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Monday, May 13, 2024
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मोहन भागवत का विवादित भाषण, जनसंख्या वृद्धि को लेकर मुस्लिम और ईसाईयों पर साधा निशाना

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | दशहरा के अवसर पर, 15 अक्टूबर को राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने राष्ट्र के समक्ष आने वाली चुनौतियों का सामना करने के लिए विभिन्न भाषाई और धार्मिक समूहों के बीच एकता का आह्वान करते हुए अपने शुद्ध हिंदी के एक घंटे और 12 मिनट के भाषण के दौरान कई विवादास्पद टिप्पणियां भी की.

राष्ट्र की एकता और अखंडता को मज़बूत करने के लिए जातिवाद के उन्मूलन की अपील करते हुए मोहन भागवत ने अनेक कारण गिनाते हुए अलग-अलग धार्मिक समुदायों की आबादी में असंतुलन बढ़ने की बात की.

देश को जनसंख्या के असंतुलन से बचाने के लिए उन्होंने संघ के “स्वयंसेवकों” से ‘सभी वैध कदम उठाने’ की अपील की. कथित बांग्लादेशी प्रवासियों को देश की सुरक्षा के लिए खतरा बताते हुए भागवत ने उन्हें भारतीय नागरिकता से वंचित करने के अलावा भारत में संपत्ति और धर्म की आज़ादी से वंचित करने की बात करते हुए राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर (NRC) को लागू करने की वकालत की.

भागवत ने कहा कि, “हिंदुओं को उन क्षेत्रों में खतरों का सामना करना पड़ रहा है जहां मुस्लिम और ईसाई पिछले कुछ वर्षों में आबादी में “असमान अनुपात” में बढ़ गए हैं.”

हालांकि, भागवत के भाषण के अर्थ को समझने के लिए उनके कथन को बारीकी से समझने की ज़रूरत है, जिनमें से कई वाक्य बहुत स्पष्ट नहीं हैं.

महंगाई, बेरोज़गारी और किसानों द्वारा विरोध किए जा रहे तीन कृषि कानून, जिसके लिए किसान पिछले करीब एक साल से आंदोलन कर रहे हैं, दूसरी लहर के दौरान कोरोना मरीज़ो को चिकित्सा सुविधा मुहैया कराने में सरकार की नाकामी, कॉरपोरेट्स को सरकारी संपत्ति की बिक्री और आम नागरिकों से संबंधित किसी भी मुद्दे को भागवत ने अपने भाषण में नहीं उठाया. शायद ये सभी मुद्दे उनके विचार में चर्चा किए जाने के लायक ही नहीं हैं.

भागवत ने नरेंद्र मोदी सरकार की कुछ नीतियों का समर्थन किया, विशेष रूप से “विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस” ​​​​के बारे में भाजपा सरकार द्वारा की गई घोषणा का. हालांकि, भाजपा की इस घोषणा की विभिन्न वर्गों द्वारा कड़ी आलोचना की गई है.

भागवत एक ऐसे संगठन के प्रमुख हैं, जिसके बारे में कहा जाता है कि उनका सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के साथ गहरा संबंध है, अतः उनके बयानों पर खबर बनना स्वाभाविक है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उनके अधिकांश मंत्री, कई राज्य के मुख्यमंत्री और लगभग सभी शीर्ष भाजपा पदाधिकारी सीधे आरएसएस से संबंध रखते हैं. उनमें कोई इसे छिपाता भी नहीं है. बल्कि इसके विपरीत ये लोग आरएसएस के साथ अपने संबंधों पर गर्व करते हैं. इसलिए भी भागवत के भाषण को सरकार के लिए भविष्य की गाइडलाइन के रूप में माना जाना चाहिए.

भागवत ने जातिविहीन, समतामूलक समाज की वकालत की:

“एक समतावादी और गैर-भेदभावपूर्ण समाज को एकीकृत करना देश की सबसे पहली ज़रूरत बताते हुए आरएसएस प्रमुख भागवत ने कहा कि, “जाति-आधारित विभाजन इस के रास्ते में एक बाधा है” यह बताते हुए कि जातिवाद को मिटाने के लिए कई प्रयास किए गए, उन्होंने इस बात पर अफसोस जताया कि भारतीय समाज में अभी भी जाति-आधारित भावनाएँ मौजूद हैं.

