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Saturday, May 18, 2024
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सरकारी स्कूलों में उर्दू टीचर नहीं रखने के कारण नई नस्ल उर्दू से दूर हो गई: हामिद अंसारी

हिन्दुस्तान उर्दू का घर है तो उसे बेघर क्यों किया गया? उसको यतीम क्यों किया गया: हामिद अंसारी

इंडिया टुमारो

नई दिल्ली | उर्दू पत्रकारिता के 200 साल पूरे होने पर देश के अलग-अलग राज्यों में कार्यक्रम आयोजित किये जा रहे हैं. इसी क्रम में बुधवार को दिल्ली में भी एक भव्य कार्यक्रम हुआ जिसमें उर्दू पत्रकारिता और उसके इतिहास पर विस्तार से चर्चा की गई.

देश के पूर्व उप-राष्ट्रपति और शिक्षाविद हामिद अंसारी ने कार्यक्रम में अपनी बात रखते हुए कहा कि, “आंकड़े बताते हैं कि हर दस साल में उर्दू बोलने वालों की संख्या कम हो रही है. सरकारी स्कूलों में उर्दू टीचर नहीं रखने के कारण नई नस्ल उर्दू से दूर हो गई है.”

उन्होंने कहा, उर्दू अब हिंदुस्तान की ही ज़बान नहीं है बल्कि ये दुनिया भर में बोली जाने वाली ज़बान हो चुकी है. हालांकि, हिंदुस्तान और ख़ासकर उत्तर प्रदेश में सभी सरकारों में इसके साथ इसके साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया गया. छात्र अब उर्दू से दूर हो चुके हैं.

हामिद अंसारी ने उर्दू पत्रकारिता के अलग-अलग बिन्दुओं पर प्रकाश डाला. उन्होंने कहा कि दो सौ साल के उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में आखरी 75 साल को छोड़ दें तो बाकी समय गुलामी में गुज़रा जहाँ कोई अख़बार निकालना बहुत मुश्किल था.

उर्दू पत्रकारिता के 200 वर्ष पूरे होने पर बुधवार (30 मार्च 2022) को नई दिल्ली के इंडियन इस्लामिक कल्चरल सेंटर (IICC), में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया जिसमें भारत के पूर्व उप-राष्ट्रपति और शिक्षाविद हामिद अंसारी, जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री पदम् भूषण गुलाम नबी आज़ाद, शिक्षाविद अख्तरुल वासे, राज्यसभा सांसद व अख़बार ए मशरिक के एडिटर नदीमुल हक़, मासूम मुरादाबादी, डॉ फारुकी समेत शिक्षा जगत और उर्दू पत्रकारिता से जुड़े कई लोग शामिल रहे. पूर्व राज्यसभा सांसद मीम अफज़ल ने इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की.

उर्दू पढ़ने वालों की संख्या कम होने पर चिंता जताते हुए हामिद अंसारी ने कहा कि, “देश में आबादी बढ़ रही है, इस तुलना में उर्दू बोलने वालों की भी आबादी बढ़नी चाहिए लेकिन ऐसा नहीं है जो कि दुर्भाग्यपूर्ण है.

उन्होंने कहा कि ज़्यादातर स्टूडेंट्स को उर्दू नहीं आती, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में, जबकि बिहार में स्थिति कुछ बेहतर है.

हामिद अंसारी ने कहा कि, “जवाहर लाल नेहरू ने कई बार कहा कि उर्दू हमारी ज़बान है लेकिन ऐसा अमल में नहीं आसका.”

उर्दू के साथ सौतेले व्यवहार पर हामिद अंसारी ने कहा कि, “एक अख़बार में किसी बुद्धजीवी ने लिखा है कि उर्दू का घर हिंदुस्तान है. सवाल ये है कि अगर उसका ये घर है तो उर्दू को उसके घर से बेघर क्यों किया गया? अगर घर है तो उसको यतीम क्यों किया गया?”

