(झारखण्ड स्थापना दिवस पर शारिक अंसर का विशेष लेख)
शारिक अंसर
रांची | झारखण्ड बने 20 साल हो गए. आज पूरे प्रदेश में सादगी से स्थापना दिवस मनाया गया. वर्तमान में जेएमएम कांग्रेस गठबंधन की सरकार है. बीजेपी यहाँ लगभग 15 साल से अधिक सत्ता में रही लेकिन आज भी यह पिछड़े राज्यों का दंश झेल रहा है. यहाँ के लोग बदहाली और तंगी में जीवन जीने को मज़बूर हैं. लेकिन राजनैतिक फायदे के लिए इसका दोहन अब भी जारी है. झारखण्ड का नाम लेते ही जो चीज़ें सबसे पहले ज़ेहन में आती हैं वो यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, पेड़, पहाड़ और यहाँ की आदिवासी जनता और जल, जंगल, ज़मीन को लेकर उनकी आस्था और उन्हें बचाने के लिए उनका संघर्ष.
देश के कुल खनिज संपदा का 40 प्रतिशत से भी अधिक झारखण्ड में पाया जाता है. जिसमे कीमती यूरेनियम, ग्रेफाइट, सोना, ताँबा, बॉक्साइड, अभ्रख, लोहा, कोयला आदि है. इसमें लोहा, ताम्बा, माइका, कैनाइट आदि में ये देश का सबसे ज़्यादा उत्पादन करने वाला राज्य है. ये राज्य 30 प्रतिशत के क़रीब वनाच्छादित है जिसमे कीमती सागवान, शीशम आदि लकड़ियां पाई जाती हैं. पथरीली ज़मीन पेड़, पहाड़, जंगल और पानी की प्रचुर मात्रा और सस्ते श्रमिक किसी भी उद्योग के लिए ये महत्वपूर्ण है.
पहली निगाह में तो ये बात बहुत खुशनुमा लगती है लेकिन जब हम गहराई से निगाह डालते हैं तो पता चलता है कि यही प्राकृतिक सम्पदा की बहुलता ही झारखण्ड के लिए मुसीबत बन गई है. इस राज्य की अजीब विडम्बना है कि इतने सारे कीमती प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद भी यहाँ के लोग गरीबी में जी रहे हैं, बुनियादी विकास की जगह पिछड़ापन और बेबसी का आलम है. बल्कि यूँ कहा जाए कि इन धातुओं के यहाँ पाए जाने के कारण उनकी जीवन दशा ज़्यादा खराब हुई है. औद्योगीकरण और विकास के इस कॉकटेल में आम जनता, मज़दूर, किसान और गरीब लोग कहाँ हैं ये सवाल हमेशा कचोटता है.
70 साल के लंबे संघर्ष के बाद 15 नवम्बर 2000 को झारखण्ड अलग राज्य बना. झारखण्ड के आदिवासियों और दबे कुचले लोगों ने अलग राज्य के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया. ये लड़ाई ज़मीन के एक टुकड़े के लिए नहीं थी बल्कि ये लड़ाई अपने अस्तित्व, संस्कृति और परंपरा को बचाने की थी जो जल, जंगल और ज़मीन के साथ जुड़ा था. अलग राज्य बनाने के बाद लोग खुशहाली और उम्मीदों की एक नई रौशनी की आस में थे. लेकिन अलग झारखण्ड बनने के बाद सबसे ज़्यादा ज़ुल्म इन्ही प्राकृतिक संसाधनों की लूट को लेकर हुआ.
झारखण्ड ह्यूमन राइट्स मूवमेंट के एक आंकड़े के अनुसार यहाँ औद्योगीकरण के नाम पर तक़रीबन 100 से ज़्यादा एमओयू हुए हैं, जिसमे 4,67,240 का पूंजी निवेश किया गया और इस दौरान लगभग दो लाख एकड़ ज़मीन का अधिग्रहण किया गया जिसमे टाटा, मित्तल, हिंडाल्को, अम्बानी, भूषण, डालमिया और अब अडानी जैसे देश की बड़ी-बड़ी कंपनियों ने अपने प्लांट्स लगाए हैं. इनमे ज़्यादातर स्टील प्लांट्स, लोहा, एल्युमुनियम और तांबा के कारखाने थे जिस से लाखों लोग विस्थापित हुए और कई हज़ार लोग अब भी मुआवज़े और ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
कोइलकारी इलाके मे 1973 मे एक वृहत जल परियोजना से क़रीब डेढ लाख लोगों के विस्थापित होने आशंका थी. सरकार के पास विस्थापित लोगों के पुनर्वास के लिये कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी. लोगों ने इसके खिलाफ आंदोलन चलाया और एक लंबे आंदोलन के बाद 2008 में परियोजना के वापसी की घोषणा हुई. इसी तरह नेतरहाट के पास भी 1471 वर्ग किलोमीटर ज़मीन के अधिग्रहण से 245 गांव के 2,62,853 लोगों के विस्थापित होने का डर था. इसके खिलाफ भी अहिंसक आंदोलन, सत्याग्रह चलाया गया जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर गूँज सुनाई दी.
