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Thursday, April 25, 2024
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यूनिफॉर्म सिविल कोड के लिए क़ुरआन पर सवाल, दूसरे वसीम रिज़वी बनते फिरोज़ बख़्त

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | पूर्व में एक शिक्षक रहे और वर्तमान में मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी (MANUU) के चांसलर के रूप में कार्यरत फिरोज़ बख्त अहमद क्या दूसरे वसीम रिज़वी बनने की राह पर हैं? फिरोज़ खुद को मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के बड़े भाई अबू-एन-नस्र गुलाम यासीन का पोता बताते हैं.

ज्ञात हो कि वसीम रिज़वी ने कुरान की 26 आयतों पर सवाल उठाया था. उन आयतों को हिंसा को बढ़ावा देने वाली बताते हुए उन्हें कुरान से हटाने की मांग की थी और सुप्रीम कोर्ट का रुख किया था. हालांकि, उनकी याचिका खारिज कर दी गई थी.

यूपी शिया सेंट्रल वक्फ बोर्ड के पूर्व अध्यक्ष वसीम रिज़वी को उनके परिवार और मुस्लिम समाज ने खारिज कर दिया था. बाद में उन्होंने हिंदू धर्म अपनाया और विवादास्पद हिंदू पुजारी यति नरसिंहानंद सरस्वती के द्वारा एक नया नाम जितेंद्र नारायण सिंह त्यागी प्राप्त किया. संयोग से दोनों गुरु शिष्य इस समय भड़काऊ भाषण के आरोप में उत्तराखंड की जेल में हैं.

61 वर्षीय फिरोज़ बख़्त ने मुसलमानों सहित सभी धार्मिक समुदायों के लिए समान नागरिक संहिता (यूसीसी) की मांग करते हुए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया है.

उन्होंने इससे पहले अक्टूबर 2019 में दिल्ली उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर की थी. हालांकि, दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस साल जनवरी में केंद्र सरकार द्वारा एक हलफनामा प्रस्तुत करने के बाद यूनिफॉर्म सिविल कोड को लेकर लगाई गई याचिकाओं पर सुनवाई रोक दी थी.

केंद्र के हलफनामे में यह स्पष्ट किया गया है कि संसद के पास सरकार की नीति के अनुसार कानून बनाने की संप्रभु शक्तियां हैं और अदालतों सहित कोई भी बाहरी प्राधिकरण इस संबंध में निर्देश जारी नहीं कर सकता है. हालांकि, हलफनामे में कहा गया है कि “विभिन्न धार्मिक संप्रदायों के नागरिक अलग-अलग संपत्ति और वैवाहिक कानूनों का पालन करते हैं, जो देश की एकता के प्रतिकूल है.”

इस संबंध में दिल्ली उच्च न्यायालय में छह से अधिक याचिकाएं दायर की गईं थी, जिनमें से भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय द्वारा यूसीसी की मांग के लिए लगाई गई याचिका भी शामिल है.

जैसे ही मामला दिल्ली उच्च न्यायालय में समाप्त हो गया, फिरोज ने मामले में नई सुनवाई के लिए अपनी याचिका को दिल्ली उच्च न्यायालय से उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित करने की मांग करते हुए शीर्ष अदालत का रुख किया.

अपनी याचिका में यूनिफॉर्म सिविल कोड के पक्ष में तर्क देते हुए, फिरोज़ कहते हैं कि धार्मिक कानून “महिला-पुरुष में भेदभाव करने वाले” हैं और “महिलाओं को हीन मानते हैं.”

उनका कहना है कि उन्होंने पितृसत्तात्मक रूढ़ियों के आधार पर बने विवाह की न्यूनतम उम्र, तलाक के आधार, भरण-पोषण- गुजारा भत्ता, उत्तराधिकार-विरासत आदि कानूनों की विसंगतियों को खत्म करने के लिए अदालत का रुख किया, क्योंकि इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है, और यह अपराध और महिला असमानता बढ़ावा देते है और इनकी कोई वैश्विक स्वीकार्यता भी नहीं है.

फ़िरोज़ दावा करते हुए कहते हैं कि, “संपत्ति, विवाह, तलाक, रखरखाव, गोद लेने और विरासत से संबंधित अधिकारों को नियंत्रित करने वाले सभी कानून यूसीसी के अधीन आ जाएंगे”. वह याचिका में कहते हैं कि, “सभी धर्मों के पर्सनल लॉ महिलाओं के हितों खिलाफ ही होते है.”

उनकी याचिका में यह भी दावा किया गया है कि, “धार्मिक कानून निष्पक्ष और भेदभाव रहित नहीं हैं. इसके अलावा, धार्मिक कानूनों को निष्पक्ष रूप से नहीं देखा जा सकता है. वे उन भावनाओं से निर्मित हैं जो ईश्वर की धारणाओं के अनुसार हैं. इस प्रकार इस तरह के कानून को बदलने के लिए, किसी को भी मूल धार्मिक बुनियादी बातों के बारे में धारणाओं को बदलना होगा.”

विवाह, तलाक, रखरखाव, गोद लेने और विरासत आदि से संबंधित इस्लामी कानून, जो नागरिक कानूनों की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं, पैगंबर मुहम्मद के द्वारा कुरान और सुन्नत से प्राप्त हुए हैं. 7वीं शताब्दी में वर्तमान इस्लाम के अस्तित्व में आने के बाद से दुनिया भर के मुसलमान मानते हैं कि कुरान और इसमें वर्णित कानूनों सहित पूरा कुरान अल्लाह का कलाम(शब्द) है और इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता है. कुरान और सुन्नत से प्राप्त कानूनों को लोकप्रिय भाषा में इस्लामी कानून या शरिया कानून कहा जाता है. पर्सनल लॉ में कोई भी संशोधन आवश्यक होने पर शरीयत के मानकों के भीतर संशोधन होने चाहिए, इसके बाहर नहीं.

