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Sunday, May 19, 2024
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वीर बाल दिवस: गुरु गोविन्द सिंह के बेटों की शहादत और सिखों-मुसलमानों के खिलाफ साज़िश

गुरु गोविन्द सिंह के दो बेटों की शहादत के बारे में मुसलमानों को निशाना बनाकर एक झूठी कहानी फैलाई जा रही है. ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार मुसलमानों ने हमेशा सिख धर्म के 10वें गुरु का समर्थन किया. हालांकि, वर्तमान में आधिकारिक और गैर-आधिकारिक स्तर पर यह दिखाने का प्रयास किया जा रहा है कि सिख गुरु ने इस्लाम के खिलाफ युद्ध लड़ा था, जो कि झूठ के अलावा कुछ नहीं है. इस लेख में सिख इतिहासकारों और लेखकों द्वारा लिखित पुस्तकों और संदर्भों को पेश करके इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में देखने का प्रयास किया गया है.

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | केन्द्र सरकार द्वारा 26 दिसंबर, 2022 को राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में “वीर बाल दिवस” ​​​​का आयोजन बहुत धूम-धाम से किया गया. मौका था गुरु गोविंद सिंह के दो बेटों के शहीद दिवस का. इस मौके पर मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी थे. पीएम मोदी ने इस अवसर पर बेहद भावुक भाषण भी दिया.

इसमें कोई संदेह नहीं है कि सिख धर्म के 10 वें गुरु के दो बेटों- नौ वर्षीय जोरावर सिंह और सात वर्षीय फतेह सिंह की बेरहमी से हत्या कर दी गई थी. लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या वे दोनों सिखों और मुसलमानों के बीच हुए धार्मिक युद्ध के कारण मारे गए थे? या उनकी हत्या सिखों और मुगलों के बीच राजनीतिक युद्ध का परिणाम थी?

इतिहास गवाह है कि मुगलों का गुरु गोविन्द सिंह या सिखों से कोई दुश्मनी या झगड़ा नहीं था. मुगल हिंदू पहाड़ी राजाओं की एक साज़िश के ज़रिए गुरु के खिलाफ लड़ाई में खींच लिए गए थे. लेकिन पीएम मोदी के भाषण से यह आभास होता है कि सिख समुदाय द्वारा साहिबज़ादे कहे जाने वाले गुरु गोविंद के पुत्रों की हत्या धर्म से प्रेरित थी.

अगर इस पूरी घटना की व्याख्या और विश्लेषण किया जाए तो यह सिखों और मुसलमानों को एक दूसरे के खिलाफ खड़ा करने की साज़िश मालूम होगी. इस बात का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है कि साहिबज़ादों की हत्या इसलिए की गई क्योंकि उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार करने से इनकार कर दिया था.

इतिहास में इन बातों को साज़िश के रूप में सिर्फ मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ नफरत बनाए रखने के लिए शामिल किया गया है. सात या आठ साल का बच्चा धर्म के बारे में क्या समझेगा? इसके अलावा, कुरान के सिद्धांत बच्चो तो क्या वयस्कों को भी, इस्लाम में ज़बरदस्ती शामिल होने के लिए मजबूर करने से मना करते है.

इसलिए, खुद को कुरान का कट्टर अनुयायी होने का दावा करने वाला शासक कुरान के आदेशों के खिलाफ कैसे जा सकता है? यह आरोप कि सिख राजकुमारों को इसलिए मार दिया गया क्योंकि उन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था, तर्कसंगत नहीं है.

सिख संगठन वीर बाल दिवस मनाने की निंदा करते हैं

हैरानी की बात यह है कि सिख समुदाय की सबसे बड़ी संस्था, अमृतसर स्थित शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी ने साहिबज़ादों (सिख राजकुमारों) के शहादत दिवस का वीर बाल दिवस के रुप में नामकरण किए जाने की कड़ी निंदा की है. उन्होंने इसे “सिख इतिहास और धर्म को कमज़ोर करने की साज़िश बताया है.

शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी चाहती थी कि इसका साहिबज़ादे शहादत दिवस के रूप नामकरण किया जाए जो इस आयोजन को एक अलग अर्थ देता. लेकिन केंद्र सरकार ने इसे पूरी तरह नजरंदाज़ कर दिया. सिख सूत्रों का कहना है कि शहादत और साहिबज़ादे शब्दों का उर्दू और फारसी मूल के होने की वजह से सरकार ने एसजीपीसी की मांग को नहीं माना.

सूत्रों का कहना है कि वीर बाल दिवस को बढ़ावा देने का एक अन्य कारण भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के 14 नवंबर को पड़ने वाले जन्मदिन को कमतर करना है, जिसे आधिकारिक तौर पर बाल दिवस के रुप में मनाया जाता है. सूत्रों की माने तो केंद्र ने यह हरकत भारत के राजनीतिक इतिहास से गांधी-नेहरू परिवार के निशान को मिटाने के राजनीतिक एजेंडे के तहत की है.

दिल्ली में हुए 1984 के सिख नरसंहार पर सरकार खामोश है?

सवाल उठता है कि आखिर साहिबज़ादों की फांसी की घटना को लेकर भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार इतनी उत्साहित क्यों है? वही केन्द्र सरकार दिल्ली में 1984 के सिख नरसंहार के बारे में बात क्यों नहीं कर रही है? पूरी दिल्ली में 3,000 से अधिक सिख पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को बेरहमी से मार डाला गया था.

उन दंगों में कई सिखों ने दाढ़ी कटवाकर अपनी सिख पहचान छुपाकर जान बचाई. दंगो के पहले सिख पूरी दिल्ली में रहते थे और व्यवसायों में उनकी पैठ थी, वही सिख 1984 के दंगो के बाद राष्ट्रीय राजधानी से लगभग गायब हो गए. मुसलमानों की तरह सिख भी आज अपनी जान-माल के खतरे के डर से दिल्ली में अपनी ‘घेटो’ बस्तियों में रहने को मजबूर हैं.

1984 के सिख नरसंहार की याद में एक सिख संग्रहालय क्यों नहीं बनाया गया?

7 दिसंबर, 1941 को नरसंहार करके मार दिए गए 6000 यहूदियों की याद में जर्मनी के नोवोग्रुडोक में एक स्मारक यहूदी प्रतिरोध संग्रहालय के नाम से बनाया गया है. उसी की तर्ज पर दिल्ली में सिख आबादी पर हुए अत्याचारों के बारे में भविष्य की पीढ़ियों को याद दिलाने के लिए केन्द्र सरकार एक सिख प्रतिरोध संग्रहालय का निर्माण क्यों नहीं कर सकती है?

सरकार ईसाई-ब्रिटिश शासकों द्वारा बहादुर शाह ज़फर के दो पुत्रों के सिर काटे जाने की बर्बर घटना की अनदेखी क्यों करती है?

भारत में ब्रिटिश शासन के खिलाफ़ 1857 में स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृत्व करने वाले बहादुर शाह ज़फर के दो बेटों की बर्बर ईसाई-ब्रिटिश शासकों ने गोली मारकर हत्या कर दी थी. उनके सिर दिल्ली गेट पर काट दिए गए, जिसे अब खूनी दरवाज़ा कहा जाता है, सिर काटकर उन्हे 87 वर्षीय बहादुर शाह को उपहास उपहार के रूप में भेंट स्वरुप भिजवाया गया था.

बहादुर शाह ज़फ़र को इस तरह से अपमानित किया गया क्योंकि उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम का नेतृत्व किया था. सरकार इस घटना पर चुप्पी क्यों साधे हुए है? ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत की आज़ादी और उसके विकास में मुस्लिम योगदान को याद करना शायद वर्तमान सत्ताधारियों को राजनीतिक रूप से फायदा नहीं पहुंचाएगा.

