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Saturday, September 21, 2024
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बहुसंख्यक शोर में गुम होती अल्पसंख्यक आवाज़: भारत बाबरी के बाद

By- Shayma S

नई दिल्ली | भारतीय संविधान दुनिया के बाकी सभी संवैधानिक दस्तावेजों की तरह नागरिकों से किया गया एक वादा है. सीएए विरोधी प्रदर्शनों के दौरान शायर और एक्टिविस्ट आमिर अज़ीज़ ने एक न्यूज़ आउटलेट को दिए इंटरव्यू में भारत के विचार को एक ‘ख़्वाब’ कहा था. एक ऐसा ख़्वाब जिसके पूरे होने की कामना उनके दादा औऱ उनके पूर्वज बार-बार करते थे. सपनों की दुनिया भी बड़ी अजीब होती हैं, एक ऐसी दुनिया जहां अलग अलग विचारों और समूहों के लोग एक साथ रहते हैं बिल्कुल भारत देश के जैसे.

जब संविधान बनाया जा रहा था तब भारत एक वादा भी था और एक सपना भी था. हालांकि यह सपना एक अंधेरी सामाजिक और राजनीतिक वास्तविकता में घिरा हुआ था, जिसे डॉ अम्बेडकर ने भी संविधान सभा में अपने अंतिम भाषणों में “एक महान भ्रम” बताया था. उन्होंने अपने भाषण में अब्राहम लिंकन के एक वक्तव्य का ज़िक्र करते हुए कहा था कि “एक सदन जो अपने आप में विभाजित हो वो ज़्यादा दिन तक टिक नहीं सकता.”

अपनी पीढ़ी के कई अन्य दूरदर्शी नेताओं की तरह, डॉ. अम्बेडकर अच्छी तरह से जानते थे कि यह भारतीय वादा अर्थात भारतीय संविधान अगर सामाजिक और ज़मीनी स्तर पर जल्द से जल्द से पेश नहीं किया गया तो इसकी बुनियाद हिलती रहेगी. और डॉ. अम्बेडकर के ही शब्दों के अनुसार, सरकारों और नेताओं की क्रमिक पीढ़ियों, जो न सिर्फ स्वार्थी है बल्कि विनाशकारी भी है, ने देश को उस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है जहां संविधान की सिर्फ उपेक्षा की जाती है. उन्होंने इसकी तुलना वर्तमान की तूफानी हकीकत में फड़फड़ाते एक कागज़ के टुकड़े से की.

बाबरी से लेकर सीएए तक

हर साल की तरह बाबरी मस्जिद विध्वंस की बरसी इस साल फिर आई और चली गई. दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने जहां एक ओर मस्जिद के विध्वंस को कानून का उल्लंघन बताया वहीं उसी के साथ विवादित स्थल पर मंदिर के पक्ष में मालिकाना हक का फैसला भी दे दिया. विध्वंस के सबसे बुरे परिणामों को देखने वाली और उसे झेलने वाली पीढ़ी और एक पीढ़ी जो बुरे प्रभावों के उत्थान पर अस्तित्व में आई, गुजरात नरसंहार, यूएपीए और बढ़ते अपराध के दौर में पली बढ़ी, इन दोनों ही पीढ़ियों ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले की प्रतिक्रिया में सिर्फ मौन रहना चुना.

लेकिन इन घटनाक्रमों के तुरंत बाद सीएए और एनआरसी ने न्याय से वंचित करने के मौके बढ़ा दिए और समान नागरिकता के दावों को खुले आम खारिज कर दिया. निष्क्रिय और आत्म-पीड़ित के रूप में देखा जाने वाला एक समुदाय, अपने दुखों के लिए स्वयं को दोषी ठहराया जाने वाला, अपने “घेटो” के लिए ज़िम्मेदार ठहराया गया और जिसे लगातार द्वितीय श्रेणी की नागरिकता की ओर धकेला गया हो, उस समुदाय ने नागरिकता की एक शानदार अवधारणा पेश की जो आइवरी टावर में बैठकर नागरिकता की नीति बनाने वालों की शर्मसार करती है.