अपने संबोधन में उन्होंने दावा किया कि आरएसएस एक समतामूलक समाज के लिए प्रयास कर रहा है. उनका यह बयान वर्तमान संदर्भों में बहुत मायने रखता है क्योंकि यूपी, बिहार और अन्य राज्यों के ओबीसी समुदाय राष्ट्रीय संसाधनों में आनुपातिक हिस्सेदारी के लिए ओबीसी समूह के लिए अलग जनगणना की मांग कर रहे हैं.

ओबीसी समुदायों को लगता है कि देश की आबादी में उनका प्रतिशत बहुत अधिक है, लेकिन उन्हें उनका हक नहीं मिल रहा है. राष्ट्रीय संसाधनों का अधिकांश भाग सवर्णों की जेब में है, जो ओबीसी की तुलना में बहुत कम हैं. केंद्र सरकार ने पहले ही ओबीसी जनगणना के खिलाफ एक स्टैंड ले लिया है और इस मांग का विरोध करते हुए सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा भी पेश किया है.

केंद्र के इस कदम के बाद क्या यह समझा जा सकता है कि एक समतावादी समाज के लिए भागवत के तर्क और प्रगतिशील विचार वास्तव में केंद्र के इस कदम का समर्थन है. देश की एकता और अखंडता के लिए और समतामूलक समाज की भागवत की अपील कहीं ओबीसी जनगणना को रोकने की सीधी कोशिश तो नहीं है?

भागवत ने एकता का आह्वान किया:

भागवत ने अपने भाषण में कहा कि, “भाषाई, धार्मिक और क्षेत्रीय परंपराओं को अपने अंदर समाहित कर अखंड इकाई स्थापित करना और सभी को समान रूप से स्वीकार कर सबका सम्मान करते हुए सभी के बीच सहयोग को बढ़ावा देना भारत की सांस्कृतिक विरासत रही है.”

भागवत ने लोगों से “अहंकार और अभिमान” छोड़ने की अपील की जिन्हें लोग अपनी “संकीर्ण धार्मिक, जाति-आधारित, भाषाई और क्षेत्रीय पहचान” से प्राप्त करते हैं.

अपने संबोधन में उन्होंने कहा कि, वे सभी भारतीय जिनके धर्म भारत की वर्तमान सीमाओं के बाहर से उत्पन्न हुए हैं, “वे सभी ‘आध्यात्मिक मान्यताओं’ और ‘पूजा पद्दति’ में अंतर के बावजूद समान सभ्यता, वंश और संस्कृति का हिस्सा हैं. यह अनूठी विरासत हमारी धार्मिक स्वतंत्रता का आधार है.”

ऐसा कहते हुए उन्होंने घोषणा की कि, “हर व्यक्ति अपने लिए उपयुक्त पूजा का तरीका चुनने के लिए स्वतंत्र है.” भागवत ने पानीपत के प्रथम युद्ध में बाबर के खिलाफ जंग करने वाले अलवर के राजा हसनखान मेवाती, हल्दीघाटी की लड़ाई में मुगल सेना के खिलाफ लड़ने वाले हकीम खान सूरी और रानी लक्ष्मीबाई की तरफ से लड़ने वाले खुदाबख्श और गौस खान और काकोरी कांड में राम प्रसाद बिस्मिल के साथ मौत की सज़ा प्राप्त करने वाले क्रांतिकारी अशफाकउल्लाह खान जैसे शहीदों की सराहना की और उन्हें सभी के लिए रोल मॉडल बताया.

विभाजन विभीषिका का स्मरण:

एक नस्लीय पहचान पर आधारित एकता के ऐसे साहसिक संदेश के बावजूद भागवत ने मोदी सरकार की विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस की घोषणा का समर्थन किया. विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस की घोषणा की अकादमिक और बौद्धिक जगत ने सख़्त आलोचना की है. विभाजन जिसके परिणामस्वरूप देश में भयानक नरसंहार हुआ था उसके लिए हिंदू-दक्षिणपंथी राजनेता, शिक्षाविद, इतिहासकार और बुद्धिजीवी मुस्लिमों को ज़िम्मेदार मानते हैं.