लेकिन फ़िरोज़ बख़्त की याचिका में इस्तेमाल की गई भाषा के अनुसार “धार्मिक कानून”, या इस्लामी कानून, मुसलमानों द्वारा स्वयं “बनाए गए” हैं, जिसे वे (मुसलमान) “ईश्वर द्वारा बनाये गए” बताते हैं. और इसलिए, इस्लामी या शरीयत कानूनों सहित कोई भी धार्मिक कानून निष्पक्ष नहीं हैं. उनका तर्क है कि यूसीसी के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए लोगों को अपने धार्मिक या व्यक्तिगत कानूनों में बदलाव लाने के लिए अपने “मूल धार्मिक बुनियादी सिद्धांतों” के बारे में अपनी धारणा या समझ को बदलना चाहिए.

अब यह काम कुरान की व्याख्या करने वाले और इस्लामी कानूनों के विशेषज्ञों का है कि फिरोज़ के तर्क ईशनिंदा की श्रेणी में आते हैं या नहीं. लेकिन एक आम आदमी भी फ़िरोज़ बख्त की याचिका की भाषा देखकर आसानी से समझ सकता है कि फ़िरोज़ विवाह, तलाक, भरण-पोषण, गोद लेने और विरासत आदि के बारे में बने पर्सनल लॉ के बारे में धर्म के मूल सिद्धांतों को बदलने की बात कर रहे हैं. इसका मतलब है कि जहां तक पर्सनल लॉ की बात है तो कुरान को सच्चा मानने के अपने विश्वास को मुस्लिमों को छोड़ना होगा.

अतः इस तरह के बयान देकर, फिरोज़ बख्त पर्सनल लॉ से संबंधित कुरान के आदेशों की सत्यता को सीधे चुनौती दे रहे हैं. यदि फिरोज़ के तर्कों को माना जाता है, तो कुरान के कानूनों में कमियां हैं इसलिए, एक यूनिफार्म सिविल कोड की आवश्यकता है.

उनकी याचिका में आगे कहा गया है कि “समान नागरिक संहिता, एक दीर्घकालीन समानता सुनिश्चित करेगी. फ़िरोज़ के अनुसार अन्य धर्मो के पर्सनल लॉ में सुधार हुआ है, लेकिन मुस्लिम कानून में नहीं हुआ है. उदाहरण के लिए, मुसलमान एक से अधिक बार शादी कर सकते हैं, लेकिन ऐसा करने पर हिंदुओं या ईसाइयों पर मुकदमा चलता है.” फ़िरोज़ की यूनिफॉर्म सिविल कोड की मांग के पीछे यही मुख्य कारण प्रतीत होता है.

अपनी याचिका में, उन्होंने शादी से लेकर तलाक, उत्तराधिकार, गोद लेने और विरासत आदि हर पहलू पर इस्लाम के नियमों पर हमला किया है और राष्ट्र की “एकता और अखंडता को मज़बूत करने और बढ़ावा देने” के लिए एक यूनिफॉर्म सिविल कोड को पारित करने और लागू करने का अनुरोध किया है. उनकी माने तो राष्ट्र बहुत कमज़ोर है और यूसीसी के अभाव में एकजुट नहीं है. उनका कहना है कि विवाह, तलाक, गोद लेना और विरासत आदि जैसे मुद्दे नागरिक और मानवाधिकार के मुद्दे हैं और इन्हें धर्म के प्रभाव से मुक्त किया जाना चाहिए.

उदाहरण के लिए, उनकी याचिका में कहा गया है कि “उत्तराधिकार और विरासत की व्यवस्था इस्लाम में अत्यधिक जटिल है और माता-पिता की संपत्ति के बंटवारे को लेकर बेटे और बेटियों के बीच बहुत अधिक भेदभाव किया गया है.” उनका कहना है कि वसीयत, दान, उत्तराधिकार और विरासत के मुद्दे धार्मिक मामले नहीं हैं, बल्कि नागरिक और मानवाधिकार सम्बन्धी मुद्दे हैं और इसलिए, इन्हें लिंग आधारित भेदभाव और धर्म से मुक्त होना चाहिए.

यह बताते हुए कि ‘तलाक के आधार’ और तलाक के तरीके अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग हैं, उनका कहना है कि “तलाक का आधार किसी भी तरह से धार्मिक मामला नहीं है बल्कि नागरिक और मानवाधिकारों का मामला है, इसलिए यह लैंगिक और धार्मिक रूप से तटस्थ होना चाहिए.”

तीन तलाक को अवैध घोषित हो जाने के बाद भी उन्होंने तलाक-ए-हसन और तलाक-ए-अहसन की वैधता पर भी सवाल उठाया है.

गोद लेने और संरक्षकता के इस्लामी कानून पर आपत्ति जताते हुए, उनका कहना है कि गोद लेना और संरक्षकता का आधार धार्मिक मामला नहीं है और इसलिए इसे भी धर्म से मुक्त होना चाहिए.

उनका कहना है कि संविधान लागू होने के 73 साल बाद भी केवल “वोट बैंक की राजनीति” के कारण यूनिफार्म सिविल कोड को लागू नहीं किया गया.

यह दर्शाते हुए कि “यूनिफार्म सिविल कोड का विरोध मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