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Friday, May 24, 2024
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कुणाल कामरा केस: अटॉर्नी जनरल से अनुमति मिल जाने मात्र से कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट साबित नहीं होता

अहमद क़ासिम | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली | कॉमेडियन कुणाल कामरा द्वारा सुप्रीम कोर्ट के ख़िलाफ़ कथित अपमानजनक ट्वीट करने पर अटॉर्नी जनरल के.के वेणुगोपाल ने न्यायालय की अवमानना का मामला चलाने की अनुमति दी है.

कुणाल कामरा ने रिपब्लिक टीवी के प्रधान संपादक अर्नब गोस्वामी को सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम ज़मानत मिलने के बाद अपने ट्विटर हैंडल से कई ट्वीट किए थे जिसपर आपत्ति जताते हुए कुछ वकीलों ने अटॉर्नी जनरल को पत्र लिखकर कुणाल कामरा के ट्वीटस को न्यायालय की अवमानना बताते हुए कार्यवाही की अनुमति मांगी थी.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील अनस तनवीर कहते हैं कि, “अटॉर्नी जनरल से अनुमति मिल जाने से कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट है ये साबित नही हो जाता बल्कि यह एक प्रक्रिया है जिसके तहत अटॉर्नी जनरल ने अनुमति दी है.”

अधिवक्ता फवाज़ शाहीन प्रशांत भूषण केस का ज़िक्र करते हुए इंडिया टुमारो को बताते हैं कि, “अवमानना का सही मतलब है कोर्ट के किसी निर्णय को नहीं मानना, कोर्ट की कार्यवाही के दौरान बाधा डालना, या ऐसा कार्य जिससे सीधे तौर पर कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचती हो.”

ज्ञात हो कि कुणाल कामरा ने अर्नब गोस्वामी को मिली अंतरिम ज़मानत के बाद अपनी पहली प्रतिक्रिया में ट्विट करते हुए लिखा था कि- “देश की सबसे बड़ी अदालत देश का सबसे बड़ा मज़ाक है.”

अटॉनी जनरल के.के वेणुगोपाल उनके खिलाफ अदालत की अवमानना के तहत कार्यवाही का आदेश देते हुए कहा कि, “यह ट्वीट सुप्रीम कोर्ट और इसके न्‍यायाधीधों की निष्‍ठा का घोर अपमान है.”

कुणाल कामरा ने ट्वीट किया:

कुणाल ने दूसरे ट्वीट में लिखा- डीवाई चंद्रचूड़ एक फ्लाइट अटेंडेंट हैं, जो प्रथम श्रेणी के यात्रियों को शैम्पेन ऑफर कर रहे हैं क्योंकि वो फास्ट ट्रैक्ड हैं. जबकि सामान्य लोगों को यह भी नहीं पता कि वो कभी फ्लाइट चढ़ या बैठ भी सकेंगे, सर्व करने की तो बात ही नहीं है.

कुणाल कामरा ने सुप्रीम कोर्ट को लेकर ऐसे ट्विट क्यों किए ?

गौरतलब की जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने अभिव्यक्ति की आज़ादी का हवाला देते हुए पत्रकार अर्नब गोस्वामी को 8 दिन के भीतर अंतरिम ज़मानत दे दी है. कुणाल कामरा ने अपने एक अन्य ट्विट के ज़रिए अर्नब को लेकर चल रही सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही के दौरान केरल के पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन का ज़िक्र किया था.

कौन हैं सिद्दीक कप्पन?

सिद्दीक कप्पन एक पत्रकार हैं जिन्हें रिपोर्टिंग के लिए हाथरस जाते हुए गिरफ्तार किया गया था और उन पर उत्तर प्रदेश पुलिस ने UAPA के तहत मामला दर्ज किया है. वह डेढ़ महीनों से हिरासत में हैं. जर्नलिस्ट यूनियन ने उनकी जमानत के लिए सुप्रीम कोर्ट में हैबियस कॉर्पस की याचिका दी है. इससे पूर्व सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि उन्हें उचित कोर्ट में जाना चाहिए.

कुणाल कामरा के इन ट्वीट्स का समर्थन करते हुए सोशल मीडिया पर लिखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर इतना गम्भीर है तो सुप्रीम कोर्ट में हाथरस की घटना को कवर करने जा रहे पत्रकार सिद्दीक़ कप्पन की गिरफ्तारी पर सुनवाई को क्यों टाल दिया जाता है ?

अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा करना अदालत का काम है: सुप्रीम कोर्ट

जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ ने कहा कि अभिव्यक्ति की आजादी की रक्षा करना अदालत का काम है. वहीं महाराष्ट्र सरकार के वकील कपिल सिब्बल ने कार्यवाही के दौरान कवि वरवरा राव का ज़िक्र करते हुए कहा कि, “उन्हें यूएपीए के तहत गिरफ्तार किया गया था. वह 79 साल के हैं और बीमार हैं. दो साल से ज़मानत का इंतजार कर रहे हैं. उनके परिवार का कहना है कि वह अब वॉशरूम तक जाने में भी सक्षम नहीं हैं.”

ऐसे में सवाल उठता है कि अदालत आखिर किस अभिव्यक्ति की आज़ादी की बात कर रही है ? क्या अर्नब को 8 दिन में रिहाई और अन्य पत्रकार और समाजिक कार्यकर्ताओं की सुनवाई ही ना करना अदालत का सलेक्टिव रवय्या नही है ?

कुणाल कामरा का कहना है कि सुप्रीम कोर्ट ने अन्य मामलों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मामलों पर चुप्पी बनाए रखी. उन्होंने अदालतों को सुझाव दिया कि उनके अवमानना याचिका की सुनवाई पर समय खराब किए बिना इस समय को नोटबंदी के खिलाफ याचिकाएं और जम्मू कश्मीर के विशेष दर्जे को बहाल करने जैसे अन्य मामलों की सुनवाई पर लगाया जाना चाहिए.

कामरा ने अवमानना की कार्रवाई शुरू होने पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि मैंने जो भी ट्वीट किए हैं वे सुप्रीम कोर्ट के एक ‘प्राइम टाइम लाउडस्‍पीकर’ (अर्णब गोस्वामी) के पक्ष में दिए गए पक्षपाती फैसले के प्रति मेरा दृष्टिकोण था.

इस मामले में क्या है लोगों की राय?

अदालत की अवमानना के इस मामले पर प्रतिक्रिया देते हुए  क्विल फाउंडेशन के सदस्य और एडवोकेट फवाज़ शाहीन कहते हैं कि सुप्रीम कोर्ट को अवमानना से आहत होने से ज़्यादा इस बिंदु पर सोचना चाहिए कि ऐसा क्यों हो रहा है? जिस व्यक्ति पर अवमानना का मुकदमा दर्ज किया गया है उसने अवमानना क्यों की है ?

अब कुणाल कामरा ने अटॉर्नी जनरल के.के वेणुगोपाल के नाम सोशल मीडिया पर एक खुला ख़त लिखकर अपनी प्रतिक्रिया दी है.

उन्होंने लिखा कि मैंने हाल ही में जो ट्वीट किए थे उन्हें न्यायालय की अवमानना माना गया है. मैंने जो भी ट्वीट किए वो सुप्रीम कोर्ट के उस पक्षपातपूर्ण फ़ैसले के बारे में मेरे विचार थे जो अदालत ने प्राइम टाइम लाउडस्पीकर के लिए दिए थे.

उन्होंने कहा, “दूसरों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता से जुड़े मामलों पर सुप्रीम कोर्ट की चुप्पी की आलोचना न हो, ऐसा नहीं हो सकता.”

माफ़ी मांगने से इंकार करते हुए कामरा ने कहा, “मेरा अपने ट्वीट्स को वापस लेने या उनके लिए माफ़ी माँगने का कोई इरादा नहीं है. मेरा यक़ीन है कि मेरे ट्वीट्स ख़ुद अपना पक्ष बख़ूबी रखते हैं.”

अदालत की अवमानना पर क्या कहता है कानून?

न्यायालय का अवमानना अधिनियम, 1971 के अनुसार, न्यायालय की अवमानना का अर्थ किसी न्यायालय की गरिमा एवं उसके अधिकारों के प्रति अनादर प्रदर्शित करना है. इस अधिनियम में अवमानना को ‘सिविल’ और ‘आपराधिक’ अवमानना में बांटा गया है. सिविल अवमानना के तहत न्यायालय के किसी निर्णय, डिक्री, आदेश, रिट, अथवा अन्य किसी प्रक्रिया की जान बूझकर की गई अवज्ञा या उल्लंघन के मामले आते हैं.

आपराधिक अवमानना के तहत न्यायालय से जुड़ी किसी ऐसी बात के प्रकाशन से है, जो लिखित, मौखिक, चिह्नित, चित्रित या किसी अन्य तरीके से न्यायालय की अवमानना करती हो. हालांकि, किसी मामले में निर्दोष साबित होने पर की गई टिप्पणी, न्यायिक कृत्यों की निष्पक्ष और उचित आलोचना एवं न्यायालय के प्रशासनिक पक्ष पर टिप्पणी करना न्यायालय की अवमानना के अंतर्गत नहीं आता है.