देश में विपक्षी नेताओं को लगता है कि पीएम द्वारा घोषित विभाजन की भयावहता पर किसी भी प्रकार की बहस से साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के और भी बुरी तरह बढ़ने की पूरी संभावना है, जिसने पिछले सात वर्षों से पूरे देश को अपनी चपेट में ले रखा है.

मोदी सरकार की घोषणा पर अपनी मुहर लगाते हुए, भागवत कहते हैं कि, “विभाजन की विभीषिका को याद रखना किसी के प्रति शत्रुता की भावनाओं को पनाह देना नहीं है बल्कि अतीत की भयावहता की पुनरावृत्ति को हराना है.”

हम मोहन भागवत के इरादों पर सवाल नहीं उठाते हैं, लेकिन 15 अगस्त को पीएम की घोषणा के बाद, विभाजन की भयावहता पर बहस भारत के मुसलमानों के खिलाफ नफरत फैलाने का एक साधन बन गई है. मुसलमानों को विभाजन के लिए विशेष रूप से ज़िम्मेदार ठहराती मनगढ़ंत कहानियों की मीडिया में बाढ़ सी आ गई है. इसने भारत में इस्लामोफोबिया को और बढ़ा दिया है और मुसलमानों के लिए जीवन कठिन बना दिया है.

भागवत या किसी और को पता होना चाहिए कि सिर्फ विभाजन की भयावहता को याद रखना काफी नहीं है बल्कि हमें इस बात को देखना चाहिए कि एक राष्ट्र के रूप में हमने कुछ समूहों द्वारा चौबीसों घंटे फैलाई जाने वाली नफरत को रोकने के लिए क्या किया है. नफरत के सौदागर ख़तरनाक गति से काम कर रहे हैं, इसलिए सरकार को नफरत फ़ैलाने वालों का मुकाबला करने के लिए तत्काल कदम उठाने चाहिए.

धार्मिक कट्टरता:

भागवत ने विभिन्न समुदायों के बीच तनाव उत्पन्न करने वाले मुद्दों को भी उठाया. उदाहरण के लिए, उन्होंने कहा कि सिख धर्म के 9वें गुरु तेग बहादुर इसलिए शहीद हो गए क्योंकि वे धार्मिक आज़ादी के लिए खड़े हुए और सत्ता के डर के बिना अपने विश्वास का पालन करते रहे.

आरएसएस प्रमुख ने कहा कि, 17वीं शताब्दी में भारत में प्रचलित “धार्मिक कट्टरता” ही गुरु तेग बहादुर के सिर काटने का कारण बनी.

हालांकि, भागवत ने उस शासक के नाम का उल्लेख नहीं किया जिसके आदेश पर गुरु तेग बहादुर को फाँसी दी गई थी, लेकिन यह तो सब जानते ही हैं कि उस वक्त भारत में मुगल शासन था. किसी घटना की पूरी जानकारी दिए बिना आखिर भागवत अपने श्रोताओं और देश के बाकी हिस्सों के लोगों को क्या संदेश देना चाहते थे?

उनका ऐसा करना युवा पीढ़ी के मन में पूर्वाग्रह को जन्म दे सकता है. ऐसे समय में जबकि देश 1947 के बाद अपने इतिहास में सबसे अधिक सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण का सामना कर रहा हो, भागवत जैसे बड़े नेता की ओर से आने वाले इस तरह के बयान सांप्रदायिक शांति और सद्भाव के लिए अच्छे नहीं है.

अगर भागवत ने महाराजा रणजीत सिंह के सिख शासन के दौरान कश्मीर में मुसलमानों की धार्मिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने और कश्मीरी मुसलमानों को बर्बाद करने वाली उनकी मुस्लिम विरोधी नीतियों के बारे में भी बात की होती तो उनके तर्क कुछ संतुलित कहे जा सकते थे.

उदाहरण के लिए, श्रीनगर की जामा मस्जिद 20 साल तक बंद रही और रणजीत सिंह के शासन के दौरान कश्मीर में मुसलमानों को अज़ान (प्रार्थना करने के लिए) देने पर रोक लगा दी गई थी. और यह सब भी उसके बाद हुआ जब रणजीत सिंह ने कश्मीरी मुसलमानों की मदद से कश्मीर के तत्कालीन अफगान शासकों को खदेड़कर कश्मीर पर कब्ज़ा कर लिया था.

