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Saturday, May 4, 2024
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वैश्विक आतंकवाद को ख़त्म करने के लिए आतंक के सभी रूपों का मुकाबला ज़रूरी

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल ही में एक कॉन्फ्रेंस में वैश्विक आतंकवाद की निंदा की. दुनिया को आतंकवाद मुक्त बनाने के लिए आतंकवाद का समर्थन करने वाले देशों के खिलाफ सख्त कदम की मांग करने के लिए वो निस्संदेह तारीफ के काबिल हैं.

उन्होंने शुक्रवार को दुनिया भर के 400 से अधिक प्रतिनिधियों की उपस्थिति में ‘नो मनी फॉर टेररिज्म मिनिस्ट्रियल कॉन्फ्रेंस ऑन काउंटर-टेररिज्म फाइनेंसिंग’ शीर्षक से आयोजित एक कॉन्फ्रेंस में बोलते हुए यह टिप्पणीयां की. इसी सम्मेलन में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि आतंकवाद को किसी धर्म, राष्ट्रीयता या समूह से नहीं जोड़ा जाना चाहिए.

प्रधानमंत्री ने कॉन्फ्रेंस में कहा कि आतंकवाद से संबंधित मामलों में किसी प्रकार का कोई किंतु परंतु नहीं होना चाहिए, और आतंकवादियों के प्रति सहानुभूति व्यक्त करने वाले संगठनों और व्यक्तियों का बिल्कुल बहिष्कार कर देना चाहिए.

पीएम ने अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद के लिए होने वाली फंडिंग के खिलाफ कड़े शब्दों का इस्तेमाल किया क्योंकि भारत भी इसका शिकार है और दशकों से आतंक के खिलाफ लड़ रहा है. पीएम ने टिप्पणी की कि आतंकवाद से किसी को कोई फायदा नहीं होता है, और यह उन लोगों को भी खत्म कर देता है जो उनकी फंडिंग और समर्थन करते हैं.

लेकिन हमें उस खतरे की निंदा करने में पक्षपाती नहीं होना चाहिए जो पिछले कुछ दशकों में विश्व शांति को भारी नुकसान पहुंचा रहा है और दुनिया भर के कई देशों को अस्थिर कर रहा है. हमें आतंकवाद के सभी रूपों की निंदा करनी चाहिए, चाहे इसे अंजाम देने वाला कोई भी हो.

आतंकवाद को आतंकवाद ही माना जाना चाहिए, चाहे अपराधी व्यक्ति हों या सरकारें. आतंकवाद का कोई निश्चित रूप या स्वरूप नहीं होता है. इसके कई रूप हैं. पीएम मोदी ने यह सही कहा है कि कुछ देशों ने आतंकवाद को अपनी विदेश नीति का हिस्सा बना लिया है, यानी वे दूसरे देशों को अस्थिर करने के लिए आतंकवाद का निर्यात करते हैं.

हालाँकि कॉन्फ्रेंस में वैश्विक नेता आतंकवाद को लेकर इस बारे में चर्चा करने में नाकामयाब रहे हैं कि उनके खुदके देशों में अल्पसंख्यक समुदायों के खिलाफ आतंकवादी गतिविधियों में कट्टरपंथी तत्व शामिल रहते हैं. उदाहरण के लिए, भारत में मुसलमानों और ईसाइयों को वर्ग विशेष के कट्टरपंथी संगठनों और उनके नेताओ द्वारा फैलाए जाने वाले आतंकवाद का सामना करना पड़ता है. ये तो किसी से छिपा नहीं है कि पिछले आठ सालों में मॉब लिंचिंग में कई मुस्लिम मारे गए हैं. कई राज्यों में कई मुस्लिम घरों को बुलडोजर चलाकर सिर्फ यह बहाना लगाकर तोड़ दिया गया कि इन घरों में रहने वाले कुछ लोग अपराधों में शामिल हैं, हालांकि इस प्रकार बुलडोजर चलाकर घरों को ध्वस्त करना भूमि के मौजूदा कानूनों (लॉ ऑफ लैंड) के खिलाफ है.

