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Thursday, April 25, 2024
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मुसलमानों का बढ़ता उत्पीड़न: हिन्दुत्ववादी ताकतों से संगठित और लोकतांत्रिक लड़ाई की ज़रूरत

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | भारत के मुसलमानों ने कभी इतना असहज और डर महसूस नहीं किया जितना वे आज बदली हुई राजनीतिक परिस्थितियों के बीच कर रहे हैं. इस डर को न केवल गरीब और मध्यम वर्गीय मुसलमान महसूस कर रहा बल्कि मुस्लिम समाज का उच्च वर्ग भी महसूस कर रहा है और इस उच्च वर्ग में वे लोग भी शामिल हैं जो दशकों से केंद्र और राज्य स्तर पर सत्ता का सुख भोगते रहे हैं.

इसके पीछे क्या कारण है? आज यह स्थिति क्यों बन गई है? इसके लिए कौन ज़िम्मेदार है? यदि आप सामान्य और संभ्रांत तबके के मुसलमानों से बात करेंगे, तो आपको उत्तर मिलेगा कि मुसलमानों के खिलाफ वर्तमान स्थिति के लिए मुसलमानों के प्रति भाजपा की ‘आक्रामकता’ ज़िम्मेदार है. यह आक्रामकता 2014 के बाद से एक चार गुना तेज़ी से बढ़ी है, जब से भाजपा ने केंद्र में सत्ता हासिल की और नरेंद्र मोदी प्रधान मंत्री व भारतीय राजनीति के केंद्र बने हैं. बीजेपी मुसलमानों के खिलाफ अपनी दुश्मनी का इस्तेमाल हिंदू मतदाताओं को अपने पक्ष में करने के लिए करती रही है.

लेकिन बीजेपी मुसलमानों के लिए अपनी दुश्मनी के आधार पर मतदाताओं का ध्रुवीकरण कर राजनीतिक सत्ता हासिल करने से भी संतुष्ट नहीं दिख रही है. यदि राजनीतिक सत्ता हासिल करना ही मुसलमानों के प्रति भाजपा की दुश्मनी का एकमात्र उद्देश्य होता, तो 2014 और 2019 में केंद्र में सत्ता हासिल करने और कई राज्यों में सरकार बनाने के बाद वो मुसलमानों के खिलाफ अपनी नफरत छोड़ देती.

हालांकि, राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद भी मुसलमानों के प्रति बीजेपी की दुश्मनी न तो रुकी है और न ही कम हुई है. इसलिए, जो लोग कहते हैं कि, “मुस्लिमों के खिलाफ नफरत का प्रचार भाजपा की चुनावी मजबूरी है” यह सही प्रतीत नहीं होता है.

देश में भगवाकरण के पीछे निश्चित रूप से कुछ और ही एजेंडा है. केंद्र और राज्य स्तर पर बीजेपी द्वारा की गई मुसलमानों के खिलाफ कार्यवाहियां, इस बात का सबूत है कि संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों सहित बीजेपी के नेता मुसलमानों के साथ गलत व्यवहार करते समय संवैधानिक मूल्यों की परवाह नहीं करते हैं.

मुसलमानों के खिलाफ युद्ध छेड़ दिया गया है

दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर अपूर्वानंद की मानें तो बीजेपी के राज में राज्य सरकारों ने मुसलमानों के खिलाफ एक तरह की जंग छेड़ दी है जो बेहद खतरनाक घटनाक्रम है. केंद्र सरकार मुसलमानों के उत्पीड़न और उन्हें डराये या धमकाये जाने पर चुप्पी साधे रखती है जो मुसलमानों की समस्याओं के प्रति केंद्र की उपेक्षा को दर्शाता है. बल्कि यह कहना गलत न होगा कि केंद्र की खामोशी मुस्लिमों के खिलाफ फैलाई जाने वाली नफरत में सहयोगी है.

इसलिए मुसलमानों को निशाना बनाने का जो कार्य 2014 से पहले गुंडे और अराजक तत्वों द्वारा किया जा रहा था ऐसा लगता है वो काम अब मुख्यधारा के लोगों द्वारा किया जा रहा है. मुसलमानों को लेकर स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया है, बल्कि मुसलमानों की मुश्किलें दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही हैं.

