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Sunday, September 8, 2024
Home देश आप का एक वोट जिसने देश के सिकुड़ते लोकतंत्र को बचा लिया

आप का एक वोट जिसने देश के सिकुड़ते लोकतंत्र को बचा लिया

-मलिक मोतसिम ख़ान

हाल ही में संपन्न हुए 2024 के लोकसभा चुनाव में 65.79% मतदान हुए, यानी 64.2 करोड़ लोगों ने अपने मताधिकार का प्रयोग किया। इसने एक मज़बूत लोकतंत्र का संकेत दिया और साबित किया कि भारतीय मतदाता अपने वोट की ताकत में विश्वास करते हैं और अपनी समस्याओं को दूर करने और अपने राष्ट्र के भविष्य को नया आकार देने के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर भरोसा करते हैं। तो, भारत के लोगों की क्या समस्याएं और चिंता थी और मतदाताओं ने अपने वोट के माध्यम से क्या संदेश दिया?

अमेरिकी राजनीतिक वैज्ञानिक, जेम्स क्यू विल्सन का सिद्धांत है कि “जब मतदाता अधिक ध्रुवीकरण का शिकार हो जाते हैं, तो मध्य मार्ग (सैद्धांतिक रास्ता) तंग हो जाता है, जिससे राजनीतिक संघर्ष बढ़ जाता है और सरकारी प्रभाव और असर कम हो जाता है।

पिछले दस वर्षों में नफरत और विभाजनकारी शक्तियों द्वारा देश में ध्रुवीकरण करने, ‘सत्ता से सच बोलने’ का प्रयास करने वाले किसी भी व्यक्ति को कुचलने और यहां तक कि हमारे संविधान के मूल सिद्धांत को बदलने के प्रयास देखे गए हैं।

इस पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए, चुनाव परिणाम ने उस ध्रुवीकरण संबंधी बयानबाजी और विभाजनकारी राजनीति को नकारने का संकेत दिया है जिसे देश के राजनीतिक पटल पर थोपने की कोशिश की गई थी। भारत के लोगों ने अपने संविधान, अपनी सामाजिक एकजुटता और राष्ट्र निर्माण के लिए तंग होते आवश्यक रास्तों (लोकतंत्र) को बचाए रखने के लिए मतदान किया।

चुनाव अभियान के दौरान नेताओं द्वारा आम सभाओं में इस्तेमाल की गई विभाजनकारी और ध्रुवीकरण को बढ़ावा देने वाली बयानबाज़ी अप्रिय तो थी ही, साथ ही सभ्य भाषा के सभी मानकों के निचले स्तर पर थी। सत्ता के उच्च पदों पर बैठे लोगों द्वारा धार्मिक और सांप्रदायिक भावनाओं को हवा देने और जनता की भावनाओं को भड़काने के प्रयास शर्मनाक था।

मतदाताओं द्वारा उस विभाजनकारी एजेंडे को अस्वीकार करने से पता चलता है कि मतदाता ध्रुवीकरण की राजनीति से आगे बढ़ चुके हैं और विकास और सामाजिक न्याय जैसे मुद्दों को प्राथमिकता दे रहे हैं।

यह मतदाताओं की परिपक्वता का प्रमाण है कि उन्होंने मज़बूती के साथ नफरत और विभाजन को नकार दिया और स्पष्ट रूप से उन राजनेताओं के लिए अपनी प्राथमिकता व्यक्त की जो सांप्रदायिक सद्भाव में विश्वास करते हैं और ईमानदारी से विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाकर आम आदमी के ‘रोज़ी -रोटी’ के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने का वादा करते हैं।

इस जनादेश से राजनीतिक दल क्या सबक सीख सकते हैं? सबसे महत्वपूर्ण सबक है नफरत, सांप्रदायिक और जाति विभाजन, रूढ़िवादिता, और आरोपों की राजनीति से दूर रहना। यह ज़रूरी है कि चरम पूंजीवादी नीति निर्माण को छोड़ दिया जाएं और इसके बजाय एक ऐसे समाज के निर्माण पर ध्यान केंद्रित किया जाए जहां हर कोई धर्म, जाति और आस्था की विभिन्नता के बावजूद स्वयं को मूल्यवान और सम्मानित महसूस करे।

