आतुर है. खेल संस्थाओं में सत्ता में बैठे लोग हों, सत्ताधारी हों या कॉर्पोरेट जगत को संचालित करने वाले लोग, ये सभी अपनी विचारधारा के अनुसार विविधता विरोधी एकरूपता के नियम गढ़ रहे हैं.
जस्टिस कोहली ने अपने संबोधन में इस बात पर भी ज़ोर दिया कि महिलाओं की उल्लेखनीय सफलताओं के बावजूद, खेलों में भारतीय महिलाओं को लैंगिक असमानता, सामाजिक- सांस्कृतिक बाधाओं और आवश्यक बुनियादी ढांचे और अवसरों तक सीमित पहुंच जैसी लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.
सांस्कृतिक बाधाओं और सांस्कृतिक विविधता पर भी अलग से चर्चा करना बेहद ज़रूरी है. खेल का क्षेत्र हो या अन्य कोई प्रोफेशन हो, महिलाओं के सशक्तिकरण की बात करने वालों द्वारा हमेशा से सांस्कृतिक बाधाओं की बात की जाती है.
इस प्रकार के सभी विमर्शों में लोगों में भारत या विश्व में पाई जाने वाली सांस्कृतिक विविधता पर कहीं न कहीं आक्रमण करके उसे खत्म करने की बात की जाती है. अब प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि खेल के मैदान में या किसी भी क्षेत्र में ऐसे नियम ही क्यों बनाए जा रहे हैं जो किसी महिला की संस्कृतिक बाधा बने या उसे असहज बनाए.
निःसंदेह जस्टिस कोहली के विचार महिला सशक्तिकरण के क्षेत्र में विशेष महत्व रखते हैं. जस्टिस कोहली द्वारा रखे गए विचार हों या मुख्यधारा के नारीवादी विमर्श में की जाने वाली बातें, यह समझना बहुत अहम है कि महिलाओं के लिए समावेशी सोच का अर्थ क्या हो.
सांस्कृतिक बाधाओं का अर्थ क्या सिर्फ इतना ही समझ लेना पर्याप्त होगा कि संस्कृति महिलाओं के आगे बढ़ने में बाधा है? यदि कोई संस्कृति मानवीय मूल्यों की कसौटी पर खरा उतरे तब भी उसे हानिकारक माना जाना चाहिए? क्या किसी की संस्कृति को बिना किसी आधार के बाधा बताकर सबके लिए बना दिए एक जैसे नियमों को विविधता पर हमला नहीं माना जाना चाहिए?
जस्टिस कोहली द्वारा दिल्ली यूनिवर्सिटी में दिए संबोधन से कई प्रश्न खड़े होते हैं. अभी ज़्यादा अरसा नहीं गुज़रा जब टोक्यो में हुए ओलम्पिक में जर्मनी की महिला जिमनास्ट टीम ने खेल संस्थाओं द्वारा निर्धारित पैर दिखाने वाली यूनिफॉर्म का विरोध करते हुए फुल लेंग्थ की यूनिफॉर्म में परफॉर्म किया था. टीम का कहना था कि संस्था द्वारा निर्धारित छोटी ड्रेस महिलाओं को सेक्सुलाइज़ करती है अर्थात उन्हें एक यौन सामग्री के तौर पर प्रस्तुत करती है.
इसी प्रकार मुस्लिम समुदाय से आने वाली महिलाएं हिजाब के साथ खेलना चाहती हैं लेकिन खेल संस्थाओं द्वारा बना दिए गए नियम उन्हें ऐसा करने से उन्हें रोकते हैं खासतौर से भारत में ऐसा है. इसकी वजह से कई प्रतिभाशाली हिजाबी महिलाएं खेल के क्षेत्र में आगे नहीं बढ़ पा रही है.
ईरान देश की वॉलीबाल टीम की महिलाएं हिजाब पहनकर भी परफॉर्म कर रही हैं. हिजाब के साथ महिलाएं नोबल प्राइज़ तक हासिल कर रही हैं. सरकार चलाने से लेकर किसी भी प्रोफेशन और खेल में महिलाएं मौका मिलने पर हिजाब के साथ बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं फिर भी भारत और दुनिया भर में ऐसे नियम बना दिए जाते हैं कि हिजाब पहनकर महिला आगे न बढ़ पाए, उसे हिजाब या प्रोफेशन में से किसी एक को चुनना पड़े.
स्पष्ट तौर पर ऐसे सभी मामलों में हिजाब प्रगति में बाधा नहीं हैं बल्कि दुनिया और समाज की सांस्कृतिक विविधता का ख्याल न रखने वाले ये नियम एक बड़ी बाधा हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि पश्चिमी सभ्यता, लिबरल कहे जाने वाले समाज और नारीवाद के ध्वजवाहकों ने हिजाब के रूढ़िवादी होने का जो भ्रम रचा है कहीं वो भ्रम टूट न जाए, इसलिए भी इस प्रकार के नियम बनाए जा रहे हैं.
यूनिफॉर्म के नाम पर महिलाओं के लिए ऐसे नियम बनाए जा रहे हैं जिसमें अपना सर या पूरे पैर ढकने वाली महिलाओं के लिऐ कोई स्थान नहीं है. ऐसा सिर्फ़ खेल के मैदान में ही नहीं बल्कि कॉर्पोरेट जगत, मीडिया या अन्य प्रोफेशन में भी ऐसा हो रहा है. ये नियम समाज की विविधता को खतरे में डाल रहे हैं.
जस्टिस हिमा कोहली एक ऐसे देश से संबंध रखती हैं जहां लोगों को जाति, धर्म, भाषा और आर्थिक स्थिति आदि की वजह से भेदभाव का सामना करना पड़ता है और यह सभी बातें महिलाओं पर भी लागू होती हैं. उन्हें महिला होने की वजह से लैंगिक भेदभाव के साथ साथ जाति, धर्म, भाषा और आर्थिक स्थिति के आधार पर भी खेल, या अन्य किसी भी प्रोफेशन में भेदभाव का सामना करना पड़ता.
इसलिए जब महिलाओं के साथ भेदभाव पर चर्चा हो तो सिर्फ़ लैंगिक भेदभाव तक मुद्दे को सीमित नहीं किया जाना चाहिए. किसी महिला के साथ भेदभाव या उत्पीड़न उसकी जाति या धर्म की वजह से हुआ है तो उसे जेंडर डिस्कोर्स तक सीमित कर देने से समाधान नहीं तलाशे जा सकेंगे. खेल हो या अन्य कोई प्रोफशन महिलाओं की बाधाएं उस वक्त कम हो सकेंगी जब वहां का माहौल और नियम सामाजिक विविधताओं का सम्मान करते हुए समावेशी होंगे.
(लेखिका स्वतंत्र पत्रकार हैं, महिला मुद्दों पर लिखती हैं. ट्विटर पर @HumaMasih पर संपर्क किया जा सकता है)