बीजेपी और आरएसएस से जुड़े संगठनों ने लाउडस्पीकर, तीन तलाक, समान नागरिक संहिता, हिजाब, हलाल मांस, गोहत्या, नमाज़, और ‘अज़ान’ को लेकर विवाद खड़ा किया है. नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (NRC) का विरोध करने वालों को राष्ट्र-विरोधी करार दे दिया गया. मुसलमानों का तर्क है कि सीएए का वर्तमान प्रारूप एक विशाल मुस्लिम आबादी को अपनी ही ज़मीन पर विदेशी बना देगा.

यदि एनआरसी के साथ सीएए लागू किया जाता है, तो एनआरसी में अपनी नागरिकता न साबित कर पाने वाले मुसलमान एक भारतीय नागरिक के रूप में अपना अधिकार खो देंगे और उन्हें डिटेंशन कैम्प में डाल दिया जाएगा, और उनकी सभी संपत्ति जैसे घर, ज़मीन और बैंक खाते ज़ब्त किए जा सकते हैं. लेकिन अन्य धार्मिक समूहों से संबंधित लोगों को सीएए के तहत भारतीय नागरिकता मिल जाएगी, भले ही वे एनआरसी में अपनी नागरिकता साबित न कर पाए.

नागरिकता के मामले में भेदभावपूर्ण प्रावधानों ने मुसलमानों को सीएए के खिलाफ लंबे समय तक देशव्यापी विरोध प्रदर्शन करने पर मजबूर कर दिया था. सरकार भले ही कुछ समय के लिए एनआरसी और सीएए को लागू करने में देरी कर रही है, लेकिन गृह मंत्री अमित शाह संसद के अंदर और बाहर बार-बार कह रहे हैं कि पूरे देश में एनआरसी किया जाएगा और सीएए लागू किया जाएगा.

कुछ हिन्दू राजनैतिक कट्टरपंथी संगठनों के नेताओं के साथ-साथ कुछ धार्मिक नेताओं द्वारा मुसलमानों के नरसंहार के लिए खुले आह्वान भी किए जा रहे हैं जिन्होंने मुसलमानों के खिलाफ माहौल को और दूषित कर दिया है. लेकिन राज्य सरकारों ने इन सभी गैर कानूनी गतिविधियों पर पूरी तरह से चुप्पी साध रखी है. एक दक्षिणपंथी विचारधारा और सत्तारूढ़ पार्टी के समर्थक फिल्मकार द्वारा बनाई गई फिल्म द कश्मीर फाइल्स भी मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार के आह्वान को उकसाती है. फिर भी फिल्म को सेंसर बोर्ड द्वारा इस विवादास्पद फिल्म को रिलीज़ करने की मंज़ूरी दे दी गई.

इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ें: Rising Persecution of Indian Muslims: It Calls For a United Response To The Threats From Radical Hindutva Forces

ज्ञानवापी और मथुरा मस्जिद मामले का इस्तेमाल मुसलमानों को डराने के लिए किया जा रहा है

मुसलमानों के खिलाफ लगातार किया जा रहा नफरत का प्रचार मानो काफी न था जो अब कट्टरपंथी हिंदू तत्वों ने यह मांग करते हुए अदालतों का रुख किया है कि वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद, मथुरा में शाही ईदगाह मस्जिद और 12वीं शताब्दी की दिल्ली स्थित कुतुब मीनार की कुव्वतुल इस्लाम मस्जिद को मंदिर घोषित किया जाए. इस प्रकार भारतीय समाज का और अधिक ध्रुवीकरण किया जा रहा है.

कुतुब मीनार और इसके परिसर के भीतर के स्मारकों को 1993 में यूनेस्को की विश्व धरोहर घोषित किया गया था. दुर्भाग्य से अदालतें पूजा स्थल (विशेष प्रावधान) अधिनियम, 1991 के बावजूद तीनों मामलों में हिंदू पक्षों की याचिकाओं पर विचार किया है. पूजा स्थल अधिनियम 1991 किसी भी पूजा स्थल के चरित्र परिवर्तन पर रोक लगाता है और 15 अगस्त, 1947 से अस्तित्व में पाए गए किसी भी पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को बनाए रखने को सुरक्षित करता है.