समावेशी धार्मिक स्वतंत्रता को राष्ट्रीय जीवन की आधारशिला बताते हुए भागवत ने महाराष्ट्र के संत ज्ञानेश्वर और नोबेल पुरस्कार विजेता रवींद्रनाथ टैगोर की अवधारणाओं के अनुसार “स्वतंत्रता” की भावना का संदर्भ देते हुए अपने श्रोताओं को बात समझाने की कोशिश की. लेकिन भारत के अल्पसंख्यक, विशेष रूप से मुस्लिम और ईसाई, मई 2014 से मोदी के शासन में जिन स्थितियों का सामना कर रहे हैं, वह भागवत के आदर्श धार्मिक स्वतंत्रता के दावों के बिल्कुल विपरीत है.

मुसलमानों को बसों, ट्रेनों और सड़कों पर भीड़ द्वारा किसी न किसी बहाने से निशाना बनाया जा रहा है. कानूनी एजेंसियां ​​दोषियों के खिलाफ पर्याप्त कार्रवाई नहीं कर रही हैं. इसके बजाय, वे पीड़ितों को झूठे मामलों में फंसा रहे हैं.

मुसलमानों और ईसाइयों के धार्मिक स्थलों पर लगातार हमले हो रहे हैं. निजी सेनाओं की भांति गोरक्षक मुसलमानों पर हमला कर रहे हैं और पशु व्यापार करने वाले मुस्लिम व्यापारियों पर गोवंश के वध का आरोप लगाकर आतंकित कर रहे हैं. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दादरी में गोरक्षकों की एक भीड़ ने अखलाक के घर में ज़बरदस्ती प्रवेश किया और रेफ्रिजरेटर में गाय का मांस होने का झूठा आरोप लगाकर उसे पीट-पीट कर मार डाला.

हरियाणा के मेवात में पुलिस ने सड़क किनारे स्थित एक रेस्तरां से ‘बिरयानी’ जब्त की और ‘बिरयानी’ में गाय का मांस होने का आरोप लगाकर रेस्टोरेंट के कर्मचारियों को गिरफ्तार कर लिया. टोपी और दाढ़ी रखने वाले मुसलमानों को कट्टरपंथी हिंदुओं द्वारा निशाना बनाया जाना तो आम सा हो गया है.

लगभग सभी भाजपा राज्य सरकारें अंतर्धार्मिक विवाहों को रोकने के लिए कड़े कानून लेकर आए हैं, जिसकी वजह से धार्मिक स्वतंत्रता पर अंकुश लगा है. इसके अलावा, भारत के अलग-अलग क्षेत्रों में सैकड़ों मुसलमानों को हाल ही में उत्तर प्रदेश एटीएस द्वारा गिरफ्तार कर लिया गया और एटीएस द्वारा गिरफ्तार व्यक्तियों पर आरोप लगाए गए हैं कि उन्होंने “धोखाधड़ी और छल” के ज़रिए से बड़ी संख्या में हिंदुओं का इस्लाम धर्म में धर्मांतरण करवाया है, हालांकि गिरफ्तार व्यक्तियों और उनके परिवार के सदस्यों ने आरोपों से इनकार किया है.

कई ईसाई पुजारियों को भी हिंदुओं के ईसाई धर्म में जबरन धर्मांतरण के आरोप में गिरफ्तार किया गया है.

क्या यही वह धार्मिक स्वतंत्रता है जिसे भागवत भारत के राष्ट्रीय जीवन का आधार कहते हैं? भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र और राज्य सरकारों की कार्रवाइयां 17वीं और 18वीं सदी के भारत में पाए जाने वाले धार्मिक उत्पीड़न से किस प्रकार भिन्न हैं? जिनका उदाहरण भागवत ने अपने संबोधन में दिया है?

अपने भाषण में, भागवत ने कहा कि, 15 अगस्त, 1947 को स्वाधीनता से शुरू हुई स्वतंत्रता तक की यात्रा “अभी तक पूरी नहीं हुई है.” हालांकि, उन्होंने यह नहीं बताया कि इसका मतलब क्या है?

