राजनीतिक विरोधियों को चुप कराने के लिए केंद्रीय कानूनों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जाने पर चिंता व्यक्त करते हुए, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया ने यूएपीए, एनएसए और अन्य कठोर कानूनों को निरस्त करने और सभी ‘राजनीतिक कैदियों’ को तुरंत रिहा करने की मांग की है.
सैयद ख़लीक अहमद
नई दिल्ली | राजनीतिक दल वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया (डब्ल्यूपीआई) ने पिछले गुरुवार को प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस आयोजित की. प्रेस कॉन्फ्रेंस में पार्टी ने अपनी कुछ मांगे प्रस्तुत की है. अपनी मांगों में पार्टी ने मुख्य रूप से राजनीतिक विरोध दर्ज करवाने वाले लोगों का मुंह बंद करवाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय एजेंसियों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे तानाशाही कानूनों को निरस्त करने की मांग की है जिसमें मुख्य रूप से गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम (यूएपीए), सिडिशन, राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम (एनएसए), सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पा), महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (मकोका), गुजरात संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम (GUJCOCA) को निरस्त किये जाने की मांगे शामिल हैं.
इसके अलावा राष्ट्रीय जांच एजेंसी (NIA) को समाप्त करने की बात भी मांगपत्र में रखी गई है जिसने कानून और व्यवस्था के सम्बंध में राज्यों के अधिकार क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लिया है. 2014 के बाद से अब तक देश भर में गिरफ्तार किए गए राजनीतिक कैदियों की संख्या पर श्वेत पत्र जारी करने की बात भी रखी गई.
डब्ल्यूपीआई के राष्ट्रीय अध्यक्ष डॉ सैयद कासिम रसूल इलियास ने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया में मीडियाकर्मियों को संबोधित करते हुए कहा कि पार्टी ने इन मांगों को लाखों लोगों द्वारा हस्ताक्षर किये गए पत्रों पर भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भेजा है. पार्टी ने 19, 20 और 21 अगस्त को इन मुद्दों पर एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया था. प्रेस ब्रीफिंग में शामिल होने वाले पार्टी के अन्य नेताओं में डब्ल्यूपीआई उपाध्यक्ष रविशंकर त्रिपाठी, राष्ट्रीय महासचिव (संगठन) सुब्रमणि अरुमुगम, राष्ट्रीय महासचिव शीमा मोहसिन, राष्ट्रीय सचिव रजाक पलेरी और सिराज तालिब मौजूद रहे.
राजनीतिक बंदियों के खिलाफ लगाए गए सभी आरोप फ़र्ज़ी और मनगढ़ंत हैं
भारत के संविधान में गारंटीकृत मानवाधिकारों और मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाली सरकारी नीतियों और कार्यों का जो लोग विरोध करते हैं, वे सभी ‘राजनीतिक कैदी’ हैं, यह उल्लेखित करते हुए “फ़र्ज़ी और मनगढ़ंत” आरोपों में गिरफ्तार सभी राजनीतिक कैदियों की बिना शर्त रिहाई की मांग वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया ने की.
हालांकि राष्ट्रीय अध्यक्ष कासिम रसूल इलियास ने कहा कि उनके पास जेल में बंद राजनीतिक कैदियों की सटीक संख्या नहीं है, लेकिन उन्होंने कहा कि राजनैतिक कैदियों की तादाद बहुत ज़्यादा है और इसलिए उनकी पार्टी ने सरकार से राजनीतिक कैदियों की संख्या पर एक ‘श्वेत पत्र’ लाने और लोगों के साथ साझा करने की मांग की है.
उन्होंने गौतम नवलखा, दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जीएन साईंबाबा और जेएनयू के पूर्व शोधकर्ता उमर खालिद का नाम उन राजनीतिक कैदियों में विशेष रूप से लिया जिन्हें नागरिकता संशोधन अधिनियम -2019 जैसे विभिन्न मामलों और सरकार की नीतियों और कार्यों के खिलाफ विरोधी विचारों के कारण कठोर कानूनों के तहत गिरफ्तार किया गया था.
बरी किए गए राजनीतिक बंदियों को मुआवज़ा दें सरकार
बरी किए गए राजनीतिक बंदियों के लिए मुआवज़े की मांग करते हुए, “उनकी बिना किसी गलती के जेल में रखे गए दिनों की संख्या के आधार पर”, डब्ल्यूपीआई के नेताओं ने भारत के राष्ट्रपति से पुलिस विभाग को जवाबदेह बनाने और दोषी पुलिस अधिकारियों को विरोधी राजनीतिक विचार रखने वाले लोगों के खिलाफ झूठे और मनगढ़ंत आरोप लगाने के लिए दंडित करने का आग्रह किया.
कैद की अवधि को बढ़ाने के लिए ज़बरदस्ती यूएपीए लगाया जा रहा है
डॉ इलियास ने कहा कि राजनीतिक कैदियों जिनमें मानवाधिकार कार्यकर्ता, शिक्षाविद, बुद्धिजीवी, छात्र नेता और सरकार पर सवाल उठाने वाले पत्रकार शामिल हैं, इन सभी पर यूएपीए और अन्य कठोर कानूनों के प्रावधानों के तहत आरोप सिर्फ इसलिए लगाए गए हैं ताकि उन्हें जेल में लंबे समय तक रखा जा सके क्योंकि यूएपीए और अन्य मामलों में ज़मानत प्राप्त करना एक बहुत ही कठिन काम है और इसमें समय भी बहुत अधिक लगता है. चूंकि राजनीतिक कैदियों के खिलाफ आम तरीके से न्यायिक जांच नहीं कर सकते, इसलिए पुलिस उनके खिलाफ यूएपीए लगाती है. यूएपीए के तहत ज़मानत के लिए अपनी बेगुनाही साबित करनी होती है. जेल अब एक नियम बन चुका है, अपवाद नहीं. पहले, ज़मानत एक नियम था, और जेल एक अपवाद था.
