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Friday, March 29, 2024
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भारत जोड़ो यात्रा : बीजेपी की साम्प्रदायिक राजनीति के विरुद्ध राहुल गांधी का मास्टर स्ट्रोक

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | कांग्रेस ने जिस ‘भारत जोड़ो यात्रा’ (पद यात्रा) की शुरुआत की है वह उसे बहुत पहले ही शुरू करना चाहिए था. इस पहल में देर तो हुई है लेकिन कुछ न करने से बेहतर है कि कुछ किया जाए.

जहां तक ​​2024 के लोकसभा चुनावों की बात है, तो राहुल गांधी के नेतृत्व में की जा रही यह यात्रा निस्संदेह बीजेपी और पीएम नरेंद्र मोदी के खिलाफ एक मज़बूत मास्टर स्ट्रोक है. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि कांग्रेस या राहुल गांधी जो पहले बीजेपी के विभाजनकारी मुद्दों पर अक्सर मौन रहा करता थे, विशेष रूप से उन मुद्दों पर जहां भाजपा और आरएसएस मुसलमानों को निशाना बना रही हो, वही कॉंग्रेस और राहुल गांधी अब हिंदू अति-राष्ट्रवादी समूहों का सीधे सामना कर रहे हैं.

भारतीय संस्कृति में पैदल यात्राओं की बहुत अधिक प्रासंगिकता होती है, इसलिए यह यात्रा भी कांग्रेस को जनता से जुड़ने और उन्हें पार्टी के पक्ष में लामबंद करने के अवसर प्रदान करेगी?

मुसलमानों और दलितों पर हो रहे अत्याचारों के कई मुद्दों पर कांग्रेस ने चुप्पी क्यों साध ली थी?

कट्टरपंथी हिंदू समूहों द्वारा की गई मुसलमानों की मॉब लिंचिंग हो या उनकी मस्जिदों और घरों को निशाना बनाया जाना या अंत में मुसलमानों को भारत की हर समस्या के लिए ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाना, हर मुद्दे पर कॉंग्रेस हमेशा चुप रही है.

तथाकथित गौरक्षक और हिन्दू कट्टरपंथी समूहों ने गौमांस की तलाश में मुस्लिम घरों में जबरन घुसकर मुसलमानों को डराया, मुसलमानों को उनके खुदके घरों और निजी संपत्तियों पर नमाज़ पढ़ने से उन्हें रोका, मुस्लिमों का आर्थिक बहिष्कार किया. मुस्लिमों के अलावा भारत के सबसे बड़े राज्य यूपी में जहां मायावती जैसी दलित समुदाय से आने वाली महिला मुख्यमंत्री रही हो, वहां जब सत्ताधारी दल के लोगों ने दलितों को घेर-घेर कर उनपर हमला किया, तब भी कांग्रेस मौन ही रहा. या कभी कोई विरोध किया भी तो दबे स्वर में किया.

शायद, कांग्रेस नेताओं ने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि भाजपा सरकार उन्हें छू भी पाएगी, और इसलिए, उन्हें लगा कि बीजेपी की मुस्लिम विरोधी और दलित विरोधी नीतियों और कार्यों का विरोध करने की ज़रूरत नहीं है. कांग्रेस ने 2014 और 2019 के आम चुनावों में भी सिर्फ इस डर की वजह से अपने मुस्लिम नेताओं को चुनावी प्रचार से दूर रखा कि कहीं भाजपा की विभाजनकारी राजनीति कॉंग्रेस पार्टी के हिंदू समर्थकों को कांग्रेस से दूर न कर दे.

इसे कांग्रेस का ‘सॉफ्ट हिंदुत्व’ कहा गया, और ऐसा एंटनी कमेटी की रिपोर्ट की वजह से भी कहा गया क्योंकि उस रिपोर्ट में मुसलमानों को पार्टी में जनता की निगाहों से दूर रखने की सिफारिश की गई थी. लेकिन इस रणनीति से भी पार्टी को कोई राजनीतिक लाभ नहीं हुआ. इसने पार्टी को और नुकसान ही पहुंचा क्योंकि अपने आप को उपेक्षित और अपमानित महसूस कर रहे मुसलमान दूसरी पार्टियों में चले गए.