क्या मुसलमानों और ईसाइयों के साथ जो हो रहा है वह उस “स्वतंत्रता” का एक हिस्सा है, जो भागवत के विचार में “स्वतंत्र भारत” के लिए एक आदर्श है?

भागवत ने कहा कि, भारत विरोधी कुछ ताकतें कुछ देशों में सत्ता में हैं, इन ताकतों को “सनातन मूल्य सिद्धांत” पर आधारित धर्म द्वारा निष्प्रभावी किया जा सकता. उन्होंने कहा कि, “भारत “धार्मिक विश्वदृष्टि” से प्रेरित है, जिसमें दुनिया में शक्ति के खोए हुए संतुलन को बहाल करने की क्षमता है, लेकिन कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा “कट्टरता” बनाए रखने के लिए व्यवस्थित प्रयास चल रहे हैं ताकि अशांति पैदा करके या आतंक फैलाकर भारत की प्रगति को रोका जा सके.”

भागवत के अनुसार मुसलमानों की उच्च जन्म दर, बांग्लादेश से घुसपैठ और ईसाइयों की धर्मांतरण गतिविधियां जनसंख्या में धार्मिक असंतुलन के लिए उत्तरदायी

भागवत ने जनसंख्या नीति की समीक्षा का आह्वान करते हुए कहा कि, 1951-2011 के दौरान “भारतीय मूल” (हिंदू, सिख, जैन और बौद्ध) के धर्मों की आबादी का हिस्सा 88 प्रतिशत था, जिससे घटकर अब 83.8 प्रतिशत हो गया है. भागवत के अनुसार इसी अवधि में मुस्लिम आबादी 9.8 प्रतिशत से बढ़कर 14.23 प्रतिशत हो गई है. हालांकि, सरकारी आंकड़े कहते हैं कि मुसलमानों की प्रजनन दर लगभग हिंदुओं और अन्य समुदायों के समान ही थी.

आरएसएस प्रमुख ने बताया कि असम, पश्चिम बंगाल और बिहार जैसे सीमावर्ती राज्यों के जिलों में मुस्लिम आबादी की वृद्धि दर राष्ट्रीय औसत से ऊपर है, जो बांग्लादेश से होने वाली बेरोकटोक घुसपैठ का दुष्परिणाम है.

भागवत ने ईसाइयों पर भी साधा निशाना:

उन्होंने कहा कि, “पूर्वोत्तर राज्यों में जनसंख्या में धार्मिक असंतुलन गंभीर रूप ले चुका है. उदाहरण के लिए, 1951 में अरुणाचल प्रदेश में “भारतीय मूल” (गैर-मुस्लिम और गैर-ईसाई) के धर्मों के लोगों का प्रतिशत 99.21 था जिसके मुकाबले, 2011 में जनसंख्या में उनका हिस्सा घटकर मात्र 67 प्रतिशत रह गया है. इसके विपरित 2001-2011 के दौरान अरुणाचल प्रदेश की ईसाई जनसंख्या में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. इसी तरह, मणिपुर में “भारतीय मूल” के धर्मों की हिस्सेदारी जो 1951 में 80 प्रतिशत थी उससे घटकर 2011 में 50 प्रतिशत हो गई है.”

उन्होंने दावा किया कि, ईसाई आबादी की “अप्राकृतिक वृद्धि” कुछ स्वार्थी तत्वों द्वारा संचालित संगठित और निशाना बनाकर की गई धार्मिक रूपांतरण गतिविधि की ओर इशारा करती है. धर्मांतरण के माध्यम से हुई ईसाई आबादी में वृद्धि को ‘अप्राकृतिक वृद्धि’ कहना नागरिकों को उनकी पसंद के धर्म का पालन करने के अधिकार से वंचित करना है, जिसकी गारंटी संविधान द्वारा दी गई है.