अपनी बात को विस्तार से समझाते हुए उन्होंने कहा कि प्रोफेसर साईबाबा पिछले पांच साल से जेल में हैं. “वह विकलांग है, वह चल नहीं सकते हैं. उन्हें पर्याप्त चिकित्सा सुविधा भी नहीं मिल रही है. फिर भी, उन्हें ज़मानत नहीं मिल रही है क्योंकि उनके खिलाफ यूएपीए लगाया गया है.”
यूएपीए ने छीना मौलिक अधिकार
यूएपीए, सिडिशन, एनएसए, अफ्सपा, मकोका, और GUJCOCA को “काला कानून” बताते हुए, डब्ल्यूपीआई के नेताओं ने कहा कि इन कानूनों ने मौलिक अधिकारों को छीन लिया है, इसके कारण ही राज्य को अभियुक्तों को लंबे समय तक कैद करने की अनुमति मिलती है और इसलिए, इन सभी कानूनों को फ़ौरन पूरी तरह से वापस ले लिया जाना चाहिए. एनआईए के बारे में पार्टी नेताओं का मानना है कि इसे भी भंग किया जाना चाहिए क्योंकि इसने राज्यों कीकानून-व्यवस्था के क्षेत्राधिकार का अतिक्रमण कर लिया है, जिससे देश का संघीय ढांचा कमजोर हो गया है.
डॉ. इलियास ने कहा कि सरकार का यह कहना गलत है कि देश में कोई राजनीतिक कैदी नहीं है. “हम मांग करते हैं कि नागरिकों के मानवाधिकारों की रक्षा की जाए. यह किसी एक समुदाय विशेष का मसला नहीं है. यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है” उन्होंने आगे कहा कि “2014 के बाद से राजनीतिक कैदियों की संख्या में काफी वृद्धि हुई है. और इन राजनैतिक कैदियों में मुख्य रूप से वो लोग शामिल हैं जिन्होंने सीएए, कृषि कानूनों और सरकार के अलोकतांत्रिक कार्यों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया था.”
डब्ल्यूपीआई अध्यक्ष ने कहा कि “हम मुख्य रूप से मानवाधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ हैं, चाहे जिस भी पार्टी की सरकारें यह कठोर कानून लाई हों. यह कांग्रेस के ही चिदंबरम थे, जिन्होंने 2008 में पोटा को एक अत्यधिक कठोर कानून यूएपीए में बदल दिया था.”
कैदियों के परिवारों ने पीपुल्स ट्रिब्यूनल को बताया कि बंदियों के साथ हो रहा अमानवीय व्यवहार
पार्टी ने 31 अगस्त को एक पीपुल्स ट्रिब्यूनल का आयोजन किया था, जिसमें राजनीतिक कैदियों की कैद के संबंध में सबूतों और तर्कों की फिर से जांच की गई थी. ट्रिब्यूनल में जूरी में जस्टिस (सेवानिवृत्त) एसएस पारकर, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण, बॉम्बे हाईकोर्ट की वकील गायत्री सिंह, योजना आयोग की पूर्व सदस्य डॉ सैयदा हमीद, मानवाधिकार कार्यकर्ता और फिल्म निर्माता तपन दास और दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग के पूर्व अध्यक्ष डॉ. ज़फरुल इस्लाम खान शामिल थे.
जूरी के सामने अपने मामले पेश करने वाले राजनीतिक कैदियों के परिवारों में उमर खालिद, सफूरा ज़रगर, खालिद सैफी, अतहर खान, जावेद मोहम्मद, प्रो जीएन साईबाबा, प्रो हनी बाबू और शहीर के परिवार थे. जूरी के सामने परिवारों ने अपनी व्यथा सुनाई. उन्होंने शिकायत की कि उनके परिवार के सदस्य निर्दोष हैं और उन्हें फ़र्ज़ी आरोपों में फंसाया गया है. उन्होंने जेल अधिकारियों द्वारा किये जा रहे अमानवीय व्यवहार, जेल में चिकित्सा सहायता और बुनियादी सुविधाओं के अभाव की भी शिकायत जूरी से की.
वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया ने जूरी के समक्ष नताशा नरवाल, गुलफिशां, गौतम नवलखा और सिद्दीकी कप्पन की केस हिस्ट्री भी पेश की.
एक ही चार्जशीट से सुनवाई लंबी होगी
मामलों को देखने और कैदियों के परिवारों को सुनने के बाद, जूरी पैनल ने यह निष्कर्ष निकाला कि कई लोगों के लिए तैयार की गई एक ही चार्जशीट मुकदमे की प्रक्रिया को लम्बा खींच देगी और इसे एक बड़ी साज़िश का मामला बनाकर कैद की अवधि को बढ़ा भी देगी इससे ज़मानत मिलना और मुश्किल हो जाएगा.
पुलिस कैदियों को मुखबिर बनने के लिए मजबूर कर रही है: पीपुल्स ट्रिब्यूनल
एक गंभीर आरोप में, पैनल ने पाया कि “पुलिस गिरफ्तार लोगों को पुलिस का मुखबिर और सरकारी गवाह बनाने के लिए बल प्रयोग कर रही है और उन्हें निर्दोष लोगों को फंसाने के लिए मजबूर कर रही है. इस दुर्भावनापूर्ण मानसिकता को रोका जाना चाहिए.”
पैनल ने सुझाव दिया कि निर्दोष लोगों को फ़र्ज़ी और मनगढ़ंत आरोपों में फंसाने के लिए दोषी पुलिसकर्मियों को दंडित किया जाए.