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Sunday, May 19, 2024
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फिर से खुलते स्कूल: क्या बच्चों को हुए शैक्षिक नुकसान की भरपाई की कोशिश हो रही है?

सआदत हुसैन

कोविड-19 महामारी, भारतीय समाज के लिए एक लंबी चलने वाली चुनौती रही है, कोविड की एक के बाद एक आने वाली लहर ने न सिर्फ दुनिया भर में लाखों लोगों की जान ली बल्कि लोगों की आम दिनचर्या को बुरी तरह से प्रभावित भी किया. ओमिक्रोन के गुज़रने के बाद यूनिफार्म पहने हंसते मुस्कुराते बच्चों को स्कूल जाते देखकर लगता है कि शायद अब सब कुछ सामान्य हो जाएगा लेकिन अभी भी कई मुद्दे हैं जो अनसुलझे हैं. इस महामारी के तो अपने प्रभाव हैं ही लेकिन इससे अलग के एक पहलू यह भी है कि जल्दबाज़ी में लगाये गए प्रतिबंधों और लॉकडाउन ने समाज और उसके संस्थानों में अव्यवस्था पैदा कर दी है.

कोरोना महामारी ने दुनिया की स्वास्थ्य प्रणाली, शिक्षा प्रणाली, आर्थिक प्रणाली और राजनीतिक व्यवस्था को बुरी तरह से प्रभावित किया. अगर हम भारत की ही बात करें तो विभिन्न अध्ययनों से यह सिद्ध हो चुका है कि यहां कोरोना काल में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की नाकामी सबके सामने ज़ाहिर हो गयी थी. गंगा के किनारे तैरते शवों की तस्वीरें और व्हाट्सएप ग्रुपों पर चिकित्सा सहायता के लिए की गयी अपीलें, सब एक निशान के रूप में अभी भी वहीं के वहीं मौजूद है. स्वास्थ्य व्यवस्था के साथ-साथ जिस सामाजिक व्यवस्था की सड़न उजागर हुई वह शिक्षा व्यवस्था है.

कोरोना की पहली लहर के दौरान, जब शिक्षा प्रणाली में लंबे समय से चलते आ रहे ऑफ़लाइन शिक्षण को सुनियोजित ढंग के साथ ऑनलाइन प्रणाली में बदलने की कवायद शुरू की गई तो सबसे पहले सामने आने वाली चुनौतियां थी – डिजिटल विभाजन और शिक्षकों और छात्रों को ऑनलाइन टूल का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षण देना. मोबाइल डेटा की कमी से लेकर गरीबी के कारण आत्महत्या करने तक, ऐसी कई चीज़ें रहीं जिन्होंने छात्रों को ऑनलाइन होने से रोका, तथाकथित डिजिटल इंडिया में अचानक से आया ये डिजिटल परिवर्तन किसी भी चीज़ की तुलना में अधिक चौंकाने वाला था.

इन्हीं सब कारणों से ‘लर्निंग लॉस’ का सिद्धांत सामने आया है. शिक्षकों को चिंता है कि मौजूदा व्यवस्था में छात्रों, विशेष रूप से युवा लोगों की बुनियादी साक्षरता की समझ कमज़ोर हो रही है. कई अध्ययनों ने भी लर्निंग लॉस या सीखने की हानि की बात की है. हालाँकि, इस शब्द के साथ एक समस्या है. एक सार्वजनिक संगोष्ठी में, एआईएफआरटीई की प्रोफेसर अनीता रामपाल इसे ‘सीखने से वंचित किया जाना’ कहकर परिभाषित करना पसंद करती हैं, क्योंकि हानि या नुकसान के उलट अभाव या किसी को किसी चीज़ से वंचित किये जाने की प्रक्रिया में शिक्षा प्रदान करने में सिस्टम की विफलता शामिल होती है और इससे यह भी साबित होता है कि शिक्षा प्रणाली के विभिन्न तत्त्व छात्रों तक शिक्षा पहुंचाने में विफल हो रहे हैं.