आखिर क्या है साहिबज़ादों की फांसी के पीछे की सच्चाई?

आनंदपुर साहिब के छोटे से शहर में स्थित गुरु गोबिंद सिंह और सिख गुरु के खिलाफ हिंदू पहाड़ी राजाओं की सहायता करने वाली मुगल सेना के बीच युद्ध क्या वाकई धर्म को लेकर हुए थे? क्या गुरु गोबिंद सिंह के दोनों पुत्रों को औरंगज़ेब के आदेश पर मौत के घाट उतार दिया गया था, या यह सरहिंद में सूबेदार वज़ीर खान (मुगल शासक के प्रतिनिधि) के अधीन हिंदू ब्राह्मण कोषाध्यक्ष और गुरु गोबिंद सिंह के ब्राह्मण रसोइए की मिलीभगत थी?

क्या साहिबज़ादों को इसलिए फाँसी दी गई थी क्योंकि उन्होंने इस्लाम अपनाने से इनकार कर दिया था, या हिंदू पहाड़ी राजाओं की साज़िशो की वजह से जिन्हें गुरु गोबिंद सिंह से धमकियाँ मिली थीं? साहिबजा़दों और उनकी दादी माता गुर्जरी को किसने बचाया जब वे अपनी जान बचाने के लिए भागते समय सरसा नदी में गिरे?

मुगल सेना की गिरफ्तारी के डर से अपने दो बड़े बेटों के साथ सरसा नदी पार करने के बाद गुरु गोबिंद सिंह को किसने आश्रय दिया था? हिंदू पहाड़ी राजाओं और मुगल सेना के साथ युद्ध के दौरान गुरु गोबिंद सिंह को शरण देने वाले हिंदू थे, सिख थे या मुसलमान थे?

हिंदू पहाड़ी राजाओं ने गुरु गोबिंद सिंह को कुचलने के लिए सरहिंद में मुगल सूबेदार के साथ मिलकर साज़िश रची

ऐसे और कई अन्य सवालों के जवाब खुद सिख विद्वानों द्वारा लिखी गई प्रामाणिक इतिहास की किताबों से पता चलते है कि यह गुरु गोबिंद सिंह और मुसलमानों के बीच एक धार्मिक युद्ध नहीं था. यदि इन पुस्तकों पर भरोसा किया जाए, तो यह पता चलता है कि गुरु गोबिंद सिंह सितंबर 1688 से हिंदू पहाड़ी राजाओं के खिलाफ लड़ रहे थे. एक पीर बदरुद्दीन शाह उर्फ ​​​​बुद्धू शाह ने अपने 2000 मुस्लिम समर्थकों के साथ पहाड़ी राजाओं के खिलाफ़ गुरु गोबिंद सिंह का समर्थन किया था. जबकि बुद्धू शाह ने युद्ध में अपने ही परिवार के आठ सदस्यों को खो दिया, गुरु गोबिंद सिंह युद्ध में विजयी हुए थे.

पहाड़ी राजाओं के साथ गुरु गोबिंद सिंह के युद्धों का मुख्य कारण यह था कि वह एक और केवल एक ईश्वर की पूजा में विश्वास करते थे जबकि पहाड़ी राजा मूर्ति-पूजक थे. गुरु गोबिंद सिंह ने इसे ज़फरनामा में लिखा है जो उन्होंने फारसी भाषा में लिखा था.
हिंदू पहाड़ी राजाओं ने साज़िश करके मुगलों को गुरु गोबिंद के खिलाफ युद्ध में शामिल किया था.