ऐसे में एंटनी की सिफारिशों का उल्टा असर हुआ. भाजपा की तरह कांग्रेस ने भी भारतीय राजनीति में मुसलमानों को अप्रासंगिक बनाने का ही काम किया. लेकिन जब 2019 के लोकसभा चुनाव में राहुल गांधी को लगा कि वह अपनी अमेठी सीट स्मृति ईरानी से हार जाएंगे, तो इसके बाद उन्होंने केरल में मुस्लिम बहुल वायनाड से एक और नामांकन दाखिल किया और भारी बहुमत से जीत हासिल की. अगर राहुल गांधी आज लोकसभा सदस्य हैं, तो यह मुसलमानों का अहसान है, वही मुसलमान जिन्हें एंटनी कमेटी ने राजनीतिक रूप से खारिज कर दिया था.

अब कॉंग्रेस के उस गणित पर वापस आते हैं जिसकी वजह से कॉंग्रेस मुस्लिम मुद्दों पर बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही चुप रही थी. दुर्भाग्यवश कॉंग्रेस के यह सारे गणित गलत साबित हुए. क्योंकि मोदी सरकार ने कांग्रेस के शीर्ष नेतृत्व तक को भी नहीं बख्शा. राहुल गांधी और सोनिया गांधी को ईडी (प्रवर्तन निदेशालय) के कार्यालय में बुलाया गया और उनसे घंटों पूछताछ की गई.

नेशनल हेराल्ड मनी लॉन्ड्रिंग मामले में राहुल और सोनिया गांधी की गिरफ्तारी न हो यह सुनिश्चित करने के लिए ईडी कार्यालय के बाहर धरना आयोजित कर अधिकारियों और भाजपा सरकार पर दबाव बनाने के लिए काँग्रेस को छत्तीसगढ़ और राजस्थान से अपने मुख्यमंत्रियो को बुलाना पड़ा.

कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं को एआईसीसी कार्यालय के अंदर दिल्ली पुलिस कर्मियों द्वारा कथित रूप से परेशान किया गया, और पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम को राहुल गांधी और सोनिया गांधी से पूछताछ के विरोध में आयोजित प्रदर्शन में भाग लेने के दौरान पुलिस द्वारा धक्का भी दिया गया था.

सोनिया और राहुल के खिलाफ ईडी की कार्रवाई ने कांग्रेस को नींद से जगा दिया

शीर्ष कांग्रेस नेतृत्व के खिलाफ ईडी की कार्रवाई ने 137 वर्ष पुरानी पार्टी को उसकी राजनीतिक नींद से जगा दिया और अब पार्टी ने यह संदेश देने के लिए अपनी कमर कस ली है कि वह देश की राजनीति से पूरी तरह से खत्म नहीं हुई है.

दिल्ली जहां कोंग्रेस से सत्ता छीनकर आप काबिज़ हुई है उसके अलावा कई क्षेत्रीय दलों कई राज्यों में कांग्रेस की जगह ले ली है. 70 सदस्यीय दिल्ली विधानसभा में तो कांग्रेस प्रतिनिधित्व शून्य हो गया.

कांग्रेस की यह ‘भारत जोड़ो यात्रा’ राजनीतिक हितों से प्रेरित हो या वाकई देश की धर्मनिरपेक्षता मज़बूत करने के लिए सभी धार्मिक और जाति समूहों को एकजुट रखने के लिए इसका आयोजन किया गया हो, जहां अन्य सभी विपक्षी दल डरे हुए हो वहां काँग्रेस और राहुल गांधी, भाजपा और आरएसएस को सीधे चुनौती देने के लिए प्रशंसा के पात्र हैं.

कन्याकुमारी से यात्रा की शुरुआत करते हुए, राहुल गांधी ने कहा कि उनका पैदल मार्च भाजपा और आरएसएस की “विभाजनकारी राजनीति” के खिलाफ है और इसका उद्देश्य विभिन्न धर्मों, जातियों और समुदायों के लोगों को एकजुट करके भारत को सशक्त बनाना है.