आज से ठीक आठ नव साल पहले, 1 अक्टूबर 2008 को जमशेदपुर स्थित कोहिनूर स्टील प्लांट में स्थानीय आदिवासियों ने इस लिए काम रुकवा दिया था क्योंकि उनकी खेती की ज़मीनों का अधिग्रहण किया गया था. न तो ठीक से मुआवज़े दिए गए न नौकरी. प्लांट की वजह से पर्यावरण में ज़बरदस्त असंतुलन हो गया था जिससे पानी, खेती और स्वास्थ बुरी तरह प्रभावित हो रहे थे.
विश्व प्रसिद्ध स्टील किंग लक्ष्मीनिवास मित्तल ने भी आर्सेलर-मित्तल ने भी तोरपा कामडेरा में 11000 एकड़ ज़मीन का अधिकरण किया जिसमे 8800 एकड़ ज़मीन में 12 मिलियन टन स्टील उत्पादन क्षमता का प्लांट बैठाया गया. 2400 एकड़ ज़मीन टाउनशिप प्लान के लिए रखी गयी. ग्रामीणों ने इसका विरोध शुरू किया क्योंकि ये ज़मीनें सीएनटी-एनपीटीका खुला उलंघन कर के ली गई थी जो कि आदिवासियों की थी और बिना आदिवासियों की सहमति के ज़मीन का हस्तांतरण नहीं हो सकता था. साथ ही खेती की ज़मीन होने के कारण भी उसका उपयोग औद्योगिक उत्पादन के लिए नहीं किया जा सकता था.
6 दिसम्बर 2008 में दुमका के काठीकुंड में दो आदिवासियों को मार दिया गया. यहाँ एक पॉवर प्रोजेक्ट के विरोध में गरीबों को ज़मीन से बेदखल कर दिया गया था. गरीबों ने ‘जान देंगे पर ज़मीन नहीं देंगे’ नारे के साथ अपनी शहादत दी. इसी तरह खरसावां में जुपिटर सीमेंट फैक्ट्री, रांची में एचइसी और नगड़ी में, रामगढ के गोला और अब हज़ारीबाग़ के बड़कागांव में विस्थापन को लेकर आन्दोलनों में लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी और बचे लोगों को अदालतों का चक्कर काटना पड़ रहा है. दरअसल आंदोलन के बाद बड़े पैमाने पर सामूहिक गिरफ्तारियां और अत्याचार का दौर शुरू होता है. बड़कागाँव केस में भी क़रीब 400- 500 लोगों पर मामला दर्ज किया गया और गिरफ्तारियों के लिए पुलिस दबिश से कई गांव के लोग डरे सहमे गांव छोड़ने पर मजबूर हुए.
दरअसल ऐसे विस्थापन के दर्द की कई दास्ताँ हैं यहाँ कई बार तो बेहद धोखाधड़ी करके आदिवासियों और किसानों की ज़मीन को हथियाने की कोशिश ये बड़ी बड़ी कंपनियां करती हैं और इसमें हमारी चुनी हुई सरकार भी इनको पूरा सहयोग करती है. ऐसा ही वाक़या नेगोसिया आदिवासियों के साथ हुआ था जब उनसे बैल और बकरी के नाम पर सरकारी अधिकारियों ने सादे कागज़ पर उनके अंगूठे के निशान ले लिए. बाद में नागोसिया के लोगों को पता चला कि उनसे ये लिखवाया गया है कि वे लोग अपनी ज़मीन हिंडाल्को कम्पनी को बाक्साइट खनन के लिए देने को तैयार हो गए हैं. इस लूट और धोखाधड़ी के विरुद्ध लंबे समय तक आंदोलन चला.
दरअसल ये सवाल हमेशा उठते रहे हैं कि सरकार या कंपनियों को यहाँ के लोग क्यों अपनी ज़मीन नहीं देना चाहते हैं? क्योंकि कई बार इनके साथ सुनियोजित तरीके से धोका किया गया. औद्योगीकरण के नाम पर हज़ारों लोग बेघर और सैकड़ों एकड़ ज़मीन से लोग वंचित हो गए. हर परियोजना में विस्थापित हुए लोगों में से केवल 25 प्रतिशत लोगों को ही नौकरी या मुआवज़ा मिल पाता है बाक़ी 75 प्रतिशत लोग अपनी मांगों के लिए ज़िन्दगी और मौत से जूझते रहते हैं.
राज्य की बदकिस्मती है कि इतने सारे उद्योगों का फ़ायदा केवल पूंजीपति वर्ग, कंपनी के दलाल, राजनेता और बिचौलिया ही उठाते हैं. राज्य की गरीब जनता अब भी बदतर ज़िन्दगी जीने को विवश है. सरकारी नीतियों में कुछ है और उसकी धरातल पर सच्चाई कुछ और है. देखना ये है कि सरकार की इन जन विरोधी नीतियों में कब बदलाव आएगा और यहाँ के लोग जिस खुशहाल राज्य के लिए सुनहरे ख्वाब देखे थे वो वास्तव में कब पूरा होगा ?
(शारिक अंसर एक सक्रीय सामाजिक कार्यकर्ता हैं और शिक्षा व मानवाधिकार के मुद्दों पर विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में लिखते रहते हैं.)