मुसलमान लंबे समय से बहुसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथी तत्वों के शिकार बने ही हुए हैं. कई बार देखा गया है कि बहुसंख्यक समुदाय से आने वाले कुछ धार्मिक नेताओं और चुने हुए प्रतिनिधियों सहित कई नेताओं ने मुसलमानों के नरसंहार का खुलेआम आह्वान किया है. लेकिन ये फिर भी खुले घूम रहे हैं. पूरे देश में ईसाइयों पर भी सुनियोजित हमले हुए हैं. क्या ये घटनाएं आतंक की श्रेणी में नहीं आतीं? अल्पसंख्यक, विशेषकर मुस्लिम, खौफ़ के हालात में जी रहे हैं.

आतंकवाद का एक दूसरा पहलू यह है कि जब सैन्य शक्तियों में कमज़ोर देश अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब युद्ध और शांति के नियमों का पालन नहीं करते हैं तो बड़ी सैन्य ताकत वाले देश इन्हें बर्बाद करने के लिए अपनी सैन्य शक्ति का उपयोग करते हैं. उदाहरण के लिए, अमेरिका के नेतृत्व वाले इस पश्चिमी ईसाई देश ने इराक को नष्ट करने और अस्थिर करने के लिए अपनी सैन्य शक्ति का इस्तेमाल किया था क्योंकि इराकी नेता सद्दाम हुसैन अरब दुनिया में अमेरिका के कट्टर आलोचक थे. चूंकि अमेरिका के पास इराक पर हमला करने के लिए कोई ठोस आधार नहीं था, इसलिए उसने यह तर्क देते हुए एक साज़िश रची कि इराक ने सामूहिक विनाश के हथियार (WMD) जमा कर रखे हैं और क्षेत्रीय शांति के लिए इराक खतरा बन चुका है.

इसी बहाने के आधार पर उन्होंने इराक पर हमला किया और पुरुषों, महिलाओं और बच्चों सहित लाखों लोगों को मार डाला. अपने आस पास के क्षेत्र की सबसे तेज़ी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक, इराक इस हमले के बाद पूरी तरह से नष्ट हो गया था. हालांकि अमेरिकी और यूरोपीय सेनाएं 2011 में इराक से हट गईं हैं लेकिन यह देश अभी तक स्थिर नहीं हो सका है, और यहां शांति बहाल नहीं हुई है. युद्ध के अंत में, हमलावर बलों ने घोषणा की कि कोई घातक हथियार (WMD) नहीं मिला. क्या इराक पर किया गया यह हमला आतंकवाद नहीं था? दुनिया इस पर चुप क्यों है और महाशक्ति(अमेरिका) के आतंकवाद की निंदा क्यों नहीं करती है?

इसी तरह फ़िलिस्तीनी लोगों के ख़िलाफ़ जारी इज़राइली आतंकवाद पर भी पूरी दुनिया खामोश है. कोई दिन ऐसा नहीं गुज़रता जब गाज़ा और वेस्ट बैंक के कब्ज़े वाले क्षेत्रों में इजरायली सेना द्वारा एक निर्दोष फिलिस्तीनी को गिरफ्तार न किया जाता हो या मार डाला नहीं जाता हो. इज़राइल फ़िलिस्तीनियों के घरों और ज़मीन पर जबरन क़ब्ज़ा कर रहा है इजरायली पुलिस और सेना के जवानों सहित इज़राईली अक्सर इस्लाम के तीसरे सबसे पवित्र स्थल अल-अक्सा मस्जिद में तोड़फोड़ करते रहते हैं.

इज़राईल फिलीस्तीनियों के खिलाफ सीधे सीधे आतंक फैलाता है. इज़राइल स्वयं 1948 में 10,000 से अधिक फ़िलिस्तीनियों का नरसंहार करके, लगभग आठ लाख अन्य लोगों को निष्कासित करके, और 500 से अधिक फ़िलिस्तीनी गाँवों को नष्ट करके आतंकवाद के एक अधिनियम के माध्यम से अस्तित्व में आया था. लेकिन “सभ्य” दुनिया, जो पृथ्वी से आतंकवाद को खत्म करने की बात करती है, इस बारे में चुप है। वाकई अजीब बात है!