गुरु गोबिंद सिंह के हाथों बार-बार हारने के बाद, पहाड़ी राजा सूबेदार वज़ीर खान के पास गए और गुरु गोबिंद सिंह के खिलाफ सैन्य सहायता के लिए अनुरोध किया. इसके लिए उन्होंने आधिकारिक तौर पर सूबेदार के खज़ाने में 20,000 रुपये जमा किए और उनका समर्थन हासिल करने के लिए सूबेदार को व्यक्तिगत रूप से महंगे उपहार भी दिए. इस तरह सिख-हिन्दू युद्ध में मुगल सत्ता को घसीटा गया. वर्ना न सिख गुरु का मुगलों से कोई विवाद था, न मुगलों का सिखों और गुरु गोबिंद सिंह से कोई झगड़ा था.

मुगल सूबेदार को रिश्वत देने के बाद, पहाड़ी राजाओं ने साज़िश रचनी शुरू कर दी और औरंगज़ेब को झूठी शिकायत की, कि गुरु गोबिंद सिंह दिल्ली पर हमला करने और मुगल सम्राट को गद्दी से हटाने के लिए एक बड़ी ताकत जुटा रहे हैं. उन्होंने औरंगज़ेब से गुरु गोबिंद सिंह और सिखों के खिलाफ सैन्य रूप से मदद करने की अपील की.

इस सबके बाद गुरु गोबिंद सिंह पर सैन्य दबाव बढ़ गया था. पहाड़ी राजाओं और वज़ीर खान ने उन्हें आनंदपुर साहिब किला खाली करने और अपने परिवार और समर्थकों के साथ कहीं और चले जाने के लिए कहा. एक समझौते के तहत, गुरु गोबिंद सिंह और उनके परिवार को एक सुरक्षित मार्ग प्रदान किया गया. हालांकि, जब वह अपने परिवार और अपने सिख समर्थकों के एक छोटे समूह के साथ किले से बाहर जा रहे थे, तो हिंदू राजाओं और मुगल सेना ने समझौते का उल्लंघन किया.

गुरु गोविंद सिंह और उनके परिवार पर हमला किया गया. नदी पार करते वक्त गुरु गोविंद सिंह के दो छोटे बेटे और उनकी मां उनसे बिछड़ गए. जहां गुरु गोबिंद सिंह, दो बड़े बेटे – साहिबज़ादा अजीत सिंह और साहिबज़ादा जुझार सिंह और कुछ समर्थक सरसा नदी पार करके भागने में सफल रहे, दूसरी ओर जो घोड़ा उनकी माँ – गुर्जर कौर – और दो छोटे बेटों – साहिबज़ादा ज़ोरावर सिंह और साहिबज़ादा फतेह सिंह को ले जा रहा था वो पानी की तेज धाराओं में संतुलन बनाए न रख सका, नतीजतन, उनके दो बेटे और मां नदी में गिर गए. तीनों के डूबने की आवाज सुनकर एक मुस्लिम नाविक कय्यूम बख्श उर्फ ​​कुम्मा मशकी घटनास्थल पर पहुंचा. उसने उन्हें बचाया और पास ही में अपनी झोपड़ी में ले गया.

उनकी कहानी सुनने के बाद, कय्यूम बख्श ने उन्हें गुरु गोबिंद सिंह और सिखों के साथ फिर से मिलाने का वादा किया. इसी बीच गुरु गोविंद सिंह का रसोइया गंगू ब्राह्मण वहां पहुंच गया. उन्होंने साहिबज़ादों और उनकी दादी को अपने साथ अपनी शरण में ले लिया और उन्हें मारिंडा के पास अपने घर खीरी पिंड ले गए.

गुरु गोबिंद की मां माता गुर्जर कौर अपने साथ ढेर सारी नकदी और कीमती सामान लेकर रही थी. अपने घर पर, गंगू ब्राह्मण ने माताजी के कीमती सामानों को चुरा लिया और आरोप से बचने के लिए “चोर, चोर” का शोर मचाना शुरू कर दिया. माताजी उसकी साज़िश को समझ गईं थी. उन्होंने उससे कहा कि कोई चोर यहां नहीं आया था और अगर उसे कुछ चाहिए था, तो उसे उनसे मांग लेना चाहिए था. पोल खुलने के बाद, गंगू ने खुद को अपमानित महसूस किया. अगली सुबह, उसने मारिंडा कोतवाल को सूचित कर गुरु गोविंद सिंह के दो छोटे बच्चों और उनकी मां को गिरफ्तार करवा दिया, मुगल पुलिस उनकी तलाश कर ही रही थी. कोतवाल ने उन्हें सरहिंद के मुगल सूबेदार वज़ीर खान को सौंप दिया.