‘दिल की पुलिस’ के नाम से मशहूर पुलिस ने युवा छात्रों पर पुस्तकालयों में हमला किया और उन्हें पीटा. 1987 में जैसे हाशिमपुरा के पुरुषों को हाथ खड़े करवा मार्च करवाया गया था वैसे ही छात्रों के साथ विश्वविद्यालय कैम्पस में किया गया. ऐसा कुकृत्य करने वाली पुलिस के सामने दिल्ली की बूढ़ी और कमज़ोर औरतों को खड़े होने के लिए मजबूर होना पड़ा. इतिहास की यादें कभी धुंधली नहीं पड़ती, भले ही कोर्ट के फैसले इसे मिटाने की कोशिश ही क्यों न करें.

आखिर “घेटो” बनाता कौन है?

प्रवास, आंदोलन, विस्थापन, आदि ऐसे कारक हैं जो शहरों और स्थानों को आकार देने का काम करते हैं. उदाहरण के लिए, दिल्ली में ऐसे कई इलाके और मोहल्ले हैं जिन्हें सबसे पहले विभाजन के दौरान मुस्लिम निवासियों ने खाली कर दिया, फिर 1984 के दौरान सिख निवासियों ने छोड़ दिया, और अब वंचित तबकों व मज़दूर वर्ग के गरीबों की बेदखली, लिंचिंग और आर्थिक बहिष्कार द्वारा इन इलाकों को तेज़ी से उनकी पहुँच से दूर कर दिया गया है.

जेएनयू की प्रोफेसर ग़ज़ाला जमील ने अपने अध्ययन “अक्यूम्युलेशन एंड सेग्रेगेशन” में उल्लेख किया है कि समुदायों में असुरक्षा की भावना और राज्य की ओर से किया जाने वाला बहिष्कार ‘घेटों’ का निर्माण करते हैं, लेकिन मुसलमानों पर इल्ज़ाम लगाया जाता है कि वे उन घेटो से बाहर निकल कर कुछ बेहतर नहीं करना चाहते इसलिए वे वहीं बने रहते हैं.

इसी तरह, मुस्लिम छात्रों (और उनके माता-पिता) को अक्सर कट्टर और रूढ़ीवादी कहकर शिक्षा में ‘रुचि’ नहीं लेने और आगे की पढ़ाई न करने का इल्ज़ाम लगाया जाता है. मुस्लिम लड़कियों को लेकर धारणा बनाई जाती है कि ‘उलेमा’ के दबाव के कारण वे पढ़ाई बीच में छोड़ देती हैं. इनमें से किसी भी दावे को साबित करने के लिए कोई बैकअप या सबूत भी पेश नहीं किया जाता है.

गुड़गांव और सार्वजनिक व्यवस्था

पहले से ही हाशिए पर पड़े लोगों को उनके अपने बहिष्कार के लिए दोषी ठहराने के लिए संरचनात्मक वास्तविकताओं और कड़वी सच्चाईयों को दरकिनार कर दिया जाता है. अगर गुड़गांव के मुसलमान चाहते हैं कि उन पर हमला न किया जाए और उनकी नमाज़ के स्थान पर गोबर न फेंका जाए, तो उन्हें पार्कों में नमाज़ नहीं पढ़नी चाहिए. और इस सबके बीच जो सवाल गायब है वो यह है कि आखिर मस्जिदें कहाँ गई? वक्फ की ज़मीन पर किसने कब्ज़ा किया? (गुड़गांव में 22 मस्जिद स्थलों में से, 19 वक्फ नियंत्रण में हैं, कुछ जर्जर अवस्था में हैं या कुछ पर कब्ज़ा कर लिया गया है)

अगर किसी पास सिर पर छत वाली इमारत हो तो कोई पार्क में प्रार्थना करना क्यों पसंद करेगा? और अगर वे किसी पार्क में प्रार्थना करते भी हैं, तो यह ‘सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य’ को कैसे प्रभावित करता है? धर्म को स्वतंत्र रूप से मानने, प्रचार करने और अभ्यास करने के अधिकार पर निर्धारित तीन संवैधानिक शर्तें का क्या? यदि स्थानीय प्रशासन ने सप्ताह में एक बार किसी गतिविधि की अनुमति दी है, तो कट्टरपंथी समूहों को कार्रवाई करने की अनुमति किसने दे दी?

