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Sunday, May 5, 2024
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क्या आरएसएस काशी और मथुरा की मस्जिदों पर मुसलमानों की राय जानने की कोशिश कर रहा?

-सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | आरएसएस आखिर मुस्लिम नेताओं के साथ बार-बार मीटिंग क्यों कर रहा है? सबसे पहले RSS ने अगस्त 2022 में रिटायर्ड ब्यूरोक्रेट्स, एक मुस्लिम बिज़नेसमैन और एक पत्रकार से नेता बने प्रतिनिधि के साथ मीटिंग की थी.

दूसरे दौर में, इस भगवा संगठन ने जमात-ए-इस्लामी हिंद और जमीयत उलेमा-ए-हिंद सहित मुस्लिम धार्मिक संगठनों के नेताओं के साथ बैठक की. दूसरी बैठक 14 जनवरी को आयोजित की गई थी जिसमें उन्हीं ब्यूरोक्रेट्स ने मदद की थी जिन्होंने पिछले साल अगस्त में आरएसएस नेताओं के साथ सीधी बातचीत की थी.

लेकिन सवाल उठता है कि मुस्लिम ब्यूरोक्रेट्स और मुस्लिम धार्मिक नेताओं के साथ बैठक करने के पीछे आरएसएस के नेताओं का मकसद क्या है? वे इन बैठकों से क्या हासिल करना चाहते हैं? दोनों ही बैठकों में उन्होंने मुस्लिम नेताओं के सामने अपनी मंशा स्पष्ट नहीं की.

हालांकि, दूसरी बैठक में भाग लेने वाले आरएसएस नेताओं की प्रतिक्रिया से यह अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आरएसएस जानना चाहता है कि काशी की ज्ञानवापी मस्जिद और मथुरा की ईदगाह मस्जिद के अधिग्रहण के संबंध में मुस्लिम धर्मगुरुओं के दिमाग में क्या चल रहा है.

मुस्लिम प्रतिनिधियों के सवालों के जवाब में, इंद्रेश कुमार के नेतृत्व वाले आरएसएस के प्रतिनिधिमंडल ने स्पष्ट रूप से कहा कि अयोध्या, वाराणसी और मथुरा की तीनों मस्जिदों को सौंपने से हिंदू-मुस्लिम संबंधों को बहाल करने में मदद मिलेगी. यह बात आरएसस ने मुस्लिम प्रतिनिधियों के जवाब में कही थी.

मुस्लिम प्रतिनिधियों ने इस्लाम और मुसलमानों पर आपत्तिजनक भाषा, मॉब लिंचिंग, मुसलमानों के नरसंहार के लिए बार-बार आह्वान, मामूली कारणों से मुस्लिम घरों पर बुलडोज़र चलाना, मुसलमानों पर अत्याचार, विशेष रूप से भाजपा शासित राज्यों में, और झूठे आरोप लगाकर मुस्लिमों युवकों की गिरफ्तारी का मुद्दा उठाया था.

अयोध्या, वाराणसी और मथुरा की तीनों मस्जिदों पर कब्ज़ा करना आरएसएस और उसके फ्रंटल संगठनों का पुराना एजेंडा है. उन्होंने अयोध्या में तो न्यायिक फैसले के माध्यम से बाबरी मस्जिद पर कब्ज़ा कर ही लिया, अब आरएसएस दो अन्य मस्जिदों को भी हासिल करना चाहता है. लेकिन पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 इसके रास्ते में आ रहा है. 1991 का यह अधिनियम निर्देश देता है कि 15 अगस्त, 1947 के बाद से किसी भी धार्मिक स्थान के चरित्र को बदला नहीं जा सकता है.

एकमात्र धार्मिक स्थल जिसे इसके दायरे से बाहर रखा गया था, वह बाबरी मस्जिद थी. हालांकि बाबरी मस्जिद के मामले में भी सारे सबूत मस्जिद के पक्ष में ही थे और सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में भी माना कि बाबरी मस्जिद किसी मंदिर के मलबे पर नहीं बनी थी. शीर्ष अदालत ने यह भी स्वीकार किया कि 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद का विध्वंस अवैध और आपराधिक का कार्य था. इसके बावजूद सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद की जगह मंदिर पक्ष को सौंप दी. हालाँकि मुसलमानों ने फैसले को स्वीकार कर लिया, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने भारत की न्यायपालिका में मुसलमानों के विश्वास को कमज़ोर ज़रूर कर दिया है.

इस स्टोरी को अंग्रेज़ी में पढ़ें: Is RSS Trying To Probe Muslim Mind On Kashi And Mathura Mosques?