संक्षेप में कह सकते हैं कि गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने में राज्य असमर्थ रहा और इसके परिणामस्वरूप आधारभूत साक्षरता और सामान्य अंक ज्ञान का लगातार नुकसान हुआ है. महामारी के सबसे मुश्किल वक़्त के दौरान दुनिया भर की कई दूसरी सरकारों की भांति भारत सरकार ने भी इसे एक असाधारण स्थिति बताते हुए अपनी विफलताओं को छिपाने का प्रयास किया, जिससे निपटना लगभग असंभव है, लेकिन वास्तविकता यह है कि शिक्षा या स्वास्थ्य के लिए कोई ठोस समाधान उपलब्ध ही नहीं कराया गया, जबकि ऐसा किया जा सकता था. अतः इस मामले में ‘हानि’ की अपेक्षा ‘वंचित करना’ ज़्यादा उपयुक्त शब्द है.

अब चूंकि स्कूल फिर से खुल रहे हैं, तो मैं आपका ध्यान दो महत्वपूर्ण अध्ययनों की ओर आकर्षित कराना चाहूंगा जो सीखने की हानि/सीखने से वंचित किये जाने की बात को सही साबित करते हैं. यूनिसेफ और अज़ीम प्रेमजी विश्वविद्यालय के अध्ययन में सीखने की हानि/सीखने से वंचित किये जाने को देखा गया है, यूनिसेफ के अध्ययन में निम्न बातें पाई गई हैं :-

• भारत में, 14-18 वर्ष की आयु के 80 प्रतिशत बच्चों में शारीरिक रूप से स्कूल जाने की तुलना में शिक्षा का निम्न स्तर देखा गया.

• भारत में, 6-13 वर्ष के बीच के 42 प्रतिशत बच्चे स्कूल बंद होने के दौरान किसी भी दूरस्थ या ऑनलाइन शिक्षा का लाभ नहीं ले पाए.

दक्षिण एशिया के यूनिसेफ के क्षेत्रीय निदेशक जॉर्ज लारिया-अडजेई के अनुसार “दक्षिण एशिया में स्कूल बंद होने के बाद कमज़ोर इंटरनेट कनेक्टिविटी वाले कई इलाक़ो के लाखों बच्चों उनके शिक्षकों दूरस्थ या ऑनलाइन शिक्षा के लिए मजबूर होना पड़ा.” उन्होंने यह भी कहा कि, “किसी परिवार के पास प्रौद्योगिकी तक पर्याप्त पहुंच होने के बावजूद भी कई बार बच्चे हमेशा ऑनलाइन शिक्षा का उपयोग नहीं कर पाते हैं. नतीजतन, बच्चों की सीखने की यात्रा में कई बाधाएं उत्पन्न हो गई हैं.”

एपीयू ने शुरू में अपने स्वयं के स्कूलों का अध्ययन किया और पाया कि टोंक जिले के उनके एक स्कूल में, लगभग 60% छात्र डिजिटल कक्षाओं का लाभ नहीं ले सके. उनके अनुसार ऑनलाइन कक्षाएं अप्रभावी रही. अगस्त 2021 के दौरान एक और अध्ययन ने सुझाव दिया कि :

• सभी कक्षाओं के 92% बच्चों ने पिछले वर्ष की तुलना में एक विशिष्ट भाषा की योग्यता (specific language ability) खो दी है.

• सभी कक्षाओं में औसतन 82% बच्चों ने पिछले वर्ष की तुलना में एक विशिष्ट गणितीय योग्यता (specific mathematical ability) खो दी है.

इन अध्ययनों को हमें खुदसे अलग करके नहीं देखना चाहिए, अगर हम अपने परिवेश का आकलन करते हैं, तो शायद हमें भी इसी तरह के परिणाम मिलते हैं. लर्निंग लॉस सिद्धांत बताता है कि अगर राज्य डिजिटल डिवाइड के मसले को सुलझा भी लेता है, तो भी लर्निंग डेप्रिवेशन या शिक्षा से वंचित हो जाने की समस्या बनी रहेगी.

