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Thursday, April 25, 2024
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सलमान रुश्दी पर हमला: विश्व ने पहली बार किसी मुस्लिम के अपराध को उसकी आस्था से नहीं जोड़ा

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | दुनिया भर के राष्ट्राध्यक्षों, प्रसिद्ध लेखकों, पत्रकारों और साहित्यकारों ने न्यूयॉर्क में 12 अगस्त, शुक्रवार को आयोजित एक कार्यक्रम में लेखक सलमान रुश्दी पर हुए नृशंस हमले की निंदा की है. लेखक सलमान रुश्दी हमले में बच गए हैं लेकिन हालत गंभीर होने के कारण अभी भी अस्पताल में इलाज चल रहा है.

हमलावर की पहचान लेबनानी मूल के 24 वर्षीय हादी मतर के रूप में हुई है.

रुश्दी 1988 में प्रकाशित हुए अपने उपन्यास ‘दि सैटेनिक वर्सेज’ के लिए दुनिया भर के मुसलमानों द्वारा नापसन्द किये जाते रहे हैं. इस उपन्यास में पैगंबर मोहम्मद और इस्लाम धर्म के लिए घोर आपत्तिजनक विचार परोसे गए हैं. इस्लामी इतिहास से साबित किये बिना इस उपन्यास में पैगंबर को अत्यधिक तिरस्कारपूर्ण तरीके से चित्रित किया गया है.

किसी के आपत्तिजनक विचारों के लिए किसी के मन में कितना ही ग़ुस्सा क्यों न हो, लेकिन इसके बावजूद किसी को कानून अपने हाथ में लेने का अधिकार नहीं है. दोषियों को सज़ा देना राज्य और सरकार का काम है. रुश्दी पर हुए हमले की कड़े शब्दों में निंदा की जानी चाहिए.

यह राहत की बात है कि फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों सहित दुनिया के किसी भी हिस्से से किसी ने भी हमले को इस्लाम धर्म से नहीं जोड़ा क्योंकि अतीत में इस तरह की प्रतिक्रियाओं के परिणामस्वरूप मैक्रोन और कई मुस्लिम देशों की सरकारों के प्रमुखों के बीच वाकयुद्ध हो चुका है.

दुनियाभर के नेता, हादी मतर के अपराध को उसकी आस्था से नहीं जोड़ रहे हैं

इस से पूर्व अमेरिका, ईसाई यूरोप और सभी गैर-मुस्लिम दुनिया में यह प्रवृत्ति आम थी कि किसी भी मुस्लिम द्वारा अंजाम दी गई किसी हिंसक घटना को उसके मज़हब के साथ जोड़ दिया जाता था. अब ऐसा लगता है कि पिछली घटनाओं की अपेक्षा गैर-मुस्लिम दुनिया ज़्यादा परिपक्व या समझदार हो गई है कि किसी मुसलमान द्वारा किए गए अपराध को उसके धर्म से नहीं जोड़ रही है.

यह शायद सामान्य रूप से मुस्लिम बुद्धिजीवियों और तुर्की के राष्ट्रपति रजब तैय्यब एर्दोगन जैसे अन्य मुस्लिम राष्ट्राध्यक्षों द्वारा पेश किए गए इस्लामोफोबिया पर मज़बूत प्रतिरोध के कारण है. यह संयुक्त राष्ट्र के प्रयासों का परिणाम भी हो सकता है. संयुक्त राष्ट्र ने 2022 से इस्लामोफोबिया का मुकाबला करने के लिए हर साल 15 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है.

पश्चिमी सरकारें लेखकों को खुश करती हैं और कलाकार इस्लाम का मज़ाक उड़ाते हैं

इस तथ्य के बावजूद कि “रुश्दी के उपन्यास ने पैगंबर मोहम्मद साहब का तिरस्कार करते हुए दुनिया भर के अरबों मुसलमानों की भावनाओं को आहत किया था” इंग्लैंड की महारानी एलिज़ाबेथ द्वितीय ने 2007 में रुश्दी को नाइटहुड की उपाधि से सम्मानित किया था.

फ्रांसीसी राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने पैग़म्बर मोहम्मद का अपमान करने वाली शार्ली एब्दो नामक पत्रिका का खुलकर समर्थन किया था. इससे यह पता चलता है कि वैश्विक नेता, राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य शक्ति के नशे में उन मुसलमानों की भावनाओं को ज़रा भी महत्व नहीं देते हैं जो दुनिया की सभी धार्मिक और सांस्कृतिक सभ्यताओं में आर्थिक और सैन्य रूप से सबसे कमज़ोर हैं.

दुनिया के उन नेताओं की क्या प्रतिक्रिया होगी यदि मुस्लिम दुनिया का कोई व्यक्ति धार्मिक व्यक्तित्वों या अन्य धर्मों के प्रतीकों का मज़ाक उड़ाता है जिनका दुनिया की सबसे बड़ी सेनाओं पर नियंत्रण है? क्या इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अनुमति दी जाएगी? लेकिन मुसलमानों ने हमेशा ऐसी चीज़ों से परहेज़ किया है क्योंकि गैर मुस्लिमों द्वारा पूजे जाने वाले धार्मिक प्रतीकों या व्यक्तित्वों का मज़ाक बनाने या उनका अपमान करने से कुरआन मुसलमानों को सख्ती से रोकता है.

