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Sunday, May 5, 2024
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यूपी को साम्प्रदायिकता की आग में धकेलने के प्रयासों के बीच मुसलमानों की परिपक्व प्रतिक्रिया

सैयद ख़लीक अहमद | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली | भारतीय राजनीति में महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले राज्य उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ हफ्तों से वास्तविक मुद्दों से ध्यान हटाने के लिए सुनियोजित ढंग से कुछ घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है.

राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो कोविड संकट में नाकाम हुई सरकार और अन्य मोर्चों पर योगी आदित्यनाथ सरकार की विफलताओं पर पर्दा डालने के लिए धार्मिक आधार पर समाज का ध्रुवीकरण करने का प्रयास किया जा रहा है.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार यह कवायद इसलिए की जा रही है क्योंकि 2022 के विधानसभा चुनाव में आठ महीने से भी कम समय बचा है.

राज्य सरकार के कुप्रबंधन से योगी सरकार की काफ़ी बदनामी हुई है, और राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी के खिलाफ लोगों में बेहद गुस्सा और नाराज़गी देखी जा रही है.

प्रयागराज में गंगा नदी में तैरते शवों और कुत्तों द्वारा शवों को नोचते वीडियो ने प्रशासन की छवि खराब कर दी है और राज्य सरकार और प्रशासन में अब लोगों का विश्वास नहीं रहा. श्मशान घाटों पर कोविड-19 से मरने वालों के शवों के उचित अंतिम संस्कार की पर्याप्त व्यवस्था नहीं होने से सरकार के खिलाफ लोगों का गुस्सा और बढ़ गया है. महामारी के दौरान लोगों को लगा कि सरकार हर प्रकार से नदारद है, यहां तक ​​​​कि हिंदू हित की बात करने वाले आरएसएस और भाजपा कार्यकर्ता भी पूरे परिदृश्य से गायब रहे.

कोविड -19 से मरने वाले हिंदुओ के शवों को श्मशान में ले जाने और उनका अंतिम संस्कार करने का काम मुस्लिम पड़ोसियों ने किया. राज्य की राजधानी लखनऊ, मेरठ और प्रयागराज जैसे कई बड़े शहरों में हिंदू शवों को शमसान तक ले जाने का काम करते हुए मुस्लिमों को देखा गया. जनता ने कहीं न कहीं यह महसूस किया कि सरकार संकट के समय अनुपस्थित रही.

तमाम नाकामियों के बीच योगी आदित्यनाथ की सरकार ने दावा किया कि प्रशासन ने राज्य में कोविड -19 रोगियों के इलाज के लिए कोई कसर बाकी नहीं छोड़ी. लेकिन सरकार इस दावे को लोगों में स्थापित करने में विफल ही रही क्योंकि अस्पतालों में ऑक्सीजन और दवाओं की कमी के कारण कई कोविड -19 रोगियों की मौत हो रही थी. सरकार आधिकारिक तौर पर राज्य में कोविड -19 से 22000 से अधिक मौतों होने का दावा करती है, लेकिन यह आंकड़े सच प्रतीत नहीं होते हैं क्योंकि छोटे शहर और ग्रामीण क्षेत्र जहां टेस्टिंग तक की सुविधा नहीं है वहां कोविड से होने वाली मौतों को आंकड़ों में गिना ही नहीं गया.

राज्य में ऑक्सीजन या चिकित्सा संसाधनों की कमी की शिकायत करने वाले अस्पतालों और लोगों को योगी सरकार ने कार्यवाही की धमकी दी. चार भाजपा विधायकों और तीन मंत्रियों – तकनीकी शिक्षा मंत्री कमल रानी वरुण, राजस्व और बाढ़ नियंत्रण राज्य मंत्री विजय कश्यप, और एक कैबिनेट मंत्री चेतन चौहान की कोविड से हुई मृत्यु ने यह उजागर किया कि राज्य मेडिकल सुविधाओं की इतनी कमी है कि मंत्री तक नहीं बच पा रहे हैं. सीतापुर के विधायक राकेश राठौर ने तो यहां तक कहा कि उन्हें डर है कि अगर उन्होंने कोविड -19 प्रबंधन मुद्दे पर सरकार की आलोचना की तो उनके खिलाफ देशद्रोह के आरोप लगाए जाएंगे.

