-सैयद ख़लीक अहमद
नई दिल्ली | मुस्लिम समुदाय अपने राजनीतिक और सामाजिक अधिकारों को लेकर पहले से अधिक मुखर नज़र आरहा है. वह भारतीय राजनीति में अपने स्थान और प्रमुख सेक्युलर राजनीतिक दलों की मुसलमानों के प्रति सोच को लेकर लगातार समीक्षा कर रहा है.
मुस्लिम समुदाय के कुछ राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक नेताओं ने यह प्रश्न उठाया है कि भारत में प्रमुख राजनीतिक दल और उनके नेता अपने भाषणों और आधिकारिक बयानों में मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल करने से परहेज़ कर रहे हैं और मुस्लिम शब्द के बजाए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द का प्रयोग कर रहे हैं, जो देश की कुल आबादी का लगभग 20 प्रतिशत हिस्सा है.
जिन लोगों ने मुस्लिम समुदाय के लिए इस वैकल्पिक शब्द “अल्पसंख्यक” के इस्तेमाल पर आपत्ति जताई है, उनका मानना है कि मुसलमानों के लिए इसका इस्तेमाल समुदाय के लिए बहुत अप्रिय और शर्मनाक है. अब सवाल उठता है कि क्या मुस्लिम शब्द इतना अपमानजनक या अप्रिय है कि जिसकी वजह से राजनीतिक दल अपने निजी और सार्वजनिक भाषणों में इसका उपयोग करने से बचते हैं और उन्होंने इसके लिए वैकल्पिक अभिव्यक्ति का ‘माइनॉरिटी’ शब्द का आविष्कार भी कर लिया है?
मुसलमानों के एक बड़े वर्ग ने अब राजनीतिक संगठनों और भाजपा शासित राज्यों की सरकारों द्वारा अपने आधिकारिक वार्तालाप में मुस्लिम समुदाय के लिए ‘अल्पसंख्यक’ शब्द के लगातार उपयोग पर सवाल उठाना शुरू कर दिया है. न केवल मुस्लिम नेता और कार्यकर्ता, बल्कि आम मुसलमान भी मुसलमानों को “अल्पसंख्यक” कहे जाना अपमानजनक मानते हैं.
आखिर राजनीतिक दलों और उनके नेता मुसलमानों की धार्मिक पहचान छुपाकर उनका ज़िक्र क्यों करते हैं? हालांकि सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध, पारसी आदि जैसे अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के मामले में ऐसा नहीं होता है. राजनीतिक दल उनकी धार्मिक पहचान के साथ उनका ज़िक्र करते हैं और साथ ही अल्पसंख्यक के रूप में भी उनका उल्लेख करते हैं.
पिछले हफ्ते नई दिल्ली के जवाहर भवन में पूर्व कांग्रेस सांसद मोहम्मद अदीब की अध्यक्षता में इंडियन मुस्लिम्स फॉर सिविल राइट्स (आईएमसीआर) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में यह मुद्दा खुलकर उठाया गया.
इस कार्यक्रम में हाल ही में चुने गए 10 से अधिक मुस्लिम सांसद, पूर्व सांसद और मंत्री, साथ ही समुदाय के शीर्ष धार्मिक नेता भी शामिल थे. यह कार्यक्रम इस बात पर विचार-विमर्श करने के लिए आयोजित किया गया था कि 2014 के बाद जब से भाजपा के नेतृत्व वाला एनडीए केंद्र में सत्ता में आया है और गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं तब से मुसलमानों के सामने पैदा हुई चुनौतियों से निपटने के लिए मुसलमानो को क्या करना चाहिए.
मोदी ने पिछले महीने अपनी पार्टी बीजेपी और अपने चुनावी सहयोगियों द्वारा लोकसभा चुनावों में बहुमत हासिल करने के बाद तीसरी बार पीएम पद की शपथ ली है, हालांकि उन्हें 2014 और 2019 की तुलना में कम सीटें मिलीं हैं.
मुस्लिम नेताओं की नाराज़गी यह है कि मुसलमान विपक्षी दलों को वोट देते रहे हैं और उन्होंने सत्ताधारी दल के प्रतिशोध के डर के बिना पूरे देश में बड़े पैमाने पर वोट देकर विपक्षी इंडिया गठबंधन को मज़बूत करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद, बिहार के कुछ भाजपा सांसदों जैसे जदयू के देवेश चंद्र ठाकुर, जिनकी पार्टी एनडीए सहयोगी है, ने तो खुले तौर पर कहा है कि वह मुसलमानों के लिए कोई काम नहीं करेंगे क्योंकि उनके निर्वाचन क्षेत्र के मुसलमानों ने उन्हें वोट नहीं दिया.