दिसंबर 2018 में इंडियन डिफेंस रिव्यू में लिखे एक लेख में एक प्रतिष्ठित जियो एनालिस्ट कर्नल जयबंस सिंह ने लिखा है कि साहिबज़ादों और माताजी को सरहिंद के मुगल प्रशासन को सौंपना “यकीन और आस्था का सबसे बदतरीन उल्लंघन था.” हालांकि, कर्नल सिंह ने मुस्लिम नाविक द्वारा साहिबज़ादों और माताजी को नदी से बचाने की घटना के बारे में नहीं बताया, जो लोगों के सामने पूरी सच्चाई पेश न करने से उनकी शैक्षणिक और बौद्धिक कमज़ोरी का पता चलता है, अतः उन्होंने जो लिखा है वह महज़ आधा सच है. यदि इस तरह के आधे-अधूरे सच को एक सैन्य पत्रिका के माध्यम से प्रामाणिक सामग्री के रूप में प्रकाशित किया जाता है, तो आम पाठकों के साथ-साथ सैन्य कर्मियों के मन पर किस तरह की छाप पड़ेगी, यह समझना मुश्किल नहीं है.

साहिबजादों पर मुकदमा और फांसी, साहिबजादों को सजा के खिलाफ मलेरकोटला नवाब का कड़ा विरोध

वज़ीर खान ने साहिबजादों के भाग्य का फैसला करने के लिए एक अदालत बुलाई. अदालत में आधिकारिक काज़ी (न्यायाधीश), वज़ीर खान, उनके दरबारी और मलेरकोटला के नवाब शेर मोहम्मद खान शामिल थे. सूबेदार ने काज़ी से पूछा कि इस्लामिक कानून के तहत दो लड़कों- ज़ोरावर सिंह (9) और फतेह सिंह (7) को क्या सजा दी जा सकती है?

सिख इतिहासकारों द्वारा लिखित इतिहास में उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार, काज़ी ने जवाब दिया कि लड़के नाबालिग और निर्दोष हैं और उन्होंने कोई अपराध भी नहीं किया है और इसलिए उन्हें कोई सज़ा नहीं दी जा सकती है. क्योंकी गुरु गोबिंद सिंह ने इस सब घटनाक्रम के पहले एक युद्ध में मालेरकोटला नवाब के भाई को मार डाला था, इसलिए वज़ीर खान ने मलेरकोटला के नवाब को गुरु गोबिंद सिंह के दो पुत्रों से अपने भाई के खून का बदला लेने के लिए उकसाया. लेकिन शेर खान ने मुगल सूबेदार या राज्यपाल से कहा कि उनकी दुश्मनी गोबिंद सिंह से है, उसके पुत्रों से नहीं. उन्होंने कहा कि अगर वे कभी अपने भाई की हत्या का बदला लेंगे तो युद्ध के मैदान में गुरु गोबिंद सिंह से लेंगे, उनके बेटों से नहीं. उन्होंने अपनी बात रखी कि लड़के निर्दोष हैं और उन्हें मुक्त किया जाना चाहिए.

यह संभव था कि सूबेदार ने शेर खाँ के उत्तर के बाद बेटों को मुक्त कर दिया होता, लेकिन सुबेदार के मुख्य सलाहकार सुचानंद, जो एक ब्राह्मण थे, ने अदालत में मौजूद वज़ीर खान को यह कहकर उकसाया कि “सांप के बच्चे सांप ही होते हैं” और वे बड़े होकर मुगल सरकार के खिलाफ विद्रोह करेंगे. सुचानंद ने सुझाव दिया कि दोनों लड़कों को तुरंत मौत के घाट उतार दिया जाए.