एकमात्र धार्मिक स्थान जिसे पूजा स्थल 1991 के अधिनियम से छूट दी गई थी, वह राम जन्मभूमि/ बाबरी मस्जिद विवाद था, क्योंकि बाबरी मस्जिद पर विवाद भारत की आज़ादी से पूर्व ही चला आ रहा था. नवंबर 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने मस्जिद के पक्ष में सभी सबूत होने के बावजूद राम मंदिर के निर्माण के लिए बाबरी मस्जिद की जगह सौंप कर उस मामले का निपटारा कर दिया था.

मुसलमानों ने भी इस उम्मीद में फैसले को स्वीकार कर लिया था कि अदालत का फैसला दशकों पुराने विवाद को खत्म कर देगा और देश में शांति और सद्भाव लेकर आएगा. लेकिन भारतीय मुसलमान गलत साबित हुए क्योंकि कट्टरपंथी हिंदू तत्वों ने ज्ञानवापी और शाही ईदगाह मस्जिदों और इन सबके बाद हाल ही में कुतुब मीनार परिसर की मस्जिदों पर विवाद खड़ा कर दिया है, और जिस तरह से इन मामलों में अदालतों ने पूजा स्थल अधिनियम 1991 को ताक पर रख कर हिंदू समूहों के आवेदनों पर विचार किया और मुसलमानों को निराश किया है.

प्रशासनिक अधिकारियों की पक्षपातपूर्ण कार्रवाई मुसलमानों के प्रति उनकी नफरत को उजागर करती है

बीजेपी शासित राज्य सरकारों ने, विशेष रूप से मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में, उज्जैन, खरगोन, मऊ, लखनऊ, प्रयागराज जैसे शहरों में मुसलमानों के घरों को तोड़कर उनके साथ खुले तौर पर भेदभावपूर्ण व्यवहार को ज़ाहिर किया है. अधिकारियों द्वारा दिए गए तर्क यह है कि मुस्लिम संपत्तियों को या तो अवैध रूप से बनाया गया था या सरकारी भूमि पर बनाया गया था. कुछ मामलों में सरकार ने तर्क देते हुए कहा कि जब हिंदू धार्मिक जुलूस गुजर रहे थे, तब सांप्रदायिक झगड़ों के दौरान इन मुस्लिम घरों से पत्थर फेंके गए थे. जबकि भारतीय कानून किसी के द्वारा पत्थर फेंकने पर भी उसके घरों को गिराने की अनुमति नहीं देता है और फिर मुस्लिमों पर लगे ये आरोप तो सिद्ध हुए भी नहीं. जहां तक ​​अवैध घर बनाने या सरकारी संपत्तियों के अतिक्रमण की बात है, संबंधित पक्ष को कानूनन अदालत में अपना बचाव करने का अवसर दिया जाता है, नाकि बिना नोटिस दिये उसका घर तोड़ा जाता है.

मुसलमानों को अपना पक्ष रखने का कोई भी मौका दिए बिना ही उनकी संपत्ति को अचानक से ध्वस्त कर दिया गया. जिन संपत्तियों को बुलडोज़र से गिराया गया उनमें कानपुर और आज़मगढ़ में एक मदरसे की इमारतें और लखनऊ, प्रयागराज और मऊ के मुस्लिम राजनेताओं के घर शामिल हैं.

भाजपा द्वारा संचालित नगर निगम ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में भी मुस्लिम संपत्तियों को ध्वस्त करने के लिए बुलडोज़र का इस्तेमाल किया. उसी दिल्ली नगर निगम के अधिकारियों ने रमज़ान के महीने के दौरान जहांगीरपुरी में एक मस्जिद और कुछ मुस्लिम घरों को ध्वस्त कर दिया था और एक मंदिर को छोड़ दिया, जिसका एक हिस्सा मस्जिद की तरह सरकारी ज़मीन पर था. दिल्ली नगर निगम ने इसके बाद में दक्षिण दिल्ली के कंचन कुंज इलाके में कुछ इमारतों को यह तर्क देकर ध्वस्त कर दिया कि उन्हें अवैध रूप से बनाया गया था, जबकि तथ्य यह है कि ऐसी अवैध इमारतें पूरी दिल्ली में हैं और उनमें से ज़्यादातर हिंदू बहुल इलाकों में हैं. लेकिन मुस्लिमों को परेशान करने के लिए सिर्फ मुस्लिम संपत्तियों को दिल्ली में निशाना बनाकर उनपर बुलडोज़र चलाया गया. क्या केवल मुस्लिम राजनेताओं के पास अवैध रूप से बनी इमारतें हैं? क्या उचित प्रक्रिया का पालन किए बिना केवल ‘मदरसा’ भवनों का निर्माण किया जाता है?