कोविड-19 के शुरुआती चरण के दौरान, स्कूल ड्रॉपआउट दर बढ़ने को लेकर आशंकाए व्यक्त की जा रही थी, और यह आशंकाएं तब सच साबित हो गई जब अगस्त 2021 में शिक्षा, महिलाओं, बच्चों, युवाओं और खेल के लिए बनी एक संसदीय समिति ने पाया कि UDISE रिपोर्ट 2019-20 के अनुसार लड़कों के ड्रॉपआउट में 17% और लड़कियों के ड्रॉपआउट में 15% की वृद्धि हुई है. इसके अलावा, शीतकालीन संसदीय सत्र 2021-22 के दौरान यह अंतर और बढ़ गया, रिपोर्ट ने सुझाव दिया कि 320 मिलियन विद्यार्थी स्कूल बंद होने से प्रभावित हुए, और इनमें लड़कियों की संख्या अधिक रही.

एएनआई ने 21 फरवरी, 2022 को बताया कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने शिक्षा मंत्रालय द्वारा आयोजित एक वेबिनार में कहा कि है कि भारत में डिजिटल विभाजन कम हो रहा है. उन्होंने यह भी कहा कि डिजिटल शिक्षा ने महामारी के दौरान शिक्षा प्रणाली को जीवित रखा. लेकिन क्या यह उसी प्रकार ज़िंदा रखा गया है जिस प्रकार लाइफ सपोर्ट पर किसी मरीज़ को रखा जाता हैं? क्या रिकवरी और सुधार के लिए सरकार के पास कोई और ठोस योजना है? क्या किसी भी मायने में महामारी के दौरान गुणवत्तापूर्ण शिक्षा कायम रह पाई थी?

स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों को फिर से खोलने को लेकर चिंता और मांग बताती है कि वर्तमान ऑनलाइन अध्यापन और शिक्षण (महामारी के दौरान) शिक्षा प्रदान करने में नाकाम रहा है. सीखने की हानि/सीखने से वंचित होने के बारे में रिपोर्टें यह भी दर्शाती हैं कि ऑनलाइन शिक्षा कभी भी ऑफ़लाइन शिक्षण और सीखने की जगह नहीं ले सकती हैं. समाधान के तौर पर ‘मेटावर्स’ को भी जांचने की ज़रूरत है साथ ही इस पर सवाल करना भी ज़रूरी है कि क्या यह सुविधा भविष्य में तकनीक तक सबकी पहुंच और शिक्षण के उद्देश्य दोनों के मुद्दे को हल करेगी? न तो हालिया बजट में और न ही हाल ही में ऊपर उल्लिखित वेबिनार पर पीएम के भाषण में सीखने की हानि और ड्रॉप-आउट बढ़ने के मुद्दे पर कोई बात की गई है. क्या बच्चों के हितों को नज़रअंदाज़ करना उन्हें वंचित किये जाने के समान नहीं है?

आगे की राह

कुछ महत्वपूर्ण सुझावों पर यहां चर्चा की जा सकती है. सबसे पहले, यूनिसेफ 2 ने सुझाव दिया कि तीन व्यापक समूह हस्तक्षेप करें, वो समूह हैं:

राज्य, शिक्षक समुदाय, माता-पिता और नागरिक समाज.

राज्य:

  • गुणवत्तापूर्ण शिक्षा के साथ स्कूलों को सुरक्षित रूप से फिर से खोलना सुनिश्चित करें.
  • शिक्षकों का टीकाकरण करें.
  • हाइब्रिड मॉडल का उपयोग करने के लिए शिक्षकों को प्रशिक्षित करें, विभिन्न शिक्षण तकनीकों के साथ छात्रों को आकर्षित करने के लिए शिक्षकों का मार्गदर्शन करें और शिक्षा में निवेश को बढ़ाये.