अब ज्ञानवापी और मथुरा की ईदगाह मस्जिद पर अपना दावा जताने वाले हिंदू पक्षकारों द्वारा अदालत में कई मामले दायर किए जा चुके हैं. आरएसएस नेतृत्व अच्छी तरह से जानता है कि वह न्यायिक मार्ग से दो दो मस्जिदों पर कब्ज़ा नहीं कर सकता है क्योंकि 1991 के पूजा स्थल अधिनियम ने उसके दरवाज़े बंद कर दिए हैं, इसलिए वे अब मुस्लिम नेतृत्व से संपर्क साध कर और पर्दे के पीछे से कूटनीति करके मस्जिद पर कब्ज़ा करने के लिए मुस्लिमों को राज़ी करने की कोशिश कर रहे हैं.

लेकिन मीडिया में लीक होने वाली रिपोर्ट में दूसरे दौर की वार्ता में भाग लेने वालों के हवाले से स्पष्ट रूप से कहा गया है कि मुस्लिम नेताओं ने स्पष्ट रूप से उनसे कहा है कि मस्जिद पर सौदेबाजी बिल्कुल भी मुमकिन नहीं है. उन्होंने आरएसएस नेतृत्व को 1991 के अधिनियम के बारे में भी याद दिलाया. उन्होंने उन्हें यह भी बताया कि मस्जिद के पक्ष में स्पष्ट सबूत होने के बावजूद सुप्रीम कोर्ट द्वारा बाबरी मस्जिद को मंदिर पक्ष को सौंपने के बाद न्यायपालिका में मुस्लिम नेतृत्व का भरोसा कमज़ोर हुआ है.

आरएसएस के नेताओं के साथ-साथ भाजपा के नेताओं को भी डर है कि एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत की छवि पूरी तरह से खराब हो जाएगी, अगर मुसलमानों की स्वेच्छा से दो मस्जिदों को लेने के अलावा किसी अन्य तरीके का इस्तेमाल किया.

आरएसएस जिन दो मस्जिदों पर कब्ज़े की मांग कर रहा है, उनके मुद्दे पर भविष्य में आरसएस की प्रतिक्रिया क्या होगी, इसके बारे में कोई नहीं जानता है. क्या आरएसएस इस मुद्दे पर चुप रहेगा या कोई और हथकंडा अपनाएगा? स्वतंत्र भारत के 70 वर्षो के इतिहास में मुस्लिम समुदाय अब तक के सबसे बुरे दौर का सामना कर रहा है.

क्या मुसलमानों पर हो रहे ज़ुल्म, मुसलमानों को मस्जिदों के संबंध में आरएसएस की मांग मानने के लिए मजबूर करने की एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है? अगर मुसलमान काशी और मथुरा की मस्जिदों को सौंपने के लिए राज़ी हो जाएं तो क्या हिंदू-मुस्लिम तनाव खत्म हो जाएगा? बाबरी मस्जिद के बारे में भी संघ परिवार के नेताओं ने भी यही बात कही थी. लेकिन न्यायिक आदेश के माध्यम से हिंदू पक्ष को मस्जिद स्थल मिलने के बाद भी मुस्लिम विरोधी हिंसा बंद नहीं हुई.

क्या गारंटी है कि अगर काशी और मथुरा की मस्जिदें हिंदू पार्टियों को मिल जाती हैं तो मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण खत्म हो जाएगा? इसकी गारंटी कौन देगा? क्योंकि बाबरी मस्जिद पर कब्ज़ा करने के बाद भी भगवा ताकतों ने मुसलमानों को डराना-धमकाना बंद तो नहीं किया है.

1991 के अधिनियम होने के बावजूद, ज्ञानवापी और मथुरा ईदगाह मस्जिदों पर दावा करते हुए अदालतों में मामले दायर किए गए हैं. कट्टरपंथी हिंदुओं के बीच ऐसे समूह हैं जो 3,000 मस्जिदों के अलावा ताजमहल जैसे ऐतिहासिक स्मारकों के भी मंदिर होने का दावा करते हैं. और ऐसे मामलों की लिस्ट काफ़ी लंबी है.

दो पक्ष किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचे या नहीं, बातचीत जारी रहनी चाहिए. मुस्लिम पार्टी पहले ही आरएसएस नेताओं के साथ बातचीत जारी रखने की घोषणा कर चुकी है.

(यह लेखक के निजी विचार हैं, यह ज़रूरी नहीं है कि इंडिया टुमॉरो की संपादकीय नीति लेखक के विचारों से सहमत हो.)

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