सत्तारूढ़ भाजपा के कुछ नेताओं के साथ-साथ हिंदू संतों को भी प्रेस कॉन्फ्रेंस और न्यूज़ चैनलों की बहस में इस्लाम और पैगंबर मुहम्मद के बारे में असंसदीय टिप्पणी करते देखा जा चुका है.

देश में हुए मुस्लिमों के कई मॉब लिंचिंग के अनगिनत मामलों में तो उल्टा पुलिस ने मुस्लिम पीड़ितों के खिलाफ ही मामला दर्ज कर दिया, जब वे हिंदू आरोपियों के खिलाफ शिकायत दर्ज कराने के लिए पुलिस से संपर्क कर रहे थे. ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था. हालांकि, भारत में मुसलमानों के खिलाफ हिंसा कोई नई बात नहीं है, लेकिन गैर-भाजपा शासन के दौरान मुस्लिम पीड़ितों को कम से कम सुना तो जाता था और उनकी शिकायतों पर विचार किया भी किया जाता था.

हालाँकि, 2014 में देश में बीजेपी द्वारा सत्ता संभालने के साथ नई राजनीतिक व्यवस्था के साथ चीजें पूरी तरह से बदल गई हैं. भारतीय मुसलमानों ने 1857 में ब्रिटिश-ईसाई शासन के दौरान और 1947 में विभाजन के मद्देनज़र बहुत बड़े पैमाने पर हिंसा का सामना किया, लेकिन 1857 और 1947 में हुई मुस्लिम विरोधी हिंसा स्थानीय थी. इसे दिल्ली और पश्चिमी यूपी के क्षेत्रों तक सीमित कर दिया गया था. 1947 में, इसे फिर से पंजाब, जम्मू और कश्मीर, पश्चिम बंगाल और दिल्ली जैसे सीमावर्ती राज्यों तक सीमित कर दिया गया था. लेकिन इस बार पूरे देश में मुसलमानों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है. देश में अब कोई जगह नहीं है जहां मुसलमान शांति से रह सकें.

प्रशासनिक अधिकारी मुसलमानों के उत्पीड़न के लिए इज़रायल के तौर-तरीकों को अपना रहे हैं

अधिकारियों की हरकतों से पता चलता है कि वे मुसलमानों को डराने के लिए अपने इज़रायली समकक्षों के तौर-तरीकों की नकल कर रहे हैं. जबकि मोदी सरकार का दावा है कि 2014 के बाद से भाजपा के राजनीतिक सत्ता हासिल करने के बाद से कोई हिंदू-मुस्लिम दंगा नहीं हुआ है, जबकि तथ्य यह है कि पूरे देश में ज़मीनी स्तर पर मुस्लिमों को आतंकित करने वाली घटनाएं अंजाम दी जा रही हैं. मुस्लिम जो पहले ही पीड़ित हैं ऐसी हर हिंसा में उन्हें और अधिक पीड़ित बनाया जा रहा है.

मोदी और भाजपा के शासन में आठ साल की अवधि में इन सभी घटनाक्रमों ने मुसलमानों और उनके नेतृत्व को बेचैन कर दिया है. चूंकि विपक्षी दल मुस्लिम मुद्दों को सरकार के सामने उठाने या मोदी सरकार के हाथों मुसलमानों के उत्पीड़न पर अपनी चिंताओं को खुलेआम ज़ाहिर करने से डरते हैं, अंतः अब मुस्लिम समूह और व्यक्तिगत मुस्लिम नेता सरकार के खिलाफ अपना गुस्सा व्यक्त करने के लिए आगे आए हैं.