भारत कभी भी इतना बंटा हुआ नहीं था जितना कि आज है, और देश को किसी ऐसे व्यक्ति की सख्त ज़रूरत है जो देश की हर गली, गांव, कस्बे और शहर में फैली सांप्रदायिकता और ध्रुवीकरण करने वाली ताकतों का मुकाबला करने के लिए आगे आए. 7 सितंबर को कन्याकुमारी से शुरू हुई यात्रा पांच महीनों में 12 राज्यों में 3,570 किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर में समाप्त होगी.

सांप्रदायिकता पर अंकुश लगाने के लिए महात्मा गांधी की दांडी यात्रा और बंगाल के गांवों की नोआखाली यात्रा से ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की तुलना

निस्संदेह, यह न सिर्फ कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए बल्कि पूरे देश के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है क्योंकि ऐसी कोई अन्य पार्टी नहीं है जो भाजपा और उसके वैचारिक संरक्षक आरएसएस की ताकत को चुनौती दे सके. “भारत जोड़ो यात्रा” 1930 में हुई महात्मा गांधी की दांडी यात्रा की तरह है, जिसे नमक कर का विरोध करने के लिए शुरू किया गया था.

दांडी यात्रा ने भारतीय जनता को लामबंद किया, अंत में अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने के लिए मजबूर किया. देश में वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में लोकतांत्रिक संस्थाएं नष्ट हो चुकी हैं और नागरिकों के लोकतांत्रिक और मौलिक अधिकारों को कुचला जा रहा है, विशेष रूप उन मामलों में जो कमज़ोर वर्गों, कमज़ोर समूहों, दलितों और अल्पसंख्यकों से संबंधित हैं.

यही नहीं बल्कि ऊंची जातियों और संभ्रांत कहे जाने वाले तबके के लोगों, विपक्षी नेताओं और सरकार की नीतियों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले मंत्रियों को भी केंद्रीय जांच एजेंसियों द्वारा परेशान किया जा रहा है और उन्हे बिना किसी वजह के ही जेलों में डाला जा रहा है.

बीजेपी के कई नेताओं ने राहुल गांधी की यात्रा का यह कहकर मज़ाक उड़ाने की कोशिश की है कि देश पहले से ही एक है, तो “भारत जोड़ो यात्रा” निकालने के पीछे क्या तर्क है? वे राहुल गांधी का मज़ाक शायद इसलिए उड़ा रहे हैं क्योंकि भाजपा नेता इस यात्रा की ताकत को जानते हैं.

महात्मा गांधी 1930 में दांडी यात्रा निकालकर निरंकुश ब्रिटिश शासन के खिलाफ लोगों को लामबंद कर पाए और 1946-47 में नोआखाली हिंसा के बाद बंगाल के गांवों में शांति मार्च निकालकर हिंदुओं और मुसलमानों को एकजुट करने का काम भी उन्होंने किया, इसलिए बीजेपी की विभाजनकारी राजनीति और सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ भी समाज में व्याप्त घृणा को दूर करके काफी हद तक हिंदुओं और मुसलमानों को एक साथ लाने के लिए मज़बूत हथियार साबित हो सकती है.

पिछले कई दशकों से समाज को उन लोगों द्वारा विषाक्त कर दिया गया है जो खुदके राष्ट्रवादी होने का दावा करते हैं, उन सब के खिलाफ ये यात्रा कारगर साबित होगी. देश आज उसी प्रकार के सांप्रदायिक विभाजन का सामना कर रहा है जिसका सामना 1946-47 में कर रहा था. लेकिन वर्तमान का ये सांप्रदायिक विभाजन तो और अधिक गंभीर है क्योंकि यह एक ऐसी विशेष विचारधारा पर आधारित है जो 1940 के सांप्रदायिकता की तुलना में अधिक गहरी और घातक है.

भारत पाक विभाजन के वक़्त उत्पन्न साम्प्रदायिकता के पीछे मुख्य कारण कुछ तात्कालिक राजनीतिक घटनाक्रम थे जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों शामिल थे. लेकिन हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वर्तमान राजनीतिक विभाजन एक विचारधारा पर आधारित है, जो मुसलमानों को उनकी अपनी जन्मभूमि में दोयम दर्जे का नागरिक करार देता है और उन्हें भारतीय संविधान के तहत नागरिकों को उपलब्ध अधिकारों से वंचित करने का काम करता है.