शिक्षक समुदाय : बच्चों के सीखने के स्तर और मूलभूत साक्षरता का आकलन करें और सीखने की प्रक्रिया को पहले जैसा बनाया जाना सुनिश्चित करें.

नागरिक समाज : सरकार और शिक्षकों के बीच एक पुल की तरह काम करें.

माता-पिता : घर पर होने वाली शिक्षा के लिए समर्थन और मार्गदर्शन.

झारखण्ड के छितरपुर के एक शिक्षक, साजिद अहमद, जो ‘स्कूलेज़ियम’ नामक एक वैकल्पिक स्कूल चलाते हैं, का कहना है कि वर्तमान में, स्कूल को फिर से खोलने को लेकर सरकार और नागरिक समाज को छात्रों का आकलन करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है कि वास्तव में सीखने में ऐसा क्या है जो खो गया है. यह आकलन वैज्ञानिक रूप से होना चाहिए और उसी के अनुसार समस्याओं का समाधान करना चाहिए. उन्होंने कहा, “एक डेटा बताता है कि पूरे भारत में केवल 24% विद्यार्थियों ने ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लिया है, और इन छात्रों का प्रमुख हिस्सा केरल से है. अगर झारखंड की बात करें तो यहां केवल 15% विद्यार्थियों ने ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लिया.”

इस संदर्भ में, कुछ अभ्यास और सिफारिशें देखने को मिली हैं. लर्निंग लॉस को ठीक करने के लिए एक दृष्टिकोण शाहीन एजुकेशन फाउंडेशन द्वारा दिया गया है जिसका नाम एआईसीयू (एकेडमिक इंटेंसिव केयर यूनिट) है और दूसरा दिल्ली सरकार के तीन चरण के फॉर्मूले हैं.

शाहीन एजुकेशन फाउंडेशन ने लर्निंग लॉस को ठीक करने के लिए AICU 3 की शुरुआत की है. यह प्रत्येक छात्र की समझ के वर्तमान स्तर से शुरू होता है. एआईसीयू में शिक्षण पद्धति में शामिल बातें हैं :- व्यक्तिगत क्षमता और सीखने के पैटर्न के लिए बनाए गए विशेष टेलर मेड, व्यक्तिगत रूप से ध्यान देते हुए हर एक के साथ अलग ध्यान, प्रतिदिन क्लास वर्क और होम वर्क, आसान उदाहरणों के साथ समस्या सुलझाना, अच्छी लिखावट के लिए अभ्यास, और साथ ही शिक्षण सामग्री प्रदान किया जाना शाहीन एजुकेशन फाउंडेशन के समाधान में शामिल है.

दिल्ली सरकार ने जून 2021 में नर्सरी से 12वीं कक्षा तक के विद्यार्थियों के लिए तीन चरण की कार्य योजना 4 पेश की है. पहले चरण में, स्कूल छात्रों के साथ फिर से जुड़ना शुरू कर दिया जाएगा. स्कूल और शिक्षक इस चरण में छात्रों और अभिभावकों से संपर्क करेंगे और संपर्क विवरण अपडेट करेंगे. दूसरे चरण में स्कूल भावनात्मक सहयोग देंगे और सीखने की प्रक्रिया में आये अंतर को कम करेंगे.

तीसरे चरण में, स्कूल उन ऑनलाइन कक्षाएं शुरू करने के साथ उन अभिभावकों को असाइनमेंट और वर्कशीट की हार्ड कॉपी प्रदान करना शुरू कर देंगे, जिनके पास शिक्षा के लिए डिजिटल पहुंच नहीं है. चूंकि शिक्षा समवर्ती सूची में है, इसलिए राज्य सरकारों को इन हालातों को दूर करने के लिए बच्चों और शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए सख्त और वैज्ञानिक मूल्यांकन द्वारा बच्चों को सीखने के नुकसान से उबरने में सहायता करने के लिए अभिनव कदम उठाने की आवश्यकता है.

(लेखक ज़ाकिर हुसैन सेंटर फॉर एजुकेशनल स्टडीज, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली में पीएचडी स्कॉलर हैं)

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