विपक्षी दल मुस्लिम मुद्दों के लिए खड़े नहीं होते हैं

मुस्लिम समुदाय के लिए यह वास्तव में एक बहुत ही अजीब स्थिति है कि मुसलमानों के समर्थन से चुनाव जीतने वाली विपक्षी पार्टियां संकट में होने पर मुसलमानों के बचाव में नहीं आती हैं, जब मुसलमानों को उनकी ज़रूरत होती है. विपक्षी दलों को लगता है कि अगर वे मुस्लिमों के लिए खड़े होते हैं तो वे बहुसंख्यक हिंदुओं का समर्थन खो देंगे. लंबे समय से भाजपा के उग्र इस्लामोफोबिक अभियान के कारण बनी इस स्थिति ने देश की आज़ादी के बाद लगभग 20 प्रतिशत मुसलमानों को बहिष्कृत कर दिया है. विपक्षी दलों की इस कमज़ोरी से वाकिफ भाजपा और देश भर के विभिन्न राज्यों और नगर निकायों में उसकी सरकारें मुसलमानों के खिलाफ असंवैधानिक कार्रवाई करने से भी नहीं हिचकिचाती हैं.

मुशावरत ने लिया मुसलमानों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की रक्षा करने का संकल्प

ऑल इंडिया मुस्लिम मजलिस-ए-मुशावरत (एआईएमएमएम), जिसे देश में मुस्लिम संगठनों का संयुक्त मंच माना जाता है, मोदी शासन के तहत अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों के उत्पीड़न का मुद्दा उठाने वाला पहला संगठन है. पिछले हफ्ते दिल्ली में एक बैठक में मुशावरत ने इस मुद्दे पर विचार-विमर्श करने और मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और अन्याय को रोकने के उपायों को जानने के लिए मुस्लिम बुद्धिजीवियों, शिक्षाविदों, सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं का दो दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया था. सम्मेलन के अंत में एक 10-सूत्रीय घोषणापत्र जारी किया गया जिसमें एआईएमएमएम ने सभी भारतीय नागरिकों, विशेष रूप से मुसलमानों और वंचितों के संवैधानिक और कानूनी अधिकारों की रक्षा और सुरक्षा के लिए मौजूद सभी न्यायिक, राजनीतिक और अन्य सभी कानूनी तरीकों का उपयोग करने की घोषणा की.

मुशावरत ने शांति और सद्भाव को बढ़ावा देने और सांप्रदायिक नफरत फैलाने में लगी ताकतों के मंसूबों को हराने के लिए पूरे देश में अन्य धर्मों के लोगों के साथ बैठकें करने की योजना की भी घोषणा की. मुशावरत में भाग लेने वालों में जमात-ए-इस्लामी हिंद के अध्यक्ष सैयद सआदतुल्ला हुसैनी, मुशावरत के अध्यक्ष नवेद हामिद, वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. एसक्यूआर इलियास और पूर्व मंत्री तौकीर रज़ा खान शामिल थे. कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी ने अधिवेशन का समर्थन करते हुए मुशावरत अध्यक्ष को एक पत्र भेजा.

जमीअतुल उलेमा-ए-हिंद ने भी लिया विभाजनकारी ताकतों से लड़ने का संकल्प

मुशावरत सम्मेलन के बाद देवबंद में जमीयतुल उलेमा-ए-हिंद (JUH) का सम्मेलन हुआ जिसमें पूरे देश के मुस्लिम उलेमाओं ने बड़े पैमाने पर भाग लिया. जमीयत उलेमा के अध्यक्ष महमूद मदनी ने कहा कि मुसलमानों को अपने ही शहरों की सड़कों पर चलते हुए भी समस्याओं का सामना करना पड़ता है. उन्होंने विभाजनकारी ताकतों से लड़ने के लिए सद्भावना मंच की स्थापना की भी घोषणा की. हालाँकि, उनके द्वारा की गई टिप्पणी कि, “हर ज़ुल्म सह लेंगे, लेकिन इसे हमारी कमज़ोरी न समझें” पर उन्हें मुस्लिम समूहों की आलोचना का सामना करना पड़ा.

विश्व विख्यात इस्लामिक मदरसा दारुल उलूम देवबंद ने भी देश में मौजूदा हालात और मुस्लिम समुदाय की क्या प्रतिक्रिया हो इसे लेकर बैठक की. यह जमीयत उलेमा के सम्मेलन से पहले आयोजित किया गया था. लेकिन मदरसा ने इस संबंध में कोई बयान जारी नहीं किया. इसमें भाग लेने वालों से भी बैठक के संबंध में मीडिया से बात नहीं करने का निर्देश दिया गया.