बहुसंख्यक समुदाय के कट्टरपंथियों द्वारा समाज में फैलाया जा रहा यह सांप्रदायिक विभाजन अतीत में घटित हुई किसी भी अन्य सांप्रदायिकता की तुलना में अधिक खतरनाक है. ऐसे राजनीतिक परिपेक्ष्य में समुदायों को एकजुट करने के लिए एक यात्रा शुरू करना राहुल गांधी की एक बहुत ही साहसिक पहल है, और यह कोई मायने नहीं रखता कि इस कवायद से पार्टी को अधिक सीटें मिलती हैं या नहीं. विभिन्न समुदायों को जोड़ना कांग्रेस और राहुल गांधी के लिए अंततः एक महान उपलब्धि साबित होगी.

जहां तक ​​राहुल की यात्रा की सामूहिक रूप से आलोचना करने वाले भाजपा नेताओं की बात है, तो भगवा ब्रिगेड को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि भारतीय राजनीति में भाजपा का उदय ऐसी यात्राओं के कारण ही हुआ है. 1989 के चुनावों में 85 लोकसभा सीटें जीतने वाली बीजेपी पार्टी ने 1991 में लालकृष्ण आडवाणी की सोमनाथ से अयोध्या यात्रा के बाद 120 सीटें हासिल की थीं.

इसके अलावा भाजपा अध्यक्ष मुरली मनोहर जोशी ने 1991 में राष्ट्रीय एकता के लिए एकता यात्रा निकाली थी. यह एकता यात्रा भी कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा की तरह कन्याकुमारी से ही शुरू हुई थी. अगर भाजपा नेता राहुल के राष्ट्रीय एकता मार्च का मज़ाक उड़ाते हुए कहते हैं कि देश तो एकजुट है तो यह यात्रा क्यों? तो उनसे यह ज़रूर पूछा जाना चाहिए कि “क्या 1991 में देश बिखर गया था जो भाजपा के मुरली मनोहर जोशी को एकता यात्रा निकालनी पड़ी थी?

भगवा नेताओं के सवाल उनकी राजनीतिक असुरक्षा की भावना को दर्शाते हैं जो वे राहुल की यात्रा के कारण महसूस कर रहे हैं, क्योंकि इस यात्रा का उद्देश्य उन धार्मिक समुदायों को एकजुट करना है जो सीधे भगवा ताकतों की राजनीतिक रणनीति से आमना सामना करते हैं. मुरली मनोहर जोशी की एकता यात्रा में भाग लेने वालों और आयोजकों में पीएम मोदी भी शामिल थे.

इसी प्रकार एक और एकता यात्रा का नेतृत्व 2011 में अनुराग ठाकुर ने किया था, जो वर्तमान में लोकसभा सदस्य और केंद्र सरकार में मंत्री हैं. मुरली मनोहर जोशी की एकता की तरह अनुराग ठाकुर के नेतृत्व वाली कोलकाता में शुरू हुई यात्रा भी श्रीनगर में समाप्त हुई.

सरकार द्वारा कोविड महामारी से निपटने को लेकर लोगों में जागरूकता लाने के लिए भाजपा ने अगस्त 2021 में पांच दिवसीय जन आशीर्वाद यात्रा निकाली थी. इसमें 39 केंद्रीय मंत्री शामिल हुए थे और 22 राज्यों में यात्रा का आयोजन किया गया था.

ममता बनर्जी द्वारा 2011 में पश्चिम बंगाल के गांवों में आयोजित पदयात्राओं ने उन्हें वाम मोर्चा सरकार को हटाने और राज्य में सत्ता पर काबिज़ होने में सक्षम बनाया था. यही नहीं आप भी छोटे-छोटे मुद्दों पर विभिन्न राज्यों में यात्राएं निकालती है. तो ‘भारत जोड़ो यात्रा’ निकालने पर कांग्रेस और राहुल गांधी का मज़ाक क्यों ?

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