सत्तारूढ़ दल और कैबिनेट को मतदाताओं के स्पष्ट संदेश पर ध्यान देने की ज़रूरत है। यह आत्मनिरीक्षण करने, परिपक्व, पारदर्शी सुधार अपनाने और अपने आचरण और नीतियों में अधिक ज़िम्मेदार व्यवहार प्रदर्शित करने का समय है। उन्हें भारतीय समाज की विविधतापूर्ण, बहुलवादी और बहुसांस्कृतिक प्रकृति के प्रति अधिक संवेदनशील होना सीखना चाहिए।

इसके अतिरिक्त, उन्हें भारत के संविधान की समावेशी, संघीय, न्याय-उन्मुख और कल्याणकारी दृष्टिकोण पर गहरी समझ विकसित करने की आवश्यकता है, जो समानता और भाईचारे पर ज़ोर देती है। नई सरकार को राजनीतिक या वैचारिक विरोधियों के खिलाफ राज्य मशीनरी और संवैधानिक संस्थाओं के दुरुपयोग को समाप्त करना होगा। इस तरह की प्रथाएं लोकतंत्र के सिद्धांतों को कमज़ोर करती हैं और हमारी संस्थाओं में जनता का विश्वास कम करती हैं।

गठबंधन सरकारों के पास ऐसी नीतियां होती हैं जो जनता के व्यापक हितों और दृष्टिकोण को समायोजित करने की आवश्यकता के कारण अधिक समावेशी होती हैं। यह एक ऐसे शासन की ओर ले जाता है जो लोगों की आकांक्षाओं के प्रति अधिक संतुलित और जवाबदेह हो। यह विभिन्न राजनीतिक दलों के बीच आम सहमति और सहयोग की मांग करता है।

क्या वर्तमान एनडीए सरकार इस संभावित आवश्यकता का पालन करेगी? एनडीए साझेदारों (टीडीपी और जेडी (यू) जो भाजपा का समर्थन कर रहे हैं और उसे केंद्र में शासन के लिए एक और मौका दे रहे हैं) पर गंभीर जिम्मेदारी है। लोग उनसे सतर्क, निष्पक्ष और ज़िम्मेदार होने की उम्मीद करते हैं। उन्हें संवैधानिक मूल्यों के पथप्रदर्शक और संरक्षक के रूप में खड़ा होना चाहिए.

सरकार का समर्थन कर रही पार्टियों को समावेशी रुख अपनाना चाहिए और विकास के एजेंडे का पालन करने के लिए सरकारी नीतियों पर प्रभाव स्थापित कर एक मज़बूत संतुलन शक्ति बनना चाहिए। सत्तारूढ़ व्यवस्था के दबाव के आगे झुकना और मूल्यों और सिद्धांतों से समझौता करना उनके मतदाताओं के साथ गंभीर विश्वासघात होगा जिन्होंने सांप्रदायिक सद्भाव, समावेशिता, विविधता और सहिष्णुता की रक्षा के लिए उन्हें वोट दिया था।

इस चुनाव में विपक्ष को बहुत कुछ सीखना है। कुछ विपक्षी नेता सत्ता में बैठे लोगों के विभाजनकारी और ध्रुवीकरण के कार्यों के खिलाफ अपनी असहमति व्यक्त करने में बहुत स्पष्ट और मुखर थे, वही जोश मुख्यधारा की धर्मनिरपेक्ष पार्टियों और उनके कैडर में नहीं दिखा। वे अनावश्यक भय के शिकार हो गए और धार्मिक अल्पसंख्यकों के भेदभाव और पीड़ा को व्यक्त करने से बचते रहे, जिन्हें सरकार की बहुसंख्यकवादी नीतियों का खामियाजा भुगतना पड़ा था।

विपक्ष द्वारा समाज के सभी वर्गों को शामिल करते हुए अधिक संगठित, एकजुट और जीवंत अभियान के अलग परिणाम हो सकते थे। भारत के समाज को संक्रमित करने वाले सांप्रदायिक वायरस को खत्म करने, राजनीति की दिशा बदलने और इसे संविधान के मूल्यों के साथ अधिक निकटता से जोड़ने के लिए एक जमीनी स्तर के सामाजिक आंदोलन की आवश्यकता है। इन चुनावों में सिकुड़ते मध्य मार्ग (लोकतंत्र) को बचा लिया गया. अब इसे संरक्षित रखने और संवारने की ज़रूरत है।

(लेखक जमात ए इस्लामी हिंद के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और इसकी राजनीतिक मामलों की समिति के प्रमुख हैं।)

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