फिरोज़ाबाद से भाजपा विधायक रामगोपाल लोध की कोविड संक्रमित पत्नी संध्या को आगरा के एक निजी अस्पताल में भर्ती नहीं किया गया क्योंकि विधायक का खुद फिरोज़ाबाद के एक अस्पताल में इलाज चल रहा था. अंत में आगरा के जिला मजिस्ट्रेट के हस्तक्षेप से उसे एक अस्पताल में बेड मिल पाया.

जिला पंचायत चुनावों में खराब प्रदर्शन के बाद कमजोर हुआ भाजपा का आत्मविश्वास, उसके गढ़ वाराणसी, अयोध्या और मथुरा में हार

भाजपा नेता सार्वजनिक रूप से यह स्वीकार करने के इच्छुक नहीं कि कोविड -19 संकट से निपटने में उनकी सरकार विफल रही है जबकि तथ्य यह है कि कोविड संकट में सरकार की नाकामी ने लोगों के बीच पार्टी की लोकप्रियता को बुरी तरह प्रभावित किया है और इससे योगी सरकार की छवि भी नकारात्मक हुई है. मई के पहले सप्ताह में जिला पंचायत चुनाव के परिणामों ने भी यही सिद्ध किया है.

भाजपा का दावा है कि उसके उम्मीदवारों ने जिला पंचायत वार्ड सदस्य सीटों में से केवल 900 पर जीत हासिल की, जिसका अर्थ है कि वह 2000 से अधिक सीटों पर चुनाव हार गई. बीजेपी के लिए सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि वह अपने गढ़ और पीएम नरेंद्र मोदी के लोकसभा क्षेत्र वाराणसी जिले में जिला पंचायत चुनाव हार गई.

मथुरा और अयोध्या जहां मंदिर का निर्माण के लिए भाजपा और विहिप ने संघर्ष किया वहां भी भाजपा जिला पंचायत चुनाव हार गई. वाराणसी वो क्षेत्र है जिसकी जनता ने पीएम मोदी को 2014 और 2019 में दो बार लोकसभा के लिए चुना, उसी वाराणसी में जिला पंचायत चुनाव में बीजेपी की हार अपने ही निर्वाचन क्षेत्र में पीएम की घटती लोकप्रियता को दर्शाती है. हालांकि यह कहना मुश्किल है कि इन घटनाक्रमों का आगामी विधानसभा चुनावों में पार्टी पर कितना असर पड़ेगा, लेकिन विधानसभा चुनाव शुरू होने से पहले इन सब कारणों ने निस्संदेह पार्टी के आत्मविश्वास को कमज़ोर किया है.

जाट-मुस्लिम राजनीतिक गठबंधन के उदय से पश्चिमी यूपी में भगवा पार्टी को खतरा

जाटों और मुसलमानों के राजनीतिक गठबंधन में विभाजन करके पश्चिमी यूपी में एक मजबूत आधार बनाने वाली भाजपा को राज्य के पश्चिमी हिस्से में एक चुनौतीपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ रहा है क्योंकि विवादित कृषि कानूनों के खिलाफ चल रहे किसान आंदोलन ने दोनों समुदायों को राजनीतिक रूप से एकजुट करने का काम किया है.

चौधरी चरण सिंह ने जाट-मुस्लिम गठबंधन को नया आयाम दिया था और इसी गठबंधन ने उनके बेटे चौधरी अजीत सिंह को राज्य और राष्ट्रीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाने में मदद की. किसान आंदोलन के कारण जाटों और मुसलमानों के राजनीतिक मंच पर एक बार फिर से एक साथ आ जाने से निस्संदेह भाजपा नेतृत्व में घबराहट पैदा हो गई है. भाजपा नेतृत्व भयभीत है क्योंकि जाट-मुस्लिम गठबंधन से भगवा पार्टी के राजनीतिक अस्तित्व को खतरा है.

