सैयद ख़लीक अहमद
भोरा कलां (हरियाणा) | हरियाणा के भोरा कलां गांव के कुछ हिंदू कट्टरपंथी, वहां के मुसलमानों को गांव के बाहर से इमाम रखकर मस्जिद में नमाज़ पढ़ाने और मुस्लिम बच्चों को इस्लाम की बुनियादी शिक्षा प्राप्त करने देने में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं. भोरा कला गांव की कुल आबादी 20,000 है जिसमें लगभग 400 के करीब मुस्लिम हैं. गांव के मुसलमानों की समस्या यह है कि उनमें से कोई भी इस योग्य नहीं है जो पांच वक़्त की नमाज़ पढ़ा सके. इसीलिए इस समस्या के समाधान के लिए मजबूरन उन्हें गांव के बाहर से ही इमाम का प्रबंध करना है.
यह गांव हरियाणा के गुड़गांव जिले में पड़ता है और दिल्ली-जयपुर राष्ट्रीय राजमार्ग 48 से करीब 3 किमी दूर है. गांव के मुस्लिम निवासियों का कहना है कि उनके पूर्वज सन् 1810 में इस गांव में आए थे, और उनके परिवार तब से यहां रह रहे हैं. भोरा कलां गांव राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से करीब 80 किलोमीटर दूर है.
यह गांव पटौदी रियासत का एक हिस्सा हुआ करता था, इफ्तिखार अली खान (क्रिकेटर मंसूर अली खान के पिता) यहाँ के नवाब थे और यहां मिट्टी की दीवारों और फूस की छत वाली एक मस्जिद हुआ करती थी, हालाँकि, 1947 में जब विभाजन के वक़्त इस गांव के अक्सर मुसलमान पाकिस्तान चले गए तो इस पुरानी हो चुकी मस्जिद ने भी अपना अस्तित्व खो दिया था. इसके बाद जो हालात बने उसमे मुसलमान दशकों तक बिना मस्जिद के रहे और शुक्रवार और ईद की नमाज़ अदा करने के लिए पास के शहर पटौदी में जाने लगे और सप्ताह के बाकी दिन घर पर नमाज़ अदा करते थे.
हालांकि, बाद में गाँव के मुसलमानों ने एक 150 वर्ग गज के भूखंड के एक टुकड़े पर नमाज़ के लिए एक हॉल नुमा चार दीवार पर छत बनवा ली. 1990 के दशक की शुरुआत में अपनी ज़मीन बेचने के बाद पटौदी रहने चले गए एक साथी गांव वाले से ही ये ज़मीन खरीदी गई थी. 1994 में, उन्होंने हॉल के इंटीरियर को एक मस्जिद का रूप देते हुए “मेहराब” और एक “मिम्बर” का निर्माण किया, ( मिम्बर वो जगह जहां से इमाम शुक्रवार और ईद के दिनों में ‘खुतबा’ या उपदेश देते हैं). समय के साथ ‘नमाज़ियों’ की तादाद बढ़ने पर मस्जिद का विस्तार एक मंज़िला इमारत के रूप में कर दिया गया.
ग्रामीणों ने नमाज़ पढ़ाने के लिए एक इमाम को नियुक्त भी किया था. नमाज़ के लिए मस्जिद जाने वालों में स्थानीय मुसलमान और अन्य जगहों के वो मुसलमान भी शामिल थे जिन्होंने गाँव में अपनी दुकानें और अन्य व्यवसाय स्थापित किए थे. मुस्लिम समुदाय को हिंदुओं से कोई समस्या नहीं थी और दोनों शांति से रह रहे थे.
लेकिन स्थानीय हिंदुओं ने उस वक़्त विरोध करना शुरू कर दिया जब ‘नमाज़ियों’ की संख्या बढ़ गई, और उनमें से कई नमाज़ियों ने 2013 में रमज़ान के महीने में अलविदा जुमा के दिन नमाज़ पढ़ने के लिए मस्जिद की छत और आसपास के मुस्लिम घरों में फैल गए.