मुसलमानों को डराने और दबाने की साज़िश

दो दिन पहले, पूर्व सांसद मोहम्मद अदीब द्वारा बुलाई गई बैठक में मुसलमानों की वर्तमान स्थिति पर एक दिवसीय विचार-विमर्श में ज़्यादातर कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों के हाई प्रोफाइल नेताओं ने भाग लिया. बैठक में विभिन्न नेताओं ने कहा कि, “भारत जिन बुनियादों पर खड़ा है वो ही खतरे में है और विशेष रूप से, मुस्लिम समुदाय वर्तमान में लगातार डर में जी रहा है.”

वक्ताओं ने सभा में कहा कि, “अब यह साफ-साफ समझ लिया जाना चाहिए कि मुस्लिम विरोधी दंगों, लिंचिंग और क्रूर अत्याचारों और अलग-अलग तरीकों से मुसलमानों के घरों और व्यवसायों को खत्म करने के लिए की जा रही कोशिशें मुस्लिम समुदाय को डराकर और दबाकर रखने के लिए हैं.” सम्मेलन में वक्ताओं, जिनमें पूर्व मंत्री सलमान खुर्शीद, जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला, पूर्व योजना आयोग की सदस्य सैयदा हमीद और पूर्व सांसद के रहमान खान शामिल थे, इन सभी लोगों ने नई चुनौतियों का सामना करने के लिए मुस्लिम समुदाय के विभिन्न समूहों के बीच एकता की आवश्यकता पर ज़ोर दिया. लेकिन इनमें से कई नेता, जिन्होंने वर्तमान स्थिति का सामना करने के लिए समुदाय में एकता की बात की थी, के बारे में मालूम हुआ था कि उन्हें मुशावरत सम्मेलन में आमंत्रित किया गया था, लेकिन वे नहीं आए. ग्रामीण क्षेत्रों सहित पूरे देश में अपना नेटवर्क रखने वाला सबसे बड़ा संगठन जमीयत उलेमा ए हिन्द हमेशा समुदाय के सामान्य मुद्दों पर अन्य संगठनों के साथ मंच साझा करने से बचता है. उनके नेता मुशावरत अधिवेशन से भी अनुपस्थित थे.

क्या मुसलमान नई चुनौतियों का सामना करने के लिए वाकई एकजुट हो पाएंगे?

बड़ा सवाल यह है कि क्या हिंदुत्ववादी ताकतों और मोदी सरकार के हमले का सामना करने के लिए मुसलमान एकजुट होंगे? 1857 और 1947 की चुनौतियों से भी बड़ी चुनौतियों का सामना करने के लिए आखिर वो कौनसी बात है जो उन्हें एक साझा मंच पर आने से रोकती है? लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि यदि मुसलमान ऐसे ही बिखरे रहे तो वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के तहत अपने हितों की रक्षा नहीं कर पाएंगे.

यदि हम भारत के मुस्लिम इतिहास को देखें, तो हम पाते हैं कि वर्तमान संकट अतीत की तुलना में अधिक बड़ा और गंभीर हैं. 1857 और 1947 की घटनाएं जिनमें मुसलमानों के साथ जो कुछ हुआ वह सब कुछ निश्चित घटनाओं की तत्काल प्रतिक्रिया थी जिसके लिए मुसलमानों को गलत या सही तरीके से ज़िम्मेदार ठहराया गया था. मुसलमानों के खिलाफ की गई कार्रवाई ऐसी किसी भी विचारधारा से प्रेरित नहीं थी जिसका उद्देश्य मुसलमानों को डराना और धमकाना रहा हो. लेकिन वर्तमान में भारतीय मुसलमानों पर हमला उस विचारधारा पर आधारित है जो राजनीति से लेकर धर्म और संस्कृति तक हर क्षेत्र में मुसलमानों को दबाने का इरादा रखती है और उन्हें एक समान नागरिक नहीं, बल्कि एक पराजित समुदाय के रूप में रहने के लिए मजबूर करती है.

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