आगरा से सहारनपुर तक पश्चिमी यूपी के जिलों में सदन की 403 सीटों में से 77 विधानसभा सीटें हैं. यदि चुनाव सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बिना संपन्न होते हैं तो पश्चिमी यूपी के जिलों में 26 प्रतिशत से अधिक मतदाता के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने वाले मुस्लिम चुनाव परिणाम तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे. पश्चिमी यूपी के जिलों मुज़फ्फरनगर, सहारनपुर, मेरठ, बिजनौर, मुरादाबाद, अमरोहा, रामपुर और बरेली में मुस्लिम आबादी 2011 की जनगणना के अनुसार 40.43 प्रतिशत हो गई है जोकि 1951 में 29.93 प्रतिशत थी.

शेष यूपी में मुस्लिम आबादी लगभग 19-20 प्रतिशत ही है. पश्चिमी बेल्ट में 12 से 14 प्रतिशत जाट हैं अतः दोनों समुदाय मिलकर एक मजबूत राजनीतिक ताकत बनाते हैं जो कि क्षेत्र में किसी भी राजनीतिक संगठन को हरा सकते हैं. चौधरी चरण सिंह के बनाए जाट-मुस्लिम गठबंधन और कुछ मुस्लिम नेताओं ने मिलकर भाजपा को इस क्षेत्र में एक लम्बे अरसे तक पैर जमाने से दूर रखा. लेकिन 1992 में बाबरी मस्जिद प्रकरण के बाद बढ़ती सांप्रदायिक राजनीति ने धीरे-धीरे भाजपा को अपने लिए एक समर्थन आधार बनाने और 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद एक प्रमुख राजनीतिक शक्ति के रूप में क्षेत्र में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में मदद की.

पूर्वी और मध्य यूपी के जिलों में कोविड -19 संकट के दौरान खराब व्यवस्था और जाटों और मुसलमानों के एक साथ आने से पश्चिमी यूपी में एक नए राजनीतिक समीकरण के उदय के कारण योगी आदित्यनाथ सरकार की लोकप्रियता में कमी आ रही है, इन दोनों कारणों से केंद्रीय भाजपा नेतृत्व आगामी विधानसभा चुनावों के बारे में चिंतित है.

भाजपा में ब्राह्मणों ने भी योगी सरकार के प्रति अपनी नाराज़गी व्यक्त की है, जिससे पार्टी के शीर्ष नेतृत्व में चिंता और बढ़ गई है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह एक कारण था कि विधानसभा चुनाव से पहले पीएम मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह यूपी में नेतृत्व बदलना चाहते थे, लेकिन योगी आरएसएस में अपनी मज़बूत स्वीकार्यता की मदद से बने रहने में कामयाब रहे, आरएसएस ने सलाह दी थी कि चुनाव से कुछ महीने पहले नेतृत्व बदलना राजनीतिक रूप से बुद्धिमानी नहीं है. लेकिन इस मुश्किल समय में भी जब कि सरकार को न केवल विपक्ष बल्कि उसके खुदके विधायकों और नेताओं की आलोचना का सामना करना पड़ रहा हो.

यूपी में बीजेपी में कोई दूसरा नेता भी नहीं है जो योगी की लोकप्रियता की बराबरी कर सके और उनकी जगह ले सके. इसलिए 2022 के विधानसभा चुनाव योगी के नेतृत्व में ही लड़ना बीजेपी और आरएसएस की मजबूरी है. नतीजतन, योगी न केवल राज्य में बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी पार्टी में मज़बूत होकर उभरे हैं, भाजपा में मोदी-शाह का गुट योगी के पर कतरने में विफल ही रहा है. मोदी-शाह खेमे के कड़े विरोध के बावजूद योगी के यूपी की राजनीति में मज़बूती से बने रहने से यूपी बीजेपी में योगी के खिलाफ असंतोष भी कम होना शुरू हो गया है,उनके मुख्य विरोधी और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य उनके साथ मतभेदो को कम करके संबंध सुधारने की कोशिश कर रहे हैं.