सोशल मीडिया ट्रेंड के दौरान यूजर्स विरोध और समर्थन में लिख रहे हैं जिनमें कुछ का कहना है कि अदालत का मज़ाक बनाना लोकतंत्र को कमज़ोर करना है वहीं कुछ इसे कमज़ोर होती न्याय-व्यवस्था पर कटाक्ष मानते हैं. सोशल मीडिया पर न्यायलय के सम्मान और अपमान की बहस के बीच यह बिंदु भी निकल कर सामने आ रहा है कि हज़ारों पेंडिंग और अंडर ट्रायल केसेज़ की लिस्ट को अनसुना करते हुए क्यों देश की अदालतें चुनिंदा मामलों में गम्भीर दिखाई देती हैं? सवाल यह भी है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के असल मायने क्या हैं ?

अब आगे क्या होगा ?

अधिवक्ता फवाज़ शाहीन प्रशांत भूषण केस का ज़िक्र करते हुए इंडिया टुमारो को बताते हैं कि अदालत की अवमानना का दायरा बहुत सिकुड़ता जा रहा है. अवमानना का सही मतलब कोर्ट के किसी निर्णय को ना मानना, कोर्ट की कार्यवाही के दौरान बाधा डालना, या ऐसा कार्य जिससे सीधे तौर पर कोर्ट की गरिमा को ठेस पहुंचती है, होता है.

इस सवाल पर कि, कुणाल कामरा ने माफी मांगने और वकील रखने से इंकार कर दिया है ऐसी स्थिति में कानूनन कार्यवाही किस तरह आगे बढ़ेगी, फवाज़ शाहीन बताते हैं कि अदालत की अवमानना के केस में माफी मांग लिए जाने की स्थिति से लेकर 6 महीने की सज़ा और जुर्माने का प्रवाधान है.

उन्होंने कहा, “प्रशांत भूषण केस में एक रुपया का जुर्माना इस स्थिति के साथ लगाया गया था कि वह ऐसा नही करते हैं तो उन्हें 6 महीने जेल के भीतर बिताने होंगे. बाद में प्रशांत भूषण ने एक रुपया जुर्माना अदा कर दिया था. अब कुणाल कामरा के सामने कोर्ट क्या स्थिति रखता है यह देखना दिलचस्प होगा.

कुणाल कामरा स्टैंड-अप कॉमेडियन है,लगातार यह बिंदु बहस का मुद्दा रहा है कि एक कॉमेडियन के ज़रिए किए जा रहे राजनीतिक कटाक्ष की सीमा क्या होगी? इन दिनों लगातार स्टैंड-अप कॉमेडियन्स नेताओं, सरकारी-नीतियों, रोज़गार जैसे मुद्दों पर राजनीतिक कटाक्ष करते रहे हैं. ऐसे में कुणाल कामरा के ट्वीट्स को इस तरह लिया जाना इस बहस को बढ़ाने के लिए काफी होगा.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए सुप्रीम कोर्ट के वकील अनस तनवीर कहते हैं कि, “अटॉर्नी जनरल से अनुमति मिल जाने से कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट है ये साबित नही हो जाता बल्कि यह एक प्रक्रिया है जिसके तहत अटॉर्नी जनरल ने अनुमति दी है.”

अधिवक्ता अनस आगे कहते हैं, “मुझे नहीं लगता कि इस केस में ज़्यादा कुछ हो पाएगा लेकिन प्रक्रिया यही है जिसके तहत याचिकाकर्ता अपना पक्ष कोर्ट में रखेंगे और कोर्ट आगे तय करेगा कि यह अदालत की अवमानना है या नहीं?”

उन्होंने कहा कि, “हमें यह समझना होगा कि यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता तो है लेकिन इसके साथ ही अदालत की अवमानना का कानुन भी है. आप अदालत के निर्णयों से असहमत हो सकते हैं लेकिन अदालत का मज़ाक बनाना उन लोगों की नज़र में अदालत की अवमानना है जो इसमें विश्वास रखते हैं.”

अनस तनवीर कहते हैं कि कुणाल कामरा एक कॉमेडियन हैं और उन्होंने अपने उसी अंदाज़ में ट्विट कर अपनी प्रतक्रिया साझा की है लेकिन इस बिंदु से हटकर अगर हम इस मामले को देखते हैं तो यह अदालत की अवमानना ही लगता है.

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