– सैयद ख़लीक अहमद
नई दिल्ली | प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले छह महीनों में दो बार अपनी पार्टी के नेताओं और कार्यकर्ताओं को पसमांदा (पिछड़े) मुसलमानों से जुड़ने की सलाह दे चुके हैं.
सबसे पहले, उन्होंने जुलाई 2022 में हैदराबाद में भाजपा की दो दिवसीय राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक के समापन सत्र को संबोधित करते हुए अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं और नेताओं से अपील की थी.
अब 18 जनवरी, 2023 को उन्होंने राष्ट्रीय राजधानी में पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में समापन भाषण देते हुए फिर एक बार इसी तरह की अपील की है.
अपनी हालिया अपील में, उन्होंने अपने पार्टी कार्यकर्ताओं से मुस्लिम वोटों को पाने की चाह के बिना मुसलमानों के पास जाने को कहा है.
क्या पीएम मोदी वास्तव में अपने “मुस्लिम आउटरीच कार्यक्रम” के बारे में गंभीर हैं, या यह राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर कुछ निर्वाचन क्षेत्रों को प्रभावित करने के लिए महज़ बयानबाज़ी है? या यह मुस्लिम समुदाय को बांटने और उन्हें राजनीतिक रूप से कमज़ोर करने की एक शातिराना चाल है?
2022 के यूपी विधानसभा चुनावों ने दिखा दिया है कि मुसलमानों ने अपनी विचारधारा और सामाजिक स्थिती से ऊपर उठकर लम्बे अंतराल के बाद अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के लिए भरपूर मतदान किया. क्या भाजपा का शीर्ष नेतृत्व इससे हतोत्साहित हुआ? इन चुनावों में कांग्रेस, सपा, बसपा आदि जैसे विभिन्न दलों के बीच मुस्लिम वोटों का विभाजन हुआ था और इसकी वजह से उत्तर भारतीय राज्यों में चुनाव जीतने में भाजपा का काम आसान हो गया था.
हैरानी की बात है कि पीएम मोदी की अपील को मुस्लिम समुदाय या उसके संगठनों के बीच से इसे गंभीरता से नहीं लिया गया है, गौरतलब है कि पीएम मोदी की इस तरह की बातों को मुस्लिम समाज बिलकुल भी गंभीरता से नहीं लेता है.
इससे पता चलता है कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रमुख और देश के सबसे बड़े धार्मिक और सांस्कृतिक अल्पसंख्यक समुदाय के बीच विश्वास की कितनी कमी है.
पीएम ने अपनी दोनों अपील में से किसी में भी मुस्लिम अल्पसंख्यको और उनकी पार्टी की खाई को पाटने के लिए अपना दृष्टिकोण स्पष्ट नहीं किया है. ऐसा लगता है कि पीएम मोदी की अपील मुस्लिम बुद्धिजीवियों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और विचारकों को भी संतुष्ट करने में विफल साबित हुई है.
कांग्रेस और अन्य दलों के नेतृत्व वाली पिछली सरकारों के शासनकाल से ही असंख्य समस्याओं का सामना करते आ रहे मुस्लिमों की स्थिति मई 2014 में केंद्र में भाजपा के सत्ता में आने के बाद जबसे मोदी मुखिया बने हैं तब से और भी खराब हो गई है.
कोई भी इस बात से शायद ही इंकार करें क्योंकि पिछले एक दशक से मुसलमानों को आधिकारिक और गैर-आधिकारिक रूप से निशाना बनाए जाने के पर्याप्त सबूत हैं.
लेकिन पीएम मोदी को केवल पसमांदा मुसलमानों, या छोटे दाऊदी बोहरा समुदाय में ही दिलचस्पी क्यों है? बाकी भारतीय मुसलमानों का क्या? क्या पसमांदा के अलावा बाकी मुसलमानों की हालत कुछ बेहतर है और इसलिए वह सिर्फ़ पसमांदा मुसलमानों की ही बात कर रहे हैं?
2002 में गुजरात में मुस्लिम विरोधी हिंसा के दौरान जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब अन्य मुस्लिम ग्रुप्स की तरह ही दाऊदी बोहरा, एक छोटे से शिया समुदाय का भी पीछा किया गया था. जान माल का खतरा होने के कारण दाऊदी बोहरा सुन्नी मुसलमानों के साथ अपने संबंध सुधारने के लिए मजबूर हुए. बोहरा, जो पहले हिंदू कॉलोनियों से सटे पॉश इलाकों में रहते थे, धीरे-धीरे अपनी सुरक्षा के लिए सुन्नी मुस्लिम इलाकों में चले गए.
पसमांदा मुस्लिम, देश में कुल मुस्लिम आबादी का लगभग 80 प्रतिशत है, जैसा कि पसमांदा मुस्लिम महाज़ के नेता और पूर्व राज्यसभा सांसद अली अनवर ने दावा किया है. यदि पीएम मोदी वास्तव में पसमांदा मुस्लिमों के बारे में चिंतित हैं तो क्या पीएम उन्हें सरकारी नौकरियों में अलग आरक्षण देकर, और संसद, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों में सीटों के आरक्षण द्वारा उनका बचाव करेंगे?
चूंकि सरकारी विभाग धीरे-धीरे निजी पार्टियों और कॉरपोरेट्स को सौंपे जा रहे हैं, क्या पीएम मोदी नौकरियों में पसमांदा मुसलमानों और सभी धर्मों के दलितों के लिए कोटा तय करेंगे? क्या पीएम मोदी पसमांदा और दलित मुसलमानों के लिए कोटा का प्रतिशत तय करने के लिए एक अलग जनगणना करेंगे?