हामिद अंसारी ने कहा, “ज़बान उस वक़्त भुला दी जाती है जब उसकी ज़रूरत नहीं समझी जाती. और जब एक बार भुला दी गई तो दोबारा उसको ज़िन्दा करना मुश्किल होता है.”

उन्होंने कहा कि, सरकारी नियम के होने के बावजूद स्कूलों में उर्दू की तालीम नहीं होती है. स्कूल में उर्दू के शिक्षक नहीं रखे जाते हैं.

उन्होंने आगे कहा, “स्कूल में उर्दू के लिए सरकारी नियम हैं जिसके तहत उर्दू की पढ़ाई के लिए निश्चित संख्या में छात्र होते हैं तब टीचर रखा जाता है. अक्सर स्टूडेंट नहीं होते तो टीचर भी नहीं रखा जाता है. आप दिल्ली या कहीं और देख सकते हैं दिल्ली या कहीं और कि उर्दू टीचर नहीं रखा जाता.”

उन्होंने सवाल उठाते हुए कहा, “अगर उर्दू अध्यापक नहीं रखे जाएंगे तो छात्र कहाँ से मिलेंगे?” इस स्थिति में ज़रूरी है कि घरों पर उर्दू की तालीम भी होनी चाहिए. जब उर्दू पढने वाले होंगे तो स्कूलों में टीचर भी मिलेंगे और उर्दू की शिक्षा भी होगी.

जम्मू और कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री पदम् भूषण गुलाम नबी आज़ाद ने उर्दू सहाफत के पीछे रहने के कई कारण बताये. उन्होंने कहा कि सरकार उर्दू अख़बारों को विज्ञापन नहीं देती इसलिए उर्दू अख़बारों को अपने ख़र्च निकाल पाना मुश्किल होता है.

गुलाम नबी आज़ाद ने बताया कि जब वह सरकार में मंत्री थे उर्दू अख़बारों के विज्ञापन के लिए अलग से व्यवस्था किये. लगभग 95 प्रतिशत विज्ञापन अंग्रेज़ी अख़बारों को जाता था जिसे कम कर के 50 प्रतिशत किया और उर्दू को 10 प्रतिशत विज्ञापन देना सुनिश्चित किया.

उन्होंने कहा कि सरकार उर्दू पढ़ाने, उर्दू शिक्षक रखने के साथ-साथ उर्दू अख़बारों को विज्ञापन देखर भी उर्दू को फरोग दे सकती है.

प्रो. अख्तरुल वासे ने अपनी बात साझा करते हुए कहा कि, “हरिहरदास ने सबसे पहला अख़बार कोलकाता से निकाला जो ये साबित करता है कोई ज़बान किसी मज़हब की नहीं होती बल्कि ज़बान को मज़हब की ज़रूरत होती है.”

वरिष्ठ पत्रकार और पूर्व राज्यसभा सांसद मीम अफज़ल ने कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कहा, “भारत पाकिस्तान बटवारे के समय 70 के क़रीब उर्दू अखबार पाकिस्तान में थे, बाकी 400 से ज़्यादा अख़बार हिंदुस्तान में रहे.”

वरिष्ठ पत्रकार मीम अफज़ल ने कहा, “हरिहर दत्ता ने 1822 में जाम-ए-जहां नुमा नाम से पहला उर्दू अखबार निकाला था. उन्होंने यह अख़बार कोलकाता से निकाला. यह साबित करता है कि उर्दू किसी मज़हब की ज़बान नहीं रही.”

उन्होंने कहा, “उर्दू उत्तर प्रदेश के किसी भी प्राइमरी स्कूल में नहीं पढ़ाई जाती. उर्दू को खत्म करने का प्रयास हो रहा है. उर्दू अगर ज़िंदा रखना है तो उर्दू अपने घरों में पढ़ाई जानी चाहिए. नई नस्ल को उर्दू पढ़वाने की ज़रूरत है.”

कार्यक्रम में कई नामी पत्रकारों को सम्मानित भी किया गया.

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