मोहम्मद अदीब जैसे नेताओं ने कहा कि कांग्रेस नेता राहुल गांधी भी अपने भाषणों में मुस्लिम समुदाय का ज़िक्र करते हैं तो मुस्लिम शब्द का इस्तेमाल करने से बचते हैं. अदीब ने कहा कि यह बहुत परेशान करने वाला लगता है कि जिस समुदाय ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान और उसके बाद देश के लिए बहुत बड़ा योगदान दिया हो, उसकी पहचान को राजनीतिक दलों द्वारा छुपाया जा रहा है.
इस मुद्दे को धार्मिक नेता मौलाना सज्जाद नोमानी ने भी अपने भाषण में प्रमुखता से उठाया. उन्होंने कहा कि सपा पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव और कुछ कांग्रेस नेताओं के साथ हुई अपनी बैठकों में इन नेताओं द्वारा अपने भाषणों और बयानों में मुस्लिम शब्द से परहेज़ करने और इसके बजाय ‘अल्पसंख्यक’ के रूप में ज़िक्र करने पर नाराज़गी व्यक्त की.
उन्होंने कहा कि ‘अल्पसंख्यक’ शब्द को मुस्लिम शब्द के स्थान पर नहीं रखा जा सकता है, इसके बावजूद कि भारत की आबादी के बहुसंख्यक हिंदुओं की तुलना में मुस्लिम अल्पसंख्यक ही हैं.
क्या राजनीतिक दल हिंदुओं के स्थान पर बहुसंख्यक शब्द का प्रयोग करते हैं? यदि वे हिंदुओं के लिए वैकल्पिक शब्द का उपयोग नहीं करते हैं, तो किसी भी मौखिक या लिखित संवाद में मुसलमानों का ज़िक्र करते समय वैकल्पिक शब्द का उपयोग क्यों किया जा रहा है? क्या राजनीतिक दलों और उनके नेताओं को ‘मुस्लिम’ शब्द से किसी खास किस्म की एलर्जी है?
हालाँकि, कार्यक्रम में भाग लेने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं और कार्यकर्ताओं ने इंडिया टुमारो को बताया कि भाजपा के पक्ष में मतदाताओं, विशेषकर हिंदू मतदाताओं के ध्रुवीकरण से बचने के लिए विपक्षी दल जानबूझकर अपने भाषणों में ‘मुस्लिम’ शब्द के इस्तेमाल से परहेज़ करते हैं.
उन्होंने कहा कि भाजपा का अस्तित्व पूरी तरह से हिंदू मतदाताओं के ध्रुवीकरण पर टिका हुआ है, न कि उसकी सरकार द्वारा किए गए किसी विकास संबंधी कार्यों या किसी अन्य उपलब्धि पर. भाजपा के पास लोगों को दिखाने के लिए कोई विकास कार्य नहीं है.
वक्ताओं ने यह भी कहा कि ऐसी स्थिति में जहां प्रधानमंत्री चुनावों के दौरान ही नहीं बल्कि आम दिनों में भी मुसलमानों के खिलाफ नफरत भरे भाषणों और इस्लामोफोबिया में शामिल रहते हों वहां विपक्षी राजनीतिक दलों द्वारा बार-बार मुस्लिम शब्द का उल्लेख केवल भाजपा को फायदा पहुंचायेगा और धर्मनिरपेक्ष विपक्षी दलों के साथ-साथ मुसलमानों की भी संभावनाओं को नुकसान होगा.
कार्यक्रम में भाग लेने के लिए दिल्ली से 500 किमी दूर लखनऊ से आए एक मुस्लिम सपा नेता ने कहा कि मुसलमानों के खिलाफ पीएम मोदी और भाजपा नेताओं के आक्रामक भाषणों और टिप्पणियों पर मुसलमानों द्वारा प्रतिक्रिया नहीं दिए जाने से भाजपा की ध्रुवीकरण की कोशिशें कमज़ोर हुई हैं और इससे विपक्षी दलों को अधिकतम सीटें जीतने में मदद मिली. इनमें अयोध्या की सीट भी शामिल है जहां बीजेपी ने राम मंदिर बनाकर वोट भुनाने की कोशिश की थी और इसी साल जनवरी में पीएम मोदी ने मन्दिर का उद्घाटन भी किया था.