2022 के विधानसभा चुनाव और यूपी को साम्प्रदायिकता की आग में धकेलने का प्रयास

यूपी विधानसभा चुनावों में योगी पार्टी का नेतृत्व करेंगे, इसलिए चुनाव जीतना उनके लिए एक चुनौती साबित होगा और वो भी तब जबकि पार्टी ने मोदी की लोकप्रियता की लहर पर सवार होकर 2017 के विधानसभा चुनाव जीते हो. मोदी की लोकप्रियता को अब धक्का लगा है, जैसा कि पश्चिम बंगाल में भी अनुभव किया गया है, पश्चिम बंगाल चुनाव को मोदी बनाम ममता लड़ाई के रूप में पेश किया गया लेकिन वे ममता बनर्जी को हराने में विफल रहे.

इन परिस्थितियों में, योगी को 2022 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत सुनिश्चित करने के लिए कुछ करना होगा. निस्संदेह, योगी की “नकारात्मक छवि” को देखते हुए, विशेष रूप से कोविड -19 में नाकामी और राज्य में सभी मोर्चों पर राज्य सरकार की विफलता के कारण यह एक बड़ी ज़िम्मेदारी होगी. सुप्रीम कोर्ट द्वारा मंदिर के लिए बाबरी मस्जिद की ज़मीन दिए जाने के बाद के राम मंदिर जिसकी नींव योगी और पीएम मोदी की मौजूदगी में रखी गई थी, उसकी ज़मीन की खरीद में घोटाले ने भाजपा की छवि को और खराब कर दिया है, जबकि बीजेपी ने ही मंदिर आंदोलन का नेतृत्व किया था.

इसलिए योगी अगले विधानसभा चुनावों का सामना ऐसे माहौल में करेंगे, जहां उनके पास अपनी सरकार या केंद्र सरकार की उपलब्धियों के रूप में मतदाताओं के सामने पेश करने के लिए कुछ भी नहीं है. केंद्र कोविड -19 संकट से निपटने में अपनी भूमिका निभाने में बुरी तरह विफल रहा है. भारत दुनिया का दूसरा सबसे ज्यादा कोरोना प्रभावित देश है. भारत में 26 जून तक 3.02 करोड़ कोविड -19 संक्रमण और 3.94 लाख कोविड से होने वाली मौतें दर्ज की गई हैं.

मोदी शासन के दौरान उनकी नीतियों और महामारी के कारण बेरोज़गारी में वृद्धि ने गरीबी को बढ़ा दिया है। इसी समय, कई वस्तुओं – गेहूं, चावल, दाल, खाद्य तेल, एलपीजी, पेट्रोल और डीजल की कीमतों में 2014 के बाद से तेज वृद्धि देखी गई है. खाद्य तेल जैसी कई वस्तुओं की कीमतों में 100 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है और लगभग पेट्रोल और डीजल में 50 प्रतिशत. और कीमतों में वृद्धि उस समय हो रही है जब आर्थिक गतिविधियों में मंदी के कारण आबादी के एक बड़े हिस्से की आय में कमी आई है.

राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि बीजेपी का इतिहास है कि वह सांप्रदायिक तनाव को राजनीतिक सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करती रही है, इसलिए पार्टी यूपी चुनावों में भी मतदाताओं को जुटाने और अपने सभी घटक दलों को एक साथ रखने के लिए फिर से उसी रणनीति को दोहराने से नहीं कतराएगी. सवाल यह है कि सत्ता का सुख भोग रही पार्टी को ऐसे माहौल में क्या करना चाहिए? क्या 2022 के विधानसभा चुनाव और यूपी को साम्प्रदायिकता की आग में धकेलने का प्रयास किया जा रहा है?

मई-जून में यूपी में हुई सांप्रदायिक घटनाएं

विपक्षी दलों के नेता और राजनीतिक विश्लेषक यूपी में घटित हो रही सांप्रदायिक घटनाओं को लेकर यह नज़रिया रखते हैं कि चुनावों में भाजपा के द्वारा समर्थन हासिल करने के लिए सांप्रदायिक आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण करके राज्य के विभिन्न हिस्सों में सांप्रदायिक भड़काऊ घटनाओं को अंजाम दिया जा रहा है. विश्लेषकों के अनुसार इन सांप्रदायिक घटनाओं का उद्देश्य सरकार की विफलताएं हैं जिनकी वजह से लोगों में नाराज़गी है, उन्हें छिपाना है.