सुचानंद के बार-बार उकसाने पर सूबेदार वज़ीर खान दोनों लड़कों की हत्या करने को तैयार हो गया. लेकिन मलेरकोटला के नवाब ने हर बार की तरह कहा कि लड़ाई गुरु गोबिंद सिंह के खिलाफ है, निर्दोष लड़कों के खिलाफ नहीं. उसने सूबेदार से प्रश्न किया कि उन दोनों लड़कों ने उसका क्या बिगाड़ा है जो उसने उन्हें मार डालने का फैसला किया है?

उसने सूबेदार को चेताया कि जहाँ निर्दोषों के साथ नाइंसाफी होगी वहाँ ईश्वर का अजाब आएगा. फिर उन्होंने दृढ़ता से बेटों को दंडित न करने का सुझाव दिया. लेकिन इसके बाद मालेरकोटला नवाब स्वयं को असहाय पाकर अपना विरोध दर्ज कराने के बाद न्यायालय से चले गये.

मलेरकोटला स्थित सिख-मुस्लिम एफिनिटी फाउंडेशन के शोधकर्ता डॉ. नसीर अख्तर इतिहासकार नरेंद्र सिंह भालेर के हवाले से कहते हैं, “अगर गंगू ने साहिबज़ादों और माताजी को धोखे से गिरफ्तार नहीं करवाया होता तो हो सकता है कि शहादत की यह दुखद घटना न होती. दूसरी बात, अगर सुचानंद ने सूबेदार को बार-बार उकसाया नहीं होता तो दोनों लड़कों को कत्ल होने से बचाया जा सकता था.”

डॉ. नसीर अख्तर का कहना है कि इतिहास से सिख लेखकों के पास इस बात का कोई सबूत नहीं है कि साहिबज़ादों को इसलिए फांसी दी गई क्योंकि उन्होंने इस्लाम कबूल करने से इनकार कर दिया था.

इन ऐतिहासिक तथ्यों के आधार पर क्या यह कहना उचित है कि गुरु गोविंद सिंह और मुसलमानों के बीच युद्ध धर्म को लेकर हुआ था? यदि वास्तव में ऐसा था जैसा कि भारत में दो अल्पसंख्यक समुदायों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने के लिए कुछ कट्टरपंथी तत्वों द्वारा बताया जा रहा है, तो एक मुस्लिम नाविक गुरु गोबिंद सिंह के बेटों और उनकी मां को नदी में डूबने से क्यों बचाएगा?

उन्होंने न केवल तीनों को बचाया बल्कि उन्हें गुरु के साथ फिर से मिलाने का वादा भी किया. मलेरकोटला नवाब ने मुगल सम्राट का पूरा समर्थन प्राप्त सूबेदार वज़ीर खान की राय के खिलाफ़ अपने पद को जोखिम में डालकर दोनों साहिबजादों के पक्ष में एक मज़बूत बचाव क्यों किया? गुरु गोविंद सिंह ने अपने जीवन में जो 14 युद्ध लड़े, उनमें से 13 हिंदू पहाड़ी राजाओं के खिलाफ थे.

गुरु गोबिंद सिंह का मुस्लिम समुदाय के घरों में शरण लेना

सरसा नदी को पार करने के बाद, गुरु गोबिंद सिंह कोटला निहंग खान गांव पहुंचे और ग्राम प्रधान निहंग खान के साथ शरण ली. वह वहां दो दिन, 20 और 21 दिसंबर को रहे. इस बीच उनके सिख जनरल बिछत्तर सिंह गुरु गोविन्द सिंह के दो बड़े बेटों के साथ निहंग खान के घर पहुंचे. बिच्छत्तर सिंह बुरी तरह घायल हो गये थे और यात्रा नहीं कर सकते थे. गुरु गोविन्द सिंह ने उन्हें निहंग खान की देखरेख में सौंप दिया.