भारतीय सेना के एक सेवानिवृत्त सूबेदार नज़र मोहम्मद (67), पुलिस अधिकारी और स्थानीय उप मंडल मजिस्ट्रेट (एसडीएम) हालात बिगड़ने के बारे में जानने के बाद स्थिति को नियंत्रित करने के लिए मस्जिद पहुंचे. नज़र मोहम्मद ने बताया कि, “समस्या को सुलझाने के लिए, स्थानीय हिंदुओं ने दो शर्तें रखीं: पहला, स्थानीय मुसलमानों को छोड़कर कोई भी मस्जिद में नमाज़ के लिए नहीं आएगा; और दूसरी बात, गांव के बाहर के किसी भी इमाम को मस्जिद में नियुक्त नहीं किया जाएगा, हमने शांति और सद्भाव बनाने के लिए शर्तों को स्वीकार कर लिया, हालांकि दोनों शर्तें अतार्किक हैं क्योंकि यह हमारे धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप करने के बराबर है.”
दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से आर्ट्स ग्रेजुएट परवेज़, नासिर के साथ भोरा कलां गांव की मस्जिद में इमाम का काम अंजाम दे रहे हैं.
वर्तमान में, नमाज़ के लिए इमामत का काम नज़र के पोते परवेज़ और एक अन्य युवक नासिर कर रहे हैं. परवेज़ और नासिर, जिन्होंने कुरान के आखिरी अध्याय (तीसरा पारा) को याद किया है, रमज़ान में तरावीह की नमाज़ पढ़ाते हैं. परवेज़ ने दिल्ली के ज़ाकिर हुसैन कॉलेज से आर्ट्स से ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी की और अब मैनेजमेंट में एक कोर्स करने के बारे में सोच रहे हैं.
हालांकि, नज़र का कहना है कि स्थानीय मुसलमानों की धार्मिक आवश्यकताओं को पूरा करने और स्थानीय मुस्लिम लड़कों और लड़कियों को आध्यात्मिक और धार्मिक ज्ञान प्रदान करने के लिए हर वक़्त मौजूद रहने वाले इमाम की ज़रूरत है. लेकिन उनका कहना है कि स्थानीय हिंदू समुदाय के समर्थन के बिना यह असंभव है क्योंकि कुछ कट्टरपंथी तत्वों ने इस बात का कड़ा विरोध किया है.
कट्टरपंथी हिंदू तत्वों का विरोध इतना मज़बूत है कि कुछ लोग बारिश और अन्य कारणों से क्षतिग्रस्त हुई मस्जिद के हिस्से की मरम्मत भी नहीं करना चाहते हैं. रिसाव को बंद करने के लिए पहली मंज़िल पर मरम्मत कार्य और छत और दीवारों के हिस्से को दोबारा लगाने के परिणामस्वरूप 12 अक्टूबर की रात को ‘नमाज़ियों’ पर हमला हुआ. कट्टरपंथी, मस्जिद के किसी भी हिस्से के विस्तार का विरोध करते हैं.
सेवानिवृत्त सूबेदार नज़र मोहम्मद ने इंडिया टुमॉरो टीम को बताया कि कैसे कट्टरपंथी तत्वों ने 12 अक्टूबर की रात मस्जिद के अंदर ‘नमाज़ियों’ पर हमला किया.
12 अक्टूबर को जो हुआ उसे बताते हुए नज़र मोहम्मद ने कहा कि मस्जिद के अंदर मरम्मत का काम चल रहा था, जब लगभग 200 हिंदू मस्जिद में आए, किसी ने उन्हें बताया था कि मुसलमान मस्जिद के क्षेत्र का विस्तार कर रहे हैं. हालांकि, जब उन्होंने देखा कि केवल मरम्मत का काम चल रहा है, तो वे मान गए और वापस चले गए.
हालांकि, 18-20 साल की उम्र के कुछ किशोर हथियारों से लैस होकर उसी दिन रात 8 बजे के आसपास मस्जिद में आए, जब ईशा (रात) की नमाज़ हो रही थी. बिना किसी कारण के, उन्होंने ‘नमाज़ियों’ पर हमला किया, नमाज़ियों में दो बूढ़े व्यक्ति भी शामिल थे जो घुटने की समस्याओं के कारण कुर्सियों पर बैठे थे. कट्टरपंथियों ने एक प्लास्टिक की कुर्सी उठाई और नमाज़ अदा करवा रहे नासिर को मारा. बाकी मुस्लिम भाग गए, लेकिन नासिर को युवकों ने दबोच लिया. हमले के बारे में सुनकर जब उनके परिवार के सदस्य और मुस्लिम युवक पहुंचे तो उन्हें छोड़ दिया गया. हमलावरों ने मुसलमानों को मस्जिद खाली करने के लिए मजबूर किया और फिर उसे बाहर से बंद कर दिया.