इसके खिलाफ, अमेरिकी नेतृत्व वाली पश्चिमी सेनाओं ने अफगानिस्तान के विकास को ‘पाषाण युग’ तक सीमित कर दिया, यह बहाने लगाकर कि अफगानिस्तान ने अल-कायदा नेता ओसामा बिन लादेन को शरण दी थी, जिसके समर्थकों के बारे में कहा जाता है कि वे न्यूयॉर्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला करने में शामिल थे. हालांकि अफगानिस्तान पर थोपे गए युद्ध के दो दशकों के दौरान मारे गए और घायल नागरिकों के बारे में कोई सटीक आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन पाकिस्तान के एबटाबाद में ओसामा को मार गिराए जाने और अफगानिस्तान से अल-कायदा के सफाए के बाद भी अमेरिकी नेतृत्व वाली सेना ने अपना ऑपरेशन जारी रखा था.

Fotune.com के अनुसार, अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी ताकतों द्वारा 71,000 से अधिक अफगान नागरिक मारे गए थे, और अन्य 75,000 अफगान सैन्य और पुलिस कर्मियों की मौत अमेरिका और उसके समर्थकों द्वारा थोपे गए युद्ध के कारण हुई थी. क्या यह सब आतंकवाद नहीं था? क्योंकि अफगानिस्तान ने तो वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला नहीं किया था, और ना ही उसका कोई नागरिक हमले में शामिल था.

इसी तरह सीरिया और लीबिया भी वैश्विक सैन्य शक्तियों की राजनीति के शिकार हुए हैं.

संयुक्त राष्ट्र के दूत के अनुसार, सीरिया में चार लाख से अधिक लोग मारे गए हैं, और 13 मिलियन से अधिक लोग तुर्की, जर्मनी और कई अरब देशों जैसे अन्य देशों में विस्थापित हुए हैं. हर कोई जानता है कि आईएसआईएस किसने शुरू किया, स्वयंसेवकों की भर्ती की, और सीरिया, इराक और लीबिया में मौत और विनाश को अंजाम देने के लिए उन वॉलिंटियर्स को प्रशिक्षित और हथियारों से लैस किया.

विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार, लीबिया पर थोपे गए युद्ध के कारण चार लाख से अधिक लोग आंतरिक रूप से विस्थापित हुए थे. 2014 और 2020 के बीच लीबिया युद्ध में नागरिकों और सैनिकों सहित हज़ारों लोगों के मारे जाने की रिपोर्ट्स है. लीबिया पर युद्ध सिर्फ मुअम्मर गद्दाफी को गद्दी से हटाने के लिए लगाया गया था, जो पश्चिमी महाशक्ति का समर्थन नहीं करता था, क्या यह आतंकवाद की श्रेणी में नहीं आता?

2016 में, अमेरिकी दूतावास के कर्मचारियों और एक ईसाई मिशनरी को रज़ब तय्यब एर्दोगन के खिलाफ 2016 के तख्तापलट के प्रयास में शामिल पाया गया था. ट्रम्प प्रशासन ने तुर्की सरकार को ईसाई पादरी को रिहा करने और उसे अमेरिका की यात्रा करने की अनुमति देने के लिए मजबूर किया था. जांच में पाया गया था कि अमेरिका स्थित तुर्की मूल के मुस्लिम मौलवी फतुल्लाह गुलेन विफल तख्तापलट के पीछे मुख्य साज़िशकर्ता थे. एर्दोगन ने उनके प्रत्यर्पण की मांग की थी ताकि उनके खिलाफ मुकदमा चलाया जा सके. लेकिन ट्रंप प्रशासन ने उनके प्रत्यर्पण से इनकार कर दिया था. क्या तुर्की के राष्ट्राध्यक्ष के खिलाफ विफल तख्तापलट आतंकवाद नहीं था? जहां पूरी दुनिया ने इस तख्तापलट की निंदा की, लेकिन किसी भी देश ने अमेरिकी पादरी और अमेरिका के दूतावास के कर्मचारियों की संलिप्तता की निंदा नहीं की.

निंदा में पक्षपात अपनाने से आतंकवाद का खात्मा नहीं किया जा सकता. इसलिए सबको सच बोलना चाहिए , चाहे वह सुखद हो या कड़वा.

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