उनका कहना है कि राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक मुस्लिम नेताओं ने भाजपा नेताओं के भड़काऊ भाषणों पर प्रतिक्रिया न देकर उच्च स्तर की राजनीतिक परिपक्वता का परिचय दिया है. गैर-भाजपा राजनीतिक दलों के मुसलमानों को लगता है कि न केवल राजनीतिक दलों में बल्कि व्यवसायों सहित किसी भी अन्य क्षेत्र में मुस्लिम पहचान का बहुत अधिक प्रदर्शन मुसलमानों के हित में नहीं होगा क्योंकि कई दशकों से भाजपा और उसके नेताओं द्वारा मुस्लिम विरोधी अभियान चलाये जाने की वजह से भारत इस समय हिंदू-मुस्लिम ध्रुवीकरण के चरम पर है.
कांग्रेस, समाजवादी और अन्य पार्टियों के मुस्लिम नेताओं का कहना है कि मुस्लिम पहचान का बहुत अधिक दिखावा करने से मुस्लिम समुदाय या उसके लोगों को समर्थक नहीं मिल पाते हैं. मुसलमानों को मुस्लिम समुदाय को मिलने वाले अधिकारों को पाने के लिए संवैधानिक, लोकतांत्रिक और कानूनी भाषा का उपयोग करके एक आम नागरिक के रूप में संवाद करने की आवश्यकता है.
वे नागरिकता (संशोधन) अधिनियम- (सीएए), 2019 के खिलाफ शाहीन बाग आंदोलन का उदाहरण देते हैं जब विश्वविद्यालय और कॉलेज-शिक्षित मुस्लिम लड़के और लड़कियों ने मुस्लिम विरोधी सीएए के खिलाफ संवैधानिक भाषा का इस्तेमाल किया और भाजपा नेताओं की समाज का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिशों को विफल कर दिया.
हालांकि सरकार ने अभी तक नागरिकता सम्बन्धी संशोधनों को वापस नहीं लिया है और ना ही रद्द किया है लेकिन मुसलमानों ने विरोध प्रदर्शन करते हुए नैतिक जीत हासिल की और मुस्लिम विरोधी कानून लाने के लिए भाजपा सरकार को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा.
धर्मनिरपेक्ष दलों के मुस्लिम नेताओं का कहना है कि यदि हम सार्वजनिक रूप से अपनी धार्मिक पहचान का बहुत अधिक प्रदर्शन करते हैं तो मुस्लिम उम्मीदवार ऐसे किसी भी निर्वाचन क्षेत्र में चुनाव नहीं जीत सकते हैं जहां मुस्लिम अल्पसंख्यक हैं. समाजवादी पार्टी के टिकट पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश की कैराना सीट से सांसद चुनी गईं इकरा चौधरी ने कहा कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में मुसलमानों की आबादी बमुश्किल 30 प्रतिशत है, फिर भी वह जीत गईं. इससे पहले, उनके पिता और मां ने धर्मनिरपेक्ष हिंदुओं के समर्थन से सीट जीती थी.
सपा के अफ़ज़ाल अंसारी ने ग़ाज़ीपुर से 1.24 लाख से अधिक वोटों से जीत हासिल की. गाज़ीपुर एक ऐसी लोकसभा सीट है जहां 89 प्रतिशत से अधिक आबादी हिंदू है, और मुसलमानों की आबादी केवल 10 प्रतिशत है, बावजूद इसके कि ज़्यादा से ज़्यादा लोकसभा सीट जीतने के लिए शीर्ष भाजपा राजनेता यूपी में मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने की कोशिश कर रहे थे, फिर भी गाज़ीपुर से मुस्लिम प्रत्याशी ने जीत दर्ज की.
मुस्लिम नेताओं का कहना है कि मुसलमानों द्वारा धार्मिक पहचान का अत्यधिक प्रदर्शन करना बुद्धिमानी नहीं है क्योंकि भाजपा और संघ परिवार के संगठनों द्वारा समाज का बहुत अधिक सांप्रदायिकरण कर दिए जाने के कारण वर्तमान में किसी भी पार्टी में धार्मिक पहचान के दिखावे का स्वागत नहीं किया जाता है.
