(लिंगायत धर्म क्या है और इसके अनुयायी एकेश्वरवाद में विश्वास क्यों करते हैं? इन्ही सवालों पर लिंगायत धर्म के जानकार प्रो. संजय माकल ने इंडिया टुमारो के डायरेक्टर सैयद तनवीर अहमद के साथ ‘एक सवाल एक जवाब’ कार्यक्रम में विस्तार से चर्चा की है. इस लेख में प्रस्तुत है बात-चीत का कुछ अंश)
इंडिया टुमारो
नई दिल्ली | लिंगायत समुदाय के अनुयायियों के लिए हाल ही में यह ख़ुशी का अवसर रहा कि इस समुदाय के विद्वानों ने 22000 दुर्लभ वचन (पवित्र शास्त्र) पुनः प्राप्त कर लिए हैं.
लिंगायत नेता प्रो. संजय माकल ने सैयद तनवीर अहमद को ‘एक सवाल एक जवाब’ कार्यक्रम में बताया कि, अब तक 22000 वचन प्राप्त किए जा चुके हैं. उन्होंने बताया कि, “लिंगायत समुदाय के यह वचन गुरु बसवन्ना और उनके शिष्यों द्वारा रचित हैं, जिनका समुदाय में खास स्थान हैं. 12वीं शताब्दी के बाद बड़ी संख्या में वचन लुप्त हो गए थे. कुछ जल गए थे. 1930 तक हम उनका पता नहीं लगा पाए थे. 1930 से हमने वचनों के दुबारा पुनरुद्धार की कोशिशें शुरू की.”
गुरु बसवन्ना द्वारा स्थापित, लियांगत धर्म एक ईश्वरीय विचारधारा में विश्वास करता है. लिंगायत कट्टर एकेश्वरवादी होते हैं. वे केवल एक ईश्वर की पूजा करने पर ज़ोर करते हैं. कलचुरी राजवंश के 12वीं शताब्दी के शासक बिज्जला द्वितीय के प्रधान मंत्री गुरु बसवन्ना ने हिंदू समाज के दलित वर्गों की मदद करने और जाति व्यवस्था की ज़ंजीरों को तोड़ने के लिए एक आंदोलन शुरू किया था. उन्होंने लैंगिक और सामाजिक भेदभाव, अंधविश्वास और रीति-रिवाजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी.
प्रो मकल ने बताया कि “लिंगायत समुदाय का गठन 12वीं शताब्दी में हुआ था. भारत बहुत सारे धर्म हैं. यहां सिख धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, सनातन वैदिक धर्म और अन्य कई धर्म हैं. लेकिन लिंगायत सम्प्रदाय इन सबसे अलग है. गुरु बसवन्ना राजा बिज्जला द्वितीय के प्रधान मंत्री थे. वो समाज में कई तरह के बदलाव लेकर आये थे.
प्रो. मकल ने आगे बताया कि, “गुरु बसवन्ना ने जाति व्यवस्था के खिलाफ एक आंदोलन शुरू किया और सभी को समान अधिकार दिए जाने की बात की. एक राज्य के प्रधानमंत्री होने के नाते, उन्होंने सभी को अपनाया. उन्होंने दलितों, एससी, एसटी और ओबीसी सहित सभी को लिंगायत समुदाय में समान धार्मिक अधिकार दिए. वह इन पिछड़ी कही जाने वाली जातियों के लोगों के साथ ही रहा करते थे. उन्होंने लिंगायत समुदाय में शूद्रों को समान अधिकार दिए.”
गुरु बसवन्ना पहले सुधारवादी थे जिन्होंने श्रम की गरिमा का समर्थन किया और तथाकथित पिछड़ी जातियों द्वारा दी जाने वाली सेवाओं के बदले मुद्रा देना शुरू किया.
पुराने समय में दलितों को मुद्रा को छूने की अनुमति नहीं थी. उन्हें संपत्ति अर्जित करने की अनुमति नहीं थी. गुरु बसवन्ना ने कहा कि कर्म ही पूजा है. इसलिए लोगों को काम के बदले मजदूरी मिलनी चाहिए. उदाहरण के लिए, यदि कोई मोची उच्च जाति के पुरुषों के जूते ठीक करता था, तो वे उसे कुछ अनाज देते थे, मुद्रा नहीं. गुरु बसवन्ना ने कहा कि लोगों को काम के बदले मज़दूरी दी जानी चाहिए. इसलिए, उन्होंने एक वेतन प्रणाली शुरू की और उसके बाद दलितों ने पहली बार मुद्रा देखी.”
प्रो माकल ने कहा कि, “सुधारवादी एजेंडे के कारण अन्य साम्राज्यों के कई लोग पलायन कर के गुरु बसवन्ना के राज्य में चले गए. कश्मीर भी एक देश था. वहां का राजा मूर्ति पूजा के विरुद्ध था. वह मंदिरों को नष्ट कर रहा था. कई लोग उस जगह से पलायन कर गए. बसवन्ना उस समय बहुत लोकप्रिय थे. अन्य साम्राज्यों के दलित भी उनके यहां इसलिए आए क्योंकि उन्होंने सबके लिए समान अधिकार सुनिश्चित किए थे. दूसरे राज्यों में उनके साथ मवेशियों जैसा व्यवहार किया जा रहा था. उस वक़्त उन लोगों को लगा कि अगर वे बसवन्ना के साम्राज्य में आते हैं, तो उन्हें न्याय मिलेगा.”
प्रोफेसर माकल ने गुरु बसवन्ना के बारे में आगे विस्तार से बताते हुए कहा कि, “लिंगायत धर्म में मूर्ति पूजा की कोई अवधारणा नहीं है. इस संबंध में लोगों को कुछ गलतफहमी है, कुछ अज्ञानता है. जैन भी लक्ष्मी और सरस्वती पूजा करते हैं. वे हिंदुओं के त्योहार मनाते हैं. हम एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं. हम मानते हैं कि भगवान केवल एक ही है.”