उन्होंने भारत सरकार से जनसांख्यिकीय असंतुलन की समस्या को दूर करने के लिए राष्ट्रीय जनसंख्या नीति में बदलाव करने के लिए कहा. भागवत ने नई जनसंख्या नीति को देश के सभी धार्मिक समूहों पर समान रूप से लागू करने की मांग की. क्या इसका मतलब यह समझा जा सकता है कि भारत सरकार देश में धार्मिक आबादी के जनसांख्यिकीय संतुलन को बनाए रखने के लिए संविधान में निहित धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को वापस ले लेगी? यह एक गंभीर मुद्दा है और इसके लिए राष्ट्रीय स्तर पर बहस की आवश्यकता है क्योंकि यह नागरिकों के अधिकारों से संबंधित है, जिसे भागवत ने कम करने का सुझाव दिया है.

एनआरसी के लिए भागवत ने स्वयंसेवकों से “जनसांख्यिकीय असंतुलन” को खत्म करने के लिए “वैध कदम उठाने” के लिए कहा

सीमा पार बांग्लादेश से “अवैध घुसपैठ” हो रही है, यह आरोप लगाते हुए आरएसएस प्रमुख ने सरकार से “नागरिकों का एक राष्ट्रीय रजिस्टर (एनआरसी) तैयार करने और तथाकथित बांग्लादेशी प्रवासियों को नागरिकता अधिकार प्राप्त करने और भूमि खरीदने से रोकने के लिए कहा.”

भागवत ने देश को धार्मिक जनसांख्यिकीय असंतुलन से बचाने के “स्वयंसेवकों” से कानूनी कदम उठाने की अपील की. उन्होंने अखिल भारतीय कार्यकर्ता मंडल, या आरएसएस की अखिल भारतीय कार्यकारी समिति (एबीकेएम) के 2015 के एक प्रस्ताव का हवाला देते हुए यह अपील की. भागवत ने कहा कि प्रस्ताव में सभी स्वयंसेवकों सहित देशवासियों से इन जनसंख्या परिवर्तन के कारणों का संज्ञान लेने और जन जागरूकता पैदा करने और देश को इस जनसांख्यिकीय असंतुलन से बचाने के लिए सभी कानूनी कदम उठाने को अपना राष्ट्रीय कर्तव्य मानने का आह्वान किया गया था.

जनसांख्यिकीय असंतुलन को रोकने की अपनी अपील के समर्थन में अपने तर्क को सही ठहराने के लिए भागवत ने आरोप लगाया कि, “हिंदुओं के उत्पीड़न, बढ़ते अपराधीकरण और उन पर उन क्षेत्रों से बचने के लिए बढ़ते दबाव की खबरें थीं जहां असंतुलित जनसंख्या वृद्धि सामने आई थी. हालाँकि, भागवत एक भी उदाहरण देने में विफल रहे जहाँ हिंदुओं को सीमावर्ती क्षेत्रों में या कहीं और मुसलमानों के वर्चस्व वाले क्षेत्रों से भागने के लिए मजबूर किया गया हो.”

क्या जनसांख्यिकीय असंतुलन को नियंत्रित करना वैध है? क्या देश में जनसांख्यिकीय असंतुलन को रोकना राज्य या आरएसएस या उनके “स्वयंसेवकों” जैसे निजी समूहों का कार्य है? और “वैध कदम” का क्या मतलब है? जो भागवत ने अपने भाषण के संकल्प में कहा था. क्या जब कोई संगठन कानून को हाथ में लेगा तो इससे बड़े पैमाने पर कानून-व्यवस्था की समस्या उत्पन्न नहीं होगी?

क्या यह एक धर्म के लोगों को दूसरे धर्म के लोगों के खिलाफ भड़काने जैसा नहीं है? निजी व्यक्ति जनसांख्यिकीय असंतुलन को कैसे रोकेंगे? क्या कुछ लोगो के इस प्रकार कानून हाथ में ले लेने से नेल्ली नरसंहार जैसी दुर्घटनाएं दुबारा नहीं होंगी? असम का नेल्ली जहां 1983 में दो हज़ार से भी अधिक लोगों (अनौपचारिक आंकड़ों के अनुसार 10000 से अधिक) का नरसंहार किया गया था? आरएसएस ऐसे क्षेत्र में दखल दे रहा है जो उसका विषय ही नहीं है.