क्योंकि मुगल सेना लगातार गुरु साहिब की तलाश कर रही थी, वह 21 दिसंबर, 1704 की आधी रात को अपने दो बेटों के साथ रहीम खान के घर से चमकौर की गढ़ी के लिए निकल गए. निहंग खान के बेटे आलम खान ने उनका काफी दूर तक साथ दिया. आलम खान ने मुगल सुरक्षा कर्मियों द्वारा पकड़े जाने से बचने के लिए मुख्य मार्ग से दूर सबसे छोटा रास्ता चुना.

इसी बीच किसी ने सेना को सूचना दी कि गुरु गोविन्द सिंह निहंग खान के घर में छिपे हुए है. रोपड़ सेना प्रमुख ने निहंग खान के घर की तलाशी ली. जब पुलिस ने निहंग खान से उस कमरे का दरवाज़ा खोलने के लिए कहा जिसमें बिच्छत्तर सिंह छिपा हुआ था, तो निहंग खान ने बहाना बनाया कि उसकी बेटी और दामाद कमरे में हैं. ये जवाब सुनकर पुलिस वापस चली गई. इस तरह निहंग खान ने अपने परिवार के सम्मान की कीमत पर बिछत्तर सिंह को बचाया.

जब गुरु गोबिंद सिंह चमकौर पहुंचे तो गुरु गोविन्द सिंह की सेना और मुगल सेना द्वारा समर्थित हिंदू पहाड़ी राजाओं के बीच लड़ाई हुई. गोविन्द सिंह के दोनों बड़े बेटे- साहिबज़ादा अजीत सिंह और साहिबज़ादा जुझार सिंह- इस लड़ाई में शहीद हो गए.

इसके बाद गुरु गोविन्द सिंह लुधियाना जिले के बहलोलपुर गाँव जान बचाकर पहुंचे. वह वहां मौलवी पीर मोहम्मद के घर ठहरे. यहीं उन्होंने सिख समुदाय को मुसलमानों के साथ अच्छे संबंध रखने का हुक्म दिया.

इसके बाद उन्होंने मच्छीवाड़ा जंगलों की यात्रा की और सबसे पहले एक सिख भाई पंजाबा के घर गए. इस बीच, पुलिस को जंगलों में गुरु गोविन्द सिंह के आने के बारे में पता चला. पुलिस के आदेशों का पालन न करने पर गांव वालों को अंजाम भुगतने की धमकी देते हुए उन्हें पुलिस को सौंपने मुनादी की. भयभीत, भाई पंजाबा ने गुरु से वहां से जाने का अनुरोध किया.

तब दो पठान भाइयों – नबी खान और गनी खान – ने बड़ा जोखिम उठाकर अपने घर पर गुरु गोविन्द की मेज़बानी की. उन्होंने पुलिस को झांसा देने के लिए गुरु को उच का पीर वेश धारण करवाया. सूफी संत, उच का पीर, उनके घर नियमित रूप से आते थे. गुरु गोविन्द के अनुरोध पर, खान भाइयों ने गुरु को एक पालकी में आलमगीर गाँव पहुँचाया. इस गाँव में, गुरु गोविन्द ने एक हुकुमनामा जारी किया, एक फरमान कि नबी खान और गनी खान उन्हें अपने पुत्रों से भी ज़्यादा प्रिय हैं. यह शिलालेख आज भी आलमगीर के स्थानीय गुरुद्वारे में सुरक्षित है.

एक स्थान से दूसरे स्थान पर भाग कर अपनी जान बचाते हुए, गुरु गोविन्द सिंह ने लुधियाना जिले में ही रायकोट राज्य के एक मुस्लिम राजा राय काल्हा के घर में शरण ली. यह एक ऐसा समय था जब सिख गुरु को किसी ने भी, यहां तक ​​कि सिक्खों ने भी मदद और आश्रय की पेशकश नहीं की, लेकिन राय काल्हा ने अपने और अपने परिवार की ज़िन्दगी को खतरे में डालकर कई दिनों तक गुरु की मेज़बानी की.

