-हुमा मसीह
नई दिल्ली | फीफा वूमेन्स वर्ल्ड कप में हज़ारों महिला खिलाड़ी खेल रहीं लेकिन इन्हीं हज़ारों खिलाड़ियों के बीच खेल रही मोरक्को की एक 25 वर्षीय महिला खिलाड़ी नोहैला बेंज़िना के नाम की आखिर इतनी चर्चा क्यों हो रही. नोहैला बेंज़िना फीफा में हिजाब पहन कर खेलने वाली पहली खिलाड़ी बन गई हैं.
कौन हैं नोहैला बेंज़िना ?
नोहैला बेंज़िना मोरक्को की राष्ट्रीय फुटबॉल टीम की महिला खिलाड़ी हैं. 25 वर्षीय नोहैला न्यूज़ीलैंड और ऑस्ट्रेलिया में खेले जा रहे वूमेन्स वर्ल्ड कप में मोरक्को की टीम की तरफ से खेल रही हैं. नोहैला बेंज़िना एसोसिएशन्स स्पोर्ट ऑफ फोर्सेस आर्म्ड रॉयल का हिस्सा हैं. इससे पहले वो रबात क्लब के साथ खेलते हुए 11 ट्रॉफी जीत चुकी हैं.
2021 में उन्होंने सीएएफ वूमेंस चैंपियन लीग में खेला था. जिसमें एसोसिएशन्स स्पोर्ट ऑफ फोर्सेस आर्म्ड रॉयल ने तीसरा स्थान प्राप्त किया था. नोहैला ने अंतरराष्ट्रीय खेलों में अपना पहला डेब्यू 2017 में किया था.
कब लगा था फीफा में हिजाब पर प्रतिबंध ?
2007 में फीफा के मैच में रैफरी ने एक हिजाबी कनाडियन महिला खिलाड़ी असमाह मंसूर को मैदान से बाहर कर दिया था, उस खिलाड़ी से मैच के दौरान हिजाब उतारने के लिए कहा गया. हिजाब नहीं उतारने पर उसे मैच से बाहर कर दिया गया.
यह मामला कनाडियन सॉकर एसोसिएशन से होता हुआ फीफा प्रबंधन तक पहुंचा. वहां ये तय किया गया कि हिजाब पर प्रतिबंध रहेगा लेकिन ऐसे हेड कवर जो गर्दन न कवर करते हों उन पर पाबंदी नहीं होगी.
किसी खिलाड़ी का हिजाब दूसरे खिलाड़ियों को नुकसान पहुंचा सकता है इस बात के आधार न होते हुए भी फीफा ने सुरक्षा कारणों की बात का हवाला देते हुए आधिकारिक रूप से हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया. नतीजतन न सिर्फ असमाह मंसूर बल्कि हज़ारों हिजाबी खिलाड़ी फीफा में खेलने से वंचित हो गईं.
फीफा की तरफ से खेलों में धार्मिक प्रतीकों को इजाज़त न देने की बात भी कही गई थी, लेकिन ईसाई यहूदी जैसे धर्मों में मानने वाले कई बड़े पुरुष खिलाड़ी अपने धार्मिक प्रतीकों को टैटू आदि के रुप में खेल के दौरान भी इस्तेमाल कर रहे थे, उन खिलाड़ियों पर पाबंदी लगाना फीफा के बस में न था. अंत में फीफा की तरफ से स्वास्थ्य और सुरक्षा के कमज़ोर बहाने को आधार बनाकर हिजाब पर प्रतिबंध जारी रखा गया.
एशियाई फुटबॉल परिसंघ के मोया डोड, खिलाड़ी और एक्टिविस्ट अस्माह हेलाल और जॉर्डन के प्रिंस व फीफा के तत्कालीन उपाध्यक्ष और जॉर्डन फुटबॉल एसोसिएशन के प्रमुख अली बिन अल-हुसैन शामिल ने हिजाब की स्वीकारोक्ति अभियानों का नेतृत्व किया और हिजाब को मंजूरी देने के लिए फीफा पर दबाव डालने के लिए राइट 2 वियर, संयुक्त राष्ट्र और फीफप्रो के साथ मीटिंग्स की.
फीफा में हिजाब प्रतिबंध के खिलाफ लड़ रही मुस्लिम एक्टिविस्ट महिलाओं के प्रयासों ने फीफा को अपने नियमों में पुनर्विचार करने और उनमें बदलाव करने के लिए मजबूर कर दिया.
1 मार्च 2014 को बहुत सारे विर्मश और और स्पष्टीकरण के बाद आखिरकार फीफा के तत्कालीन महासचिव जेरोम वाल्के ने घोषणा की, कि पिच पर धार्मिक रुप से सिर ढंकने (हिजाब, सिख पुरुषों के लिए पगड़ी और यहूदी पुरुषों के लिए किप्पा आदि) की अनुमति दी जाएगी. शर्त यह रखी गई थी कि सर ढकने का सामान इफैब (इंटरनेशनल फुटबॉल एसोसिएशन बोर्ड) के चिकित्सा नियमों के अनुरूप होगा.