लेकिन इस मामले में गुड़गांव कोई अपवाद नहीं है. बहिष्कार और टारगेट करने के इस चलन के साथ साथ देश मे हिंसा भी बढ़ी है. अपने धर्म का अनुसरण करने पर मुस्लिमों पर हमले जारी हैं, ऐसे स्थान जहाँ अल्पसंख्यक ज़्यादा हैं वहां टारगेट करके निशाना बनाया जा रहा है. भौगोलिक सीमाओं की बात करके अल्पसंख्यकों को बाहरी बताया जा रहा है.

भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार की गारंटी देता है और इस अधिकार को हर मायने में एक मौलिक अधिकार भी मानता है. सार्वजनिक व्यवस्था, नैतिकता और स्वास्थ्य के संबंध में प्रतिबंध स्पष्ट हैं. लेकिन कई मामलों में उनका जानबूझकर दुरुपयोग किया गया है. धर्म परिवर्तन इसका प्रमुख उदाहरण है. हालांकि इस पर बहस भी हुई है, जैसे हादिया के मामले में हुआ . हादिया, केरल की एक होम्योपैथी की छात्रा, जिसने अपनी मर्ज़ी से इस्लाम धर्म अपनाया, और अपनी पसंद के एक मुस्लिम व्यक्ति से शादी की. हादिया के मामले में तर्क यह दिया गया था कि इस तरह के धर्म परिवर्तन ज़बरदस्ती करवाये जाते है और यह सार्वजनिक व्यवस्था को प्रभावित करते हैं.

जब 1981 में तमिलनाडु के एक गांव मीनाक्षीपुरम के आधे से अधिक लोगों ने इस्लाम धर्म ग्रहण किया, तो इसे राष्ट्रीय सार्वजनिक व्यवस्था के मुद्दे के रूप में देखा गया, न कि किसी सुदूर गांव की एक घटना के रूप में. दरगाह, जिसे उदारवादी बुद्धिजीवियों और नागरिक समाज द्वारा लंबे समय से ‘समन्वयता’ के एक स्थान के रूप में देखा जाता था और जहां अच्छी खासी तादाद में हिंदू भक्त भी आया करते थे, उन दरगाहों पर भी अब हमला किया जा रहा है, जैसे कि नीमच, मध्य प्रदेश में किया गया था. दक्षिणपंथी तत्वों ने कर्नाटक के हुबली और बेलगाम में संडे चर्च में भजन गाए, पुलिस ने स्पष्ट रूप से ईसाइयों से कहा है कि यदि वे हमलों से बचना चाहते हैं तो इकठ्ठा होने से बचें (फिर वही बात कि, आप पर होने वाली सभी हमलों के लिए आप स्वयं ज़िम्मेदार हैं.)

देश के अलग अलग हिस्सों में अलग अलग मामलों को ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ को नुकसान पहुंचाने वाली घटनाओं के रूप में देखा गया और उनसे जुड़े लोगों पर हमला भी किया गया. इन स्थानों और घटनाओं का आपस मे क्या सम्बन्ध है? कुछ साल पहले कर्नाटक में एक ईसाई महिला का मिशनरी का काम करते हुए एक वीडियो वायरल हुआ. वीडियो को गलत उद्देश्य के साथ वायरल किया गया था. वीडियो में महिला सड़क के एक कोने पर पर्चे बांटने का सीधा साधा कार्य कर रही थी, किसी को परेशान भी नहीं कर रही थी. एक अकेली महिला जिसके पास पैम्फलेट का एक बण्डल है और वो महिला भौतिक रूप से भी बहुत कम जगह घेर रही है, लेकिन फिर भी उसे परेशान किया गया और उसे वहां से भगा दिया गया.