मुस्लिम राजा की खिदमत से अभिभूत, गुरु गोविन्द ने राय कलहा को अपनी निजी संपत्ति में से गंगा सागर नामक एक सुराही पेश की. इस सुराही से ही गुरु दूध और पानी पीते थे. गंगा सागर अभी भी राय कल्हा के वंशजों के कब्ज़े में है. राय कल्हा के वंशज 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप के विभाजन के बाद पाकिस्तान चले गए थे. गुरु इसके बाद दीना कांगड़ चले गए थे. यहीं पर गुरु ने औरंगज़ेब को ज़फरनामा लिखा था.

भाई दया सिंह नामक एक सिख, ने इसे औरंगज़ेब को सौंप दिया जो उस समय मराठों के खिलाफ लड़ाई लड़ रहे थे. बदले में औरंगज़ेब ने गुरु को एक पत्र भेजा, जिसमें उसने उन्हें दक्कन में मुलाकात करने की सलाह दी. औरंगज़ेब ने गुरु से उन लोगों को भी दंडित करने के बारे में पूछा जिन्होंने उनपर और उनके परिवार पर ज्यादती की थी. जब वज़ीर खान को इसके बारे में पता चला, तो उसने गुरु को डेक्कन पहुंचने से रोकने की कोशिश की.

लेकिन गुरु नांदेड़ पहुंचने में कामयाब रहे. बदकिस्मती से गुरु गोविन्द औरंगज़ेब से मिल पाते इससे पहले ही ओरंगज़ेब की मृत्यु हो गई.

गुरु गोविन्द सिंह ने गद्दी की लड़ाई में बहादुरशाह ज़फर का समर्थन किया, नांदेड़ में उनकी मृत्यु हो गई

औरंगज़ेब के दो पुत्र मुअज्जम और आज़म के बीच उत्तराधिकार की लड़ाई शुरू हो गई थी. गुरु गोविन्द सिंह ने बड़े बेटे मुअज्जम का समर्थन किया, जिनका बाद में बहादुर शाह ज़फ़र के रूप में राज्याभिषेक किया गया था. इतिहासकारों के अनुसार मुअज्जम शाह को बहादुर शाह की उपाधि गुरु गोविन्द सिंह ने ही दी थी.

हालाँकि, बाद में गुरु गोविन्द सिंह को कुछ अज्ञात व्यक्तियों ने चाकू मार दिया था. इसके बारे में लोगों के अलग अलग मत हैं. जहां कुछ इतिहासकारों का कहना है कि गुरु को मारने के लिए कथित तौर पर वज़ीर खान द्वारा भेजे गए दो अफगानों में से एक ने उसे चाकू मार दिया था, वहीं दूसरों का कहना है कि हमलावर की पहचान ज्ञात नहीं है. लेकिन गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु 7 अक्टूबर, 1708 को नांदेड़ में छुरा घोंपने से हुई थी.

जब इतिहास से स्पष्ट है कि मुसलमानों ने हमेशा सिख गुरु गोविन्द सिंह की मदद की, तो गुरु गोविन्द और मुगल सेना के बीच हुई कुछ राजनीतिक झड़पों को धार्मिक युद्ध कैसे कहा जा सकता है?

सांप्रदायिक रंग देने के बजाय, सरकार और विशेष रूप से पीएम मोदी को गलतफहमी को दूर करके दोनों समुदायों के बीच तालमेल स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए. जैसा कि पीएम मोदी खुद कहते हैं कि इतिहास को फिर से लिखने की ज़रूरत है, इसलिए इतिहासकारों को भी साहिबज़ादो की हत्या के बारे में पूर्ण सच का पता लगाना चाहिए ताकि राष्ट्रीय अखंडता और एकता के हित में सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा दिया जा सके.

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