भारत में मुसलमानों और ईसाइयों को हिंदू धर्म के खिलाफ ईशनिंदा के झूठे आरोपों का सामना करना पड़ता है

भारत में मुस्लिम और ईसाई दशकों से हिंदू धर्म के खिलाफ ईशनिंदा के झूठे आरोपों से संबंधित हिंसा का सामना कर रहे हैं और 2014 में गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रधान मंत्री के रूप में भाजपा के सत्ता में आने के बाद से यह घटनाएं और बढ़ गई हैं. गोहत्या के आरोप में मुसलमानों पर अक्सर हमला किया जाता है और मुस्लिमों पर ही पुलिसिया कार्यवाई भी की जाती है.

भारत में गोहत्या एक अपराध है और कुछ राज्यों में यह कानून है कि अगर किसी को गायों के वध या हत्या के लिए उकसाने में शामिल पाया जाता है तो कड़ी सज़ा दी जाती है जिसमें 10 साल तक की कैद शामिल है. विभिन्न राज्यों में गोहत्या विरोधी कानून बनाया गया है क्योंकि हिंदू आबादी के एक बड़े हिस्से द्वारा गाय को एक पवित्र पूजनीय पशु माना जाता है. इसलिए गोहत्या के नाम पर की जा रही हिंसा हिंदू मान्यताओं के खिलाफ ईशनिंदा से संबंधित हिंसा के अलावा और कुछ नहीं है. अलग-अलग राज्यों में गौरक्षकों की एक बड़ी गैरकानूनी फौजें भी विद्यमान है, जो अपने बनाये कानून पर चलती हैं और वे महज़ शक की बुनियाद पर कभी भी किसी भी मुसलमान पर शारिरिक हमला कर देती हैं.

गोरक्षकों के हमलों के बारे में कोई सटीक डेटा उपलब्ध नहीं है, रॉयटर्स की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि “2010 और 2017 के मध्य के बीच भारत में कुल 63 गौरक्षक हमले हुए थे, जिनकी संख्या 2014 में प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद सबसे अधिक थी. इन हमलों में 2010 और जून 2017 के बीच, 28 भारतीय – जिनमें 24 मुसलमान मारे गए और 124 घायल लोग हुए थे. लेकिन दुनिया इस सभी नृशंस हत्याओं पर ध्यान नहीं देती है क्योंकि भारत में पुलिस इन मामलों को हिन्दू धर्म के खिलाफ ईशनिंदा से जुड़े अपराधों के रूप में दर्ज ही नहीं करती हैं. रेफ्रीजिरेटर और रसोई में तलाशी लेने के लिए ये तथाकथित गौरक्षक ज़बरदस्ती मुस्लिम घरों में भी प्रवेश करते हैं ताकि पता लगाया जा सके कि उन्होंने गाय का मांस रखा है या नहीं.

हरियाणा के मेवात में पुलिस ने कई मौकों पर ‘बिरयानी’ को इस संदेह में जब्त किया कि ‘बिरयानी’ पकाने के लिए गाय के मांस का इस्तेमाल किया गया था. सबसे ज्वलंत उदाहरण दादरी के मोहम्मद अखलाक का है, जिसे 2015 में अपने रेफ्रिजरेटर में गोमांस रखने के संदेह में भीड़ द्वारा पीट-पीट कर मार डाला गया था.

पूर्व राजनयिक और गवर्नर गोपालकृष्ण गांधी द्वारा इंडियन एक्सप्रेस के संपादकीय में उनके दो लेख “वर्ड्स विल विन’ व “द स्कोर्चिंग ट्रुथ ऑफ रुश्दीज़ ऑर्डील” और टाइम्स ऑफ इंडिया में उपन्यासकार और आलोचक अमित चौधरी द्वारा लिखा गया “दि मीनिंग ऑफ सलमान रुश्दी” में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का पुरज़ोर समर्थन किया गया है. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को लेकर उनसे कोई असहमत होगा भी नहीं. लेकिन क्या इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का विस्तार धार्मिक व्यक्तियों और विभिन्न धर्मों की पवित्र पुस्तकों को गाली देने को भी मान्यता देता है?

शास्त्रों या पवित्र धर्मग्रन्थों की सामग्री या किसी धर्म के सम्मानित व्यक्तित्वों के कार्यों का आलोचनात्मक विश्लेषण एक अलग बात है, लेकिन अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का फायदा उठाकर उन्हें अपमानजनक तरीके से चित्रित करना उतना ही अनुचित है जितना सलमान रुश्दी या किसी अन्य लेखक पर हुआ शारीरिक हमला. यदि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ धार्मिक व्यक्तित्वों का तिरस्कार करना या मज़ाक उड़ाना बन चुका है, तो इसे फिर से परिभाषित करने की आवश्यकता है.