बाराबंकी जिले के राम स्नेही घाट पर स्थित 100 साल पुरानी एक मस्जिद को जिला प्रशासन ने कुछ हफ्ते पहले ढहा दिया था. इस घटना पर समाजवादी पार्टी के नेता और यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने कहा था कि यह निस्संदेह 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले सांप्रदायिक भावनाओं को भड़काने के लिए किया गया था.

गोरखपुर जिला प्रशासन द्वारा कानूनी प्रक्रियाओं का पालन किए बिना गोरखनाथ मंदिर के आसपास से एक दर्जन से अधिक मुस्लिम परिवारों को हटाने के प्रयास को भी सांप्रदायिक तनाव को भड़काने और लोगों को भाजपा के पक्ष में लामबंद करने के प्रयास के रूप में देखा गया था. हैरानी की बात यह है कि योगी खुद गोरखनाथ मंदिर के मुख्य पुजारी हैं. हालांकि स्थानीय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया में इस मुद्दे के व्यापक कवरेज के बाद प्रशासन अपनी योजनाओं को अंजाम देने में आगे नहीं बढ़ पाया है. यह पता नहीं चल पाया है कि सीएम ने खुद गोरखपुर मामले में हस्तक्षेप किया और प्रशासन को मुस्लिम परिवारों को अवैध रूप से हटाने से रोका. फिर भी, प्रशासन निश्चित रूप से उन मुस्लिम परिवारों को उनके घरों से फिलहाल नहीं हटाने के लिए प्रशंसा का पात्र है जहां वे 100 से अधिक वर्षों से रह रहे हैं और उनके पास ज़मीन का कानूनी स्वामित्व भी है.

पश्चिमी यूपी में भी कई जगहों पर सांप्रदायिक घटनाएं हुईं हैं. अलीगढ़ जिले के मुस्लिम बहुल नूरपुर गांव में कुछ तत्वों ने गांव की मस्जिद के सामने बारात निकालते समय गैर कानूनी तरीके से तेज़ संगीत बजाकर सांप्रदायिक दंगा भड़काने की कोशिश की. हैरानी की बात यह है कि कई हिंदू निवासियों ने अपने घरों के बाहर “घर बिकाऊ है” के बोर्ड लगा दिए, इस घटना की व्याख्या भी राजनीतिक विश्लेषकों ने एक विशेष पार्टी द्वारा राजनीतिक लाभ के लिए पूरे पश्चिमी यूपी में सांप्रदायिक तनाव को भड़काने के लिए की गई घटना के रूप में की.

गाज़ियाबाद के डासना देवी मंदिर के पुजारी यति नरसिंहानंद ने इस साल मार्च में दिल्ली के प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में पैगंबर मोहम्मद साहब के खिलाफ बेहद आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया था. पुलिस जांच के दौरान उसने खुले तौर पर आपत्तिजनक टिप्पणी करने की बात स्वीकार की. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि इसका उद्देश्य मुसलमानों को उकसाना और फिर सांप्रदायिक हिंसा को भड़काना प्रतीत होता है जैसा कि अतीत में राजनीतिक लाभ के लिए अक्सर चुनावों से पहले किया जाता रहा है.

हिंदुओं का इस्लाम में धर्मांतरण करने के आरोप में मोहम्मद उमर गौतम और काज़ी जहांगीर आलम कासमी की गिरफ्तारी से भी सांप्रदायिक तनाव पैदा होने की पूरी संभावना है. यह दोनों इस्लाम अपनाने वालों को सिर्फ़ कानूनी सहायता प्रदान कर रहे थे. फिर भी, उन पर राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम के तहत मामला दर्ज किया गया, और यूपी के मुख्यमंत्री ने अधिकारियों से उनकी संपत्तियों को जब्त करने को कहा है. जमात-ए-इस्लामी हिंद के उपाध्यक्ष, प्रोफेसर मोहम्मद सलीम इंजीनियर ने कहा कि “असल ज़मीनी मुद्दों से ध्यान हटाकर आने वाले यूपी विधानसभा चुनावों के लिए सांप्रदायिक माहौल बनाने की कोशिश है.”