अब यहां सवाल यह उठता है – क्या सार्वजनिक स्थानों पर अपने अलग धार्मिक विचारों और अपनी आस्थाओ का प्रचार या अनुसरण किया जाना भी अशांति पैदा करता है? और क्या यह चीज़ ‘मिशनरियों के सरकारी सर्वेक्षण’ (जैसा कि हाल ही में कर्नाटक में प्रस्तावित किया गया है) के लिए एक कानून बनाये जाने की ज़रूरत पैदा करती है? और क्या इन बातों को आधार बनाकर अल्पसंख्यक स्थानों पर अतिरिक्त-कानूनी हिंसा की भी अनुमति दी जानी चाहिए? सार्वजनिक व्यवस्था को आखिर नुकसान कौन पहुंचाता है? क्या चर्च जाने वाले छोटे बच्चों को निशाना बनाना या प्रार्थना स्थलों तक लोगों को जाने से रोकना सार्वजनिक व्यवस्था को भंग नहीं करता है? सीएए के विरोध में किये जा रहे शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के दौरान जब भीड़ को मुसलमानों पर हमला करने के लिए उकसाने वाले भाषण दिए गये, तब क्या उससे सार्वजनिक व्यवस्था भंग नहीं हुई थी, फिर अल्पसंख्यक धार्मिक स्थलों का अस्तित्व देश के कथित धर्मनिरपेक्ष सामाजिक ताने-बाने को कैसे नुकसान पहुंचा सकता है?

इतिहास और वर्तमान में विरोधाभास

यह जानने की उत्सुकता बनी हुई है कि कैसे एक संवैधानिक गणतंत्र में धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा के दावे के साथ अल्पसंख्यक धार्मिक समूहों के खिलाफ इस तरह के घोर विरोध की गुंजाइश बनी हुई है? भारतीय संविधान धर्म के स्थान को संकुचित या खारिज नहीं करता है. यूरोप के धर्मनिरपेक्ष मॉडल को खारिज करते हुए, भारतीय संविधान ने एक अनूठे प्रयोग को अपनाया जिसमे सभी धर्मों और उनके घटकों के साथ राज्य समान व्यवहार करेगा और भारतीय समाज में धर्म को उसके महत्व के साथ मान्यता देगा.

संविधान सभा धर्मांतरण, गौरक्षा और अल्पसंख्यकों के अधिकारों जैसे मुद्दों को लेकर व्याप्त गहरी चिंताओं पर भी बहस करती है, यह ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें न्याय की भावना से संबोधित ही नहीं किया गया था और अल्पसंख्यकों की ज़रूरतों को समझने का भी प्रयास नहीं किया गया. उन मुद्दों को एक समस्या न मानकर बस एक धार्मिक प्रथा की तरह ही देखा गया. कई मुस्लिम और ईसाई नेताओं ने अपनी ज़रूरतों और चिंताओं को व्यक्त करने की भी कोशिश की.

लेकिन क्योंकि उस समय की बहुसंख्यक भावनाएँ संकट में एकता और एक अखण्ड राष्ट्रीय पहचान को ही महत्व देती थी, ऐसे में धार्मिक प्रतिनिधित्व की किसी भी वास्तविक हकीकत पर राष्ट्रवाद की वो भावनाएं हावी हो गयी. डॉ प्रीतम सिंह ने संविधान और उसके बाद के प्रमुख कानूनों के अपने अध्ययन ‘हिंदू पूर्वाग्रह’ में कहते हैं कि मुस्लिम और ईसाई नेताओं के संघर्षों के साथ-साथ डॉ अम्बेडकर जैसे लोगों के संघर्षों के बावजूद भारतीय संविधान में दूसरों के ऊपर हिंदुओं को महत्व दिया गया है. उदाहरण के लिए :- चाहे वह भारत शब्द का उपयोग हो, यूनियन के ऊपर फेडरेशन शब्द का उपयोग (बाद वाले शब्द ने मुस्लिम समूहों की कई मांगों को संबोधित करने की अनुमति दी होगी), अनुच्छेद 25 के तहत सिख धर्म और जैन धर्म को हिंदू धर्म में एक साथ जोड़ना वो भी इन समुदायों की इच्छा के विरुद्ध, लगातार विरोध के बावजूद गाय संरक्षण और हिंदी पर ज़ोर, स्पष्ट रूप से इस्लाम और ईसाई धर्म को ‘गैर-भारतीय’ धर्म मानने वाले हिंदू कोड बिल, जिसके अनुसार इन धर्मों को अपनाने पर कुछ मामलों में तलाक या संपत्ति से वंचित किये जाने का उचित आधार बनता है.