यह बहुत ही महत्वपूर्ण है और यह इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि संयुक्त राज्य अमेरिका और फ्रांस जैसे पश्चिमी दुनिया के कई देशों में सरकारें इस्लाम और उसके पैगंबर का खुले तौर पर उपहास करने की अनुमति देती रही हैं, जिसके परिणामस्वरूप कानून और व्यवस्था के लिए खतरा पैदा हो गया है. इसके परिणामस्वरूप फ्रांस और तुर्की के साथ-साथ कई अन्य मुस्लिम देशों के बीच राजनयिक संबंध बिगड़ते रहे हैं. सरकारों के साथ-साथ लेखकों को भी लोगों की संवेदनाओं को समझना चाहिए.

भारत में हिंदू धर्म की निंदा करने वाली कई पुस्तकों पर लगा है प्रतिबंध

ऐसी कई किताबें हैं जिन्हें भारत में प्रतिबंधित कर दिया गया था या ईशनिंदा के आधार पर उनका विक्रय रोक दिया गया था. स्वतंत्र भारत में प्रतिबंधित पहली पुस्तक 1954 में औब्रे मेनन की “रामायण” थी. एक और अन्य प्रतिबंधित पुस्तक जेम्स लेन द्वारा लिखित “शिवाजी -हिन्दू किंग इन मुस्लिम इंडिया” थी, हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में प्रतिबंध हटा लिया था, लेकिन यह किताब अभी भी भारत में उपलब्ध नहीं है.

एक अमेरिकी इंडोलॉजिस्ट, वेंडी डोनिगर द्वारा लिखित “द हिंदूज़ एन अल्टरनेटिव हिस्ट्री” नामक पुस्तक की प्रतियां के विक्रय पर 2014 में दीनानाथ बत्रा द्वारा दायर एक अदालती मामले के बाद रोक लग गयी थी. आरोप यह था कि इसमें हिंदू देवताओं को हास्यपूर्ण तरीके से चित्रित किया गया. तथाकथित सेक्युलर दुनिया के हिसाब से इन सभी मामलों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में लगाम लगाने वाला करार दिया जाना चाहिए लेकिन लेखकों की दुनिया में से किसी ने कोई आपत्ति इन मामलों पर नहीं उठाई, उन्हें दिक्कत सिर्फ रुश्दी की किताब पर लगे प्रतिबन्ध के मामले से है.

इसी तरह, डॉन ब्राउन की एक पुस्तक “दा विंची कोड” को नागालैंड सरकार द्वारा प्रतिबंधित कर दिया गया था, क्योंकि ईसाई समूहों ने उस पर ईसाई धर्म और रोमन कैथोलिक चर्च को लेकर गलत बयानी का आरोप लगाया था. तमिलनाडु सरकार ने 2013 में ईसाई समुदाय के विरोध के बाद दा विंची कोड पर आधारित एक फिल्म पर प्रतिबंध लगा दिया था.

भारत में प्रतिबंधित अन्य पुस्तकों में शामिल पुस्तकें हैं :- पूर्व विदेश मंत्री स्वर्गीय जसवंत सिंह द्वारा लिखित जिन्ना : इंडिया- पार्टीशन- इंडिपेंडेन्स जिन्ना के प्रति सहानुभूति रखने का आरोप इस पर लगा, सीमोर हर्ष द्वारा लिखित द प्राइज़ ऑफ पॉवर इस पर मोरारजी देसाई को एक सीआईए मुखबिर बताने का आरोप है, वी.एस. नायपॉल द्वारा लिखित एन एरिया ऑफ डार्कनेस इस पर भारत को तिरस्कारपूर्ण तरीके से चित्रित करने का आरोप है, अलेक्जेंडर कैंपबेल की द हार्ट ऑफ इंडिया इस पर भारत की राजनीति और आर्थिक नीतियों पर आक्रामक होने का आरोप है और हामिश मैकडॉनल्ड द्वारा लिखित दि पॉलिस्टर प्रिंस: द राइज़ ऑफ़ धीरूभाई अंबानी पर धीरूभाई अंबानी की छवि को कथित रूप से खराब करने के लिए बैन किया गया.

क्या पत्रकारों की गिरफ़्तारी अभिव्यक्ति की आज़ादी का उल्लंघन नहीं थी?

पिछले कुछ वर्षों में, उत्तर प्रदेश और अन्य जगहों पर कई पत्रकारों और सोशल मीडिया यूज़र्स को केवल इसलिए गिरफ्तार कर लिया गया क्योंकि उन्होंने पीएम मोदी और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का अपमान करने वाले वीडियो और कार्टून अपलोड किए थे. क्या इन कार्रवाइयों से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को खतरा नहीं पहुंचता है? वे लेखक कहाँ हैं जो बिना किसी ठोस आधार के मुस्लिम समुदायों की आलोचना करते हैं, लेकिन पत्रकारों और सोशल मीडिया यूज़र्स की गिरफ्तारी पर चुप रहते हैं?

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