पड़ोसी देशों के गैर-मुसलमानों को नागरिकता प्रदान करने वाला नागरिकता (संशोधन) अधिनियम के बाद से एनआरसी एक विवादास्पद विषय बन गया है. हालांकि सरकार का दावा है कि सीएए भारतीय मुसलमानों के खिलाफ नहीं है. लेकिन जब इसे एनआरसी के साथ जोड़ा जाता है, तो सीएए के परिणामस्वरूप लाखों मुसलमानों को अपने ही देश में विदेशी बना दिया जाएगा यदि वे अपनी भारतीय नागरिकता साबित करने के लिए ज़रूरी दस्तावेजों की व्यवस्था करने में विफल रहे तो. चूंकि भारत में अशिक्षित लोग भी हैं, विशेष रूप से ग्रामीण क्षेत्रों, कस्बों और शहरों व झुग्गियों में, उनमें से अधिकांश एनआरसी में नागरिकता सिद्ध कर पाने में आवश्यक दस्तावेज एकत्र करने में सक्षम नहीं हैं.

इसके अलावा, ग्रामीण आबादी के बीच दस्तावेजों को संरक्षित करने की आदत नहीं होती है. ऐसे में इस कानून के शिकार केवल मुसलमान ही होंगे. जबकि यदि हिंदू, एनआरसी के लिए दस्तावेज़ प्रदान करने में विफल रहते हैं तो सीएए के प्रावधानों के कारण उन्हें भारतीय नागरिकता मिल जायेगी. केवल मुस्लिम ही घुसपैठिए घोषित किए जायेंगे.

इसीलिए मुसलमानों ने दिसंबर 2019 में सीएए के पारित होने पर आपत्ति जताई थी. मुस्लिम महिलाओं ने लगभग पांच महीनों तक पूरे देश में सीएए के खिलाफ शांतिपूर्ण धरना प्रदर्शन किया. हालांकि, कोरोना महामारी के प्रसार के कारण आंदोलन वापस ले लिया गया था. नए नागरिकता कानून को खारिज करने की मांग को लेकर दर्जनों याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट में पहले से ही लंबित हैं.

भागवत ने बंगाल की चुनावी हिंसा को जनसंख्या असंतुलन  का नतीजा बताया:

अपने संबोधन में, भागवत ने कहा कि पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनावों के बाद हुई हालिया हिंसा के लिए राज्य सरकार द्वारा “बर्बर तत्वों का तुष्टिकरण” और “जनसंख्या असंतुलन” को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. हालांकि, उन्होंने यह स्पष्ट नहीं किया कि “बर्बर तत्व” कौन थे.

भागवत ने जम्मू-कश्मीर के लोगों से ‘भावनात्मक एकीकरण’ का आह्वान किया

तालिबान के साथ चीन, पाकिस्तान और तुर्की के गठबंधन पर चिंता जताते हुए, आरएसएस प्रमुख ने शेष भारत के साथ जम्मू और कश्मीर के लोगों के भावनात्मक एकीकरण को तेज़ करने का आह्वान किया.

उन्होंने कहा कि, “तालिबान अक्सर कश्मीर का मुद्दा उठाता है और साथ ही शांति की भी बात करता है. भारत को इसे नजरंदाज़ करने की ज़रूरत नहीं है और रक्षा के लिए सैन्य रूप से तैयार रहना चाहिए.”

सरकार ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और देश को अस्थिर करने की क्षमता रखने वाले बिटकॉइन को नियंत्रित करे

उन्होंने सरकार से ओटीटी प्लेटफॉर्म्स और बिटकॉइन जैसी गुप्त मुद्रा को नियंत्रित करने के लिए कहा ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि देश विरोधी ताकतें देश की अर्थव्यवस्था को अस्थिर करने के लिए इन साधनों का उपयोग नहीं कर पाए.

भारतीय समाज में स्वाभिमान को जगाना

भागवत ने कहा कि वाणिज्य और व्यापार कोरोना महामारी के कम होने के साथ वापस अपनी पूर्व स्थिति में आ गया है, यह भारतीय समाज में हमारे ‘स्व’ या स्वयं या व्यक्तिगत पहचान के विश्वास और जागृति के नवीनीकरण का संकेत देता है. उन्होंने कहा कि राम जन्मभूमि मंदिर के लिए धन संग्रह अभियान के लिए “भारी और भक्तिपूर्ण” प्रतिक्रिया इसी जागृति का प्रमाण थी.

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