क्या पीएम मोदी राष्ट्रीय धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यक आयोग, रंगनाथ मिश्रा आयोग की सिफारिशों को लागू करेंगे? आयोग ने सरकारी नौकरियों में मुसलमानों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण की सिफारिश की थी और सभी धर्मों के दलितों के लिए अनुसूचित जाति का दर्जा देने का समर्थन किया था.
क्या सच्चर कमेटी की रिपोर्ट भी लागू करेंगे पीएम मोदी? सच्चर रिपोर्ट में कहा गया है कि सामूहिक रूप से भारतीय मुसलमानों की शैक्षिक और आर्थिक स्थिति हिंदू दलितों की तुलना में भी सबसे खराब है.
भारत में मुस्लिम समुदाय के सामने आने वाली समस्याओं के समाधान के लिए कमेटी ने कई सिफारिशें की थी. मुख्य सिफारिशों में से कुछ इस प्रकार थी “मुस्लिम शिकायतों को देखने के लिए समान अवसर आयोग का गठन करना, सार्वजनिक निकायों में अल्पसंख्यकों की भागीदारी बढ़ाने के लिए एक नामांकन प्रक्रिया बनाना, एक परिसीमन प्रक्रिया स्थापित करना जो उच्च अल्पसंख्यक आबादी वाले निर्वाचन क्षेत्रों को अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित नहीं करती, रोज़गार में वृद्धि मुसलमानों की हिस्सेदारी, विशेष रूप से जहां सार्वजनिक क्षेत्र की बात है, मदरसों को उच्च माध्यमिक विद्यालय बोर्ड के साथ जोड़ने के लिए सिस्टम तैयार करना, और रक्षा, नागरिक और बैंकिंग परीक्षाओं में पात्रता के लिए मदरसों की डिग्री को मान्यता देना.
सच्चर समिति ने यह भी सुझाव दिया था की नीतियों के निर्धारण में विविधता का सम्मान करते हुए मुस्लिम समुदाय के “समावेशी विकास” और समुदाय उन्हें ‘मुख्यधारा’ में लाने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
इन सिफारिशों को लेकर पीएम की पार्टी और उनकी सरकार का क्या मानना है? स्वतंत्र भारत के इतिहास में, मोदी 2.0 बिना मुस्लिम मंत्री के केंद्र में पहली सरकार है. बीजेपी यह कहने से कभी नहीं कतराती है कि उसे मुस्लिम वोट नहीं चाहिए, इस प्रकार वह मुसलमानों को राजनीतिक रूप से अलग-थलग और हाशिए पर कर रही है.
सभी भाजपा शासित राज्यों में मदरसे हमले का निशाना बनते रहे हैं. असम, यूपी और अन्य राज्यों में कई मदरसा भवनों और हॉस्टल्स को गिरा दिया गया है. मदरसों और छात्रों को योजनाबद्ध तरीके से बदनाम किया जा रहा है. कई मस्जिदों को भी बुल्डोजर चलाकर धराशायी कर दिया गया है जो कि खौफ का प्रतीक बन चुका है.
मोदी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामे में रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट को भी खारिज कर दिया है.
और भी कई घटनाएं हैं जो इंगित करती हैं कि प्रधानमंत्री की अपील केवल जनता को लुभाने के लिए है और यह बिलकुल भी एक ईमानदार अपील नहीं है. मुसलमान गौरक्षा, “घर वापसी”, “लव जिहाद” आदि के नाम पर मॉब लिंचिंग के शिकार बने हैं. कई बीजेपी विधायक, सांसद और यहां तक कि मंत्री और मुख्यमंत्री भी ऐसे हैं, जिन्होंने मुसलमानों के खिलाफ बहुत अधिक भड़काऊ भाषा का इस्तेमाल किया.
एक केंद्रीय मंत्री ने लाइव प्रोग्राम में ही सीएए और एनआरसी विरोधी प्रदर्शनों के दौरान मुसलमानों पर गोली चलाने की बात की थी. एक टीवी चर्चा में एक महिला भाजपा प्रवक्ता ने पैगंबर के खिलाफ आपत्तिजनक भाषा का इस्तेमाल किया, जिससे भारत सरकार की अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी काफी आलोचना हुई थी.
एक चुनावी भाषण में, पीएम ने मुस्लिमो की ओर इशारा करते हुए खुद कहा था कि कुछ लोगों को उनके कपड़ों से पहचाना जा सकता है और इसे राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा मुस्लिम विरोधी टिप्पणी बताया गया था.
सरकार के सर्वोच्च अधिकारी की इस तरह की टिप्पणी नागरिकों को किस तरह का संदेश देती है? क्या यह देश में मुस्लिम विरोधी माहौल बनाने में मदद नहीं करता है?
भारत ने कभी भी सांप्रदायिक विभाजन और तनाव का इतना बुरा दौर नही देखा. देश की आज़ादी के पिछले 75 वर्षों के इतिहास में मुसलमान अब तक के सबसे बुरे दौर से गुज़र रहे हैं.
उम्मीद की जा सकती है कि पीएम मोदी का “मुस्लिम आउटरीच प्रोग्राम” मुसलमानों सहित हर नागरिक के लिए बेहतर स्थिति के रुप में बदलाव लाएगा.