लेकिन फिर भी इन सबके बावजूद संविधान भारत में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए एक रक्षा कवच के समान है. लेकिन संविधान की मूल भावना का उल्लंघन करते हुए, कुछ सांसदों और राजनीतिक संगठनों ने संविधान की कुछ कमियां पकड़ ली हैं जो संविधान के निर्माण में अंतर्निहित हैं और उन कमियों को आधार बनाकर कई निर्णय दिये गए हैं. इसका सबसे स्पष्ट दुष्परिणाम जो दिखाई देता है वो यह है कि आज अल्पसंख्यकों, विशेष रूप से मुसलमानों के खिलाफ कट्टरपंथी समूहों द्वारा धर्म की रक्षा के नाम पर हिंसा की जा रही है, और ऐसी धारणा बनाई जा रही है जिसके अनुसार मुसलमान देशद्रोही और विदेशी आक्रमणकारी है, इसलिए यह भारत भूमि उनकी कभी भी नहीं हो सकती है. साथ ही मुस्लिमों के बहिष्कार को वैध बनाने के लिए कानून बनाये जा रहे हैं, ऐसे कानून जो नागरिकता को अलग तरह से परिभाषित करते हैं, लव जिहाद और जनसंख्या वृद्धि के झूठे प्रोपेगेंडा को फैलाते हैं, और मुस्लिम नागरिकों को उनके सबसे बुनियादी आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक अधिकारों से वंचित करने का काम अंजाम देते हैं.

न्याय की पुनर्स्थापना और बेहतर भविष्य का पुनर्निर्माण

हाल ही में, गुड़गांव के कई गुरुद्वारों ने मुसलमानों को नमाज़ अदा करने के लिए जगह की पेशकश की. इस पर दो तरह की प्रतिक्रियाएँ सामने आई थीं. एक तो प्रमुख रूप से प्रशंसा और कृतज्ञता की भावना और दूसरी प्रतिक्रिया के अनुसार अस्वीकार किया गया था क्योंकि यह समस्या का वास्तविक या दीर्घकालिक समाधान नहीं था, और मुसलमानों को अपनी खुद की मस्जिदों और वक्फ भूमि को सुरक्षित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.

हालांकि दूसरी प्रतिक्रिया के निर्विवाद रूप से उचित होने और दबाव के कारण प्रस्ताव को रद्द कर दिया गया था, लेकिन उस प्रस्ताव ने एकता की एक मिसाल तो पेश कर दी थी. फूट डालो और राज करो की औपनिवेशिक नीति को आज के संदर्भ में फिर से लागू करने के लिए यह किया जाता है कि पहले तो अल्पसंख्यकों को सरकारी योजनाओं और फेलोशिप (उनकी अलग-अलग ज़रूरतों पर थोड़ा ध्यान देने के साथ) के उद्देश्य से एक साथ जोड़ा जाता है, फिर उन्हें सक्रिय रूप से एक दूसरे के खिलाफ किया जा रहा है.

मुस्लिमों के खिलाफ दुष्प्रचार, हिंसा के बढ़ते मामलों और गैर-मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच इस्लामोफोबिया के सक्रिय प्रसार का मतलब है कि व्यापक आंदोलनों के बावजूद, ज़मीनी स्तर पर एक-दूसरे की ज़रूरतों के बारे में बहुत कम एकजुटता या सही समझ मौजूद है. ‘अच्छे’ अल्पसंख्यकों और ‘बुरे’ अल्पसंख्यकों के नाम पर झूठ फैलाना वर्तमान सरकार और उनसे पहले के लोगों का एक ऐसा कौशल है जिसमें वह निपुण हैं. इसलिए जहां हमें एक ओर मुस्लिम धार्मिक स्थानों की सुरक्षा के मुद्दों के कानूनी, राजनीतिक और सामाजिक समाधान तलाशने होंगे, वहीं हमें दूसरे अल्पसंख्यकों के साथ-साथ ऐतिहासिक रूप से शोषित समूहों के साथ संवाद के मार्ग भी तैयार करने होंगे ताकि सिर्फ एक जगह पर ही नहीं बल्कि पूरे भारत में सभी धार्मिक स्थान, प्रतीक, और उनके अस्तित्व को सुरक्षित करने का एक तरीका खोजा जा सके. संविधान के लिए यह सबसे ज़रूरी काम हैं जो किये जाने चाहिए.

(लेखिका सेंटर फॉर स्टडीज इन लॉ एंड गवर्नेंस, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में रिसर्च स्कॉलर हैं)

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