12 अक्टूबर की रात भोरा कलां मस्जिद में कट्टरपंथियों द्वारा तोड़ी गई प्लास्टिक की कुर्सी
हालंकि, पुलिस ने अब ताला तोड़ दिया है और कुछ दिनों के लिए मस्जिद में सुरक्षा कर्मी तैनात कर दी है. पुलिस ने अज्ञात लोगों के खिलाफ मस्जिद में तोड़फोड़ और नमाज़ियों पर हमले के आरोप में प्राथमिकी भी दर्ज की है हालांकि अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हुई है.
नज़र मोहम्मद ने इंडिया टुमॉरो को बताया कि चूंकि पुलिस और स्थानीय प्रशासन द्वारा इस मुद्दे को सौहार्दपूर्ण ढंग से सुलझा लिया गया था, इसलिए वह शांति और सद्भाव के हित में प्राथमिकी वापस लेने पर विचार कर रहे हैं.
गांव में 11 नवंबर को ‘सरपंच’ (ग्राम प्रधान) के लिए चुनाव होने जा रहा है, और इस पद के लिए चुनाव लड़ने वाले विभिन्न उम्मीदवारों द्वारा प्रचार ज़ोरों पर है. कई लोगों का कहना है कि कुछ लोगों ने एक खास उम्मीदवार के पक्ष में वोटरों का ध्रुवीकरण करने के लिए मस्जिद में तोड़फोड़ की. लेकिन नज़र मोहम्मद कहते हैं कि मुसलमानों को किसी और की राजनीतिक समस्याओं के लिए बलि का बकरा क्यों बनाया जा रहा है.
गांव के चुनाव में कोई मुस्लिम उम्मीदवार मैदान में नहीं है. राज्य विधानसभा और संसदीय चुनावों में मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए मुसलमानों को बिना किसी गलती के निशाना बनाना पूरे देश में एक संस्कृति बन गई है. कई राजनीतिक दल अपने राजनीतिक लाभ के लिए समाज में विभाजन पैदा करने के लिए अपने नेताओं द्वारा अभद्र भाषा का सहारा लेते रहे हैं.
दुर्भाग्य से, इसे भारतीय राजनीति में एक नई सामान्य अवस्था के रूप में स्वीकार किया जा रहा है, और यहां तक कि अदालतें भी इसे गंभीरता से नहीं ले रही हैं. इसलिए नफरत फैलाने वाले बहुत खतरनाक हो चुके हैं. 12 अक्टूबर को इस गांव में मस्जिद में जो हुआ वह स्थानीय और मामूली स्तर पर गहरी दुश्मनी की मात्र अभिव्यक्ति है.
बिलासपुर थाने के एसएचओ अजय कुमार, जिनके अधिकार क्षेत्र में यह गांव आता है, ने घटना पर टिप्पणी करने में असमर्थता जताई. उन्होंने स्थानीय हिंदुओं द्वारा मुसलमानों को मस्जिद के लिए इमाम नियुक्त करने की अनुमति नहीं देने के बारे में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया. संपर्क करने पर पटौदी के सहायक पुलिस आयुक्त हरिंदर सिंह ने कहा कि वह अदालत में व्यस्त हैं.
मौजूदा सरपंच यजविंदर शर्मा से संपर्क करने पर उन्होंने कहा कि वह इमाम की नियुक्ति के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन कुछ लोग वास्तव में इसके खिलाफ थे. हालांकि, उन्होंने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया कि 12 अक्टूबर को मस्जिद में जो हुआ वह गलत था.
उनका कहना है कि, “मुसलमानों को गाँव के बाहर से इमाम नियुक्त करने से रोकना भी गलत है. उन्हें इमाम रखने का अधिकार है. चुनाव समाप्त होने के बाद मैं इस मुद्दे को संभाल लूंगा.”