इन नेताओं का कहना है कि कांग्रेस और उसके नेताओं, विशेषकर राहुल गांधी ने भाजपा की सांप्रदायिक और विभाजनकारी राजनीति पर सीधा हमला किया है और इससे संसद में बढ़ी हुई सीटों के रूप में अच्छा राजनीतिक लाभ भी मिला है, लेकिन मुसलमानों का किसी भी तरह का अत्याधिक धार्मिक प्रदर्शन निश्चित रूप से धर्मनिरपेक्ष दलों या मुस्लिम समुदाय की मदद नहीं कर पाएगा. यहां तक कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद भी ध्रुवीकरण से बचने के लिए यूपी से लोकसभा चुनाव नहीं लड़ने पर सहमत हो गए.
जो मुसलमान सरकारी नौकरियों में हैं, उनका कहना है कि भारत में साम्प्रदायिकता बहुत गहराई तक पैठ बना चुकी है. उनका कहना है कि मुस्लिम नाम जैसे लगने वाले स्कूलों को अधिकारियों या ट्रस्टों से मान्यता नहीं मिलती है और उनके अपने नाम से पहले ‘अल’ जैसे अरबी उपसर्ग लगाने वाले एनजीओ को विदेशी दान के लिए लाइसेंस मांगते समय बहुत भेदभाव का सामना करना पड़ता है.
उनका सुझाव है कि मुसलमानों को भावनात्मक मुद्दों से उबरने और समुदाय में गरीबी कम करने के लिए मुस्लिम युवाओं के लिए अधिक नौकरियों और व्यवसाय के अवसरों के साथ-साथ कुशल मुसलमानों के स्व-रोज़गार के लिए ब्याज़ मुक्त या रियायती बैंक ऋण की मांग करने के लिए दबाव समूह बनाने की जरूरत है.
बेंगलुरु के सामाजिक और शैक्षिक एक्टीविस्ट सैयद तनवीर अहमद बताते हैं कि किसी संसद सदस्य को मुस्लिम सांसद या हिंदू सांसद के रूप में परिभाषित करना गलत है क्योंकि निर्वाचित सांसद अपने निर्वाचन क्षेत्र की पूरी आबादी का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें सभी धार्मिक विश्वासों के लोग शामिल रहते हैं.
तनवीर अहमद कहते हैं कि मुस्लिम धार्मिक और धर्मनिरपेक्ष नेताओं को राजनीतिक दलो से मुसलमानों को केवल मुसलमान कह कर ज़िक्र करने की मांग की बजाए मुस्लिम नेताओ और कार्यकर्ताओ को अपने क्षेत्रों में स्कूलों, कॉलेजों, अस्पतालों, बैंक शाखाओं और समुदाय के युवाओं के लिए नौकरियों और अन्य लाभों की मांग करनी चाहिए.
हालांकि मुसलमानों के प्रति यह विकृत मानसिकता और रवैया निश्चित रूप से अनुचित है, लेकिन राजनीतिक विशेषज्ञ मुसलमानों को सलाह देते हैं कि वे इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों पर बहुत अधिक दबाव न डालें, क्योंकि यह राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र में समुदाय की संभावनाओं को नुकसान पहुंचाने के अलावा कोई राजनीतिक या आर्थिक लाभ नहीं देगा.
आईएमसीआर के संस्थापक अध्यक्ष मोहम्मद अदीब द्वारा लिखे गए और एक अंग्रेज़ी समाचार पत्र में प्रकाशित एक लेख के अनुसार वह कई राज्यों में आगामी विधानसभा चुनावों में इंडिया गठबंधन सहयोगियों के लिए प्रचार करने की योजना बना रहे हैं. लेकिन मृदुभाषी अदीब को सलाह दी जा रही है कि वह अपने राजनीतिक अभियानों और भाषणों में मुस्लिम पहचान के मुद्दे को न उठाएं.
ऐसा इसलिए क्योंकि इससे न तो उन राजनीतिक दलों का हित सधेगा जिनके लिए वह काम करेंगे और न ही उस समुदाय का हित सधेगा जिसका प्रतिनिधित्व वह करते हैं. उनकी ओर से या उनके समूह से जुड़े किसी भी व्यक्ति की कोई भी नासमझी ध्रुवीकरण को और बढ़ाएगी, जिससे चुनाव में इंडिया गठबंधन की संभावनाएं धूमिल हो जाएंगी.