फीफा के इस संशोधन के बाद कई काबिल लड़कियां को अपनी हिजाबी पहचान के साथ इस खेल में आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली और उन्हीं में से एक नुहेला बेंज़िना 2023 को हम फीफा वूमेन वर्ल्ड कप में खेलते देख रहे हैं.
हिजाब को यूनिफार्म का हिस्सा बनाने के लिए भारत को लेना चाहिए फीफा से सबक
खिलाडियों की सामाजिक और सांस्कृतिक विविधताओं का सम्मान करते हुए फीफा ने अपने नियमों में बदलाव कर समावेशी समाज बनाने में योगदान दिया है और उन सभी खिलाड़ियों के लिए आगे बढ़ने की राह आसान की है जो गैर समावेशी नियमों के कारण योग्य होने के बावजूद खेल नहीं पा रही थी.
साल 2022 के प्रारंभ होने के साथ-साथ ही भारत के कर्नाटक राज्य में हिजाब को लेकर एक विवाद शुरू हुआ था.
जनवरी माह में कर्नाटक के उडुपी ज़िले के एक प्री यूनिवर्सिटी कॉलेज में में 11वीं क्लास की 6 छात्राओं को कुछ छात्रों के विरोध के बाद हिजाब लगाकर क्लासरूम में प्रवेश करने से रोक दिया गया. कॉलेज प्रशासन ने कहा कि हिजाब लगाना उनके यूनिफार्म नियमों के अनुकूल नहीं है इसलिए वो इसकी इजाज़त नहीं दे सकते.
प्रभावित छात्राओं में से कुछ ने न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया. कई दिनों तक चली सुनवाई में कर्नाटक हाईकोर्ट ने यह फैसला दिया कि हिजाब पहनना इस्लाम में अनिवार्य नहीं है इसलिए संविधान द्वारा निर्देशित धार्मिक स्वतंत्रता के तहत मुस्लिम छात्राओं को 12 वीं क्लास तक के स्कूल और प्री कॉलेज के क्लासरूम में हिजाब पहनने की अनुमति नहीं दी जा सकती.
इस फैसले के बाद पूरे कर्नाटक राज्य में स्कूलों के साथ-साथ स्नातक कॉलेजों में हिजाब पहनने वाली छात्राओं और महिला शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं हुईं.
हिजाब को लेकर मीडिया का दक्षिणपंथी रवैया
हिजाब के विरोध में दक्षिणपंथी मीडिया ने बड़ी भूमिका निभाई. कई घटनाएं वीडियो की शक्ल में सोशल मीडिया पर वायरल भी हुईं. एक घटना यहां उल्लेखनीय है, जिसमें कर्नाटक के ही अन्य ज़िले में मुस्कान नाम की हिजाबी कॉलेज छात्रा का पीछा करते भगवा गमछा धारी लड़के देखे गए जो लगातार छात्रा को डराने के लिए ‘जय श्री राम’ के नारे लगाते रहे.
इसके अलावा एक बुर्का धारी मुस्लिम शिक्षिका का सिक्योरिटी गार्ड द्वारा ज़बरदस्ती बुर्का उतरवाने का वीडियो भी वायरल हुआ.
इन सारी घटनाओं के अलावा भारत का मुख्यधारा का मीडिया हिजाब मुद्दे पर पक्षपाती रिपोर्टिंग और बहस करवाता रहा, हिजाब को पसन्द करने वाली महिलाओं का पक्ष बिलकुल भी मीडिया द्वारा सामने नहीं लाया गया बल्कि मुस्लिम समाज से भी उन औरतों से बयान लिए गए जो हिजाब विरोधी हैं.
अपनी पसंद से हिजाब पहनने की बात बार-बार कहे जाने के बाद भी भारत का मीडिया अपनी रिपोर्टिंग से लगातार यह साबित करने में लगा रहा कि मुस्लिम समाज लड़कियों पर हिजाब थोप रहा है.
भारत जैसे देश में जहां विभिन्न धर्म, संप्रदाय, जाति और विचारधाराओं वाले लोग रहते हैं और जहां का संविधान भी इन सबमें कोई भेदभाव न करता हो वहां हिजाब पर ऐसी प्रतिक्रियाएं असहनीय और विचलित करने वाली हैं.
भारत में कई जगहों पर कपड़ो और ड्रेस को लेकर ऐसे नियम बना दिए गए हैं कि यदि हिजाबी लड़कियां और महिलाएं हिजाब को चुनती हैं तो उन्हें शिक्षा, प्रोफेशन से वंचित किया जाता है और अगर शिक्षा, प्रोफेशन चुनती हैं तो उन्हें हिजाब नहीं पहनने दिया जाता.
क्या कर्नाटक में हिजाब विवाद मामले में कर्नाटक सरकार यूनिफॉर्म को लेकर फीफा की तरह समावेशी नियम नहीं बना सकती थी? दुनिया समावेशी नियमों को तरजीह देकर लगातार आगे बढ़ रही लेकिन विश्वगुरु बनने की बात करने वाला भारत अभी भी हिजाब को लेकर इतना असहज और संकीर्ण रवैया क्यों अपना रहा है?