उनकी गिरफ्तारी पर टिप्पणी करते हुए, प्रो. सलीम ने कहा कि, “उन्हें जिस प्रकार गिरफ्तार किया गया और गंभीर आरोपों में फंसाया गया और जिस तरह से मीडिया का एक वर्ग अति-प्रतिक्रियावादी बर्ताव कर रहा है, यह साफ तौर पर दर्शाता है कि राजनीतिक लाभ के लिए खौफ, नफरत और धमकी का माहौल बनाकर जनता की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का प्रयास किया जा रहा है. आठ महीने बाद होने वाले यूपी विधानसभा चुनाव के लिए जज़्बाती माहौल बना कर असल ज़मीनी मुद्दों से ध्यान हटाने की ऐसी कोशिशें निंदनीय हैं.”

उन्होंने आगे कहा कि, “एक लोकतांत्रिक देश में, कौन किसी को अपना धर्म बदलने के लिए मजबूर कर सकता है? इस्लाम जबरदस्ती धर्म परिवर्तन की बिल्कुल भी इजाज़त नहीं देता है. हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को अपनी पसंद का धर्म चुनने, अपनाने और प्रचार करने का अधिकार देता है. उसे कोई भी इस अधिकार से वंचित नहीं कर सकता. आतंकवाद के निराधार आरोप लगाना और एनएसए जैसे कड़े कानूनों को लागू करने की धमकी देना और संपत्ति जब्त करना, लोकतंत्र और भारतीय संविधान को चुनौती देने के समान है. ”

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. ज़फरुल इस्लाम खान ने भी इसी तरह के विचार व्यक्त किए हैं. उन्होंने कहा कि सत्ताधारी पार्टी द्वारा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति हेतु यूपी में माहौल को सांप्रदायिक बनाया जा रहा है.

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस मुशावरत (एआईएमएमएम) के अध्यक्ष नवेद हामिद ने भी गिरफ्तारी की आलोचना करते हुए कहा कि “यूपी सीएम का दो धर्म प्रचारकों के खिलाफ एनएसए लगाने का आदेश कानून का दुरुपयोग है.”

इसके अलावा भी यूपी में कई अन्य अशांति पैदा करने वाली सांप्रदायिक घटनाएं घटित हुई हैं.

मुसलमानों ने फासीवादी ताकतों का चारा बनने से इंकार कर दिया

इन नकारात्मक परिस्थितियों के बीच एक उम्मीद की किरण भी मौजूद है. मुसलमानों ने स्थिति को सांप्रदायिक बनाने में माहिर राजनीतिक रणनीतिकारों के झांसे में आने से इनकार कर दिया है, और वो हिंसक प्रतिक्रिया नहीं दे रहे हैं. मुसलमानों ने बहुत धैर्य दिखाया है और कानून को अपने हाथ में लेने से बचे हैं, जो उनकी राजनीतिक परिपक्वता को दर्शाता है.

मुसलमानों ने इनमें से किसी भी कार्रवाई के बारे में कोई भड़काऊ बयान जारी नहीं किया है. इस सब ने उन लोगों की योजनाओं पर पानी फेर दिया है जो पूरे राज्य में चुनावों से कुछ वक्त पहले सांप्रदायिक दंगों की योजना बना रहे हैं. गोरखपुर से लेकर बाराबंकी में मस्जिद गिराने से लेकर मोहम्मद उमर गौतम और काजी जहांगीर कासमी की गिरफ्तारी तक, मुसलमानों ने कानून को अपने हाथ में लेने के बजाय कानूनी सहारा लिया है.

राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, मुसलमानों द्वारा दिखाई गई राजनीतिक परिपक्वता ने सांप्रदायिक तनाव को बढ़ने से रोका है, यह परिपक्वता धार्मिक आधार पर मतदाताओं के ध्रुवीकरण को रोकने में मदद कर सकती है और विभाजनकारी ताकतों के उद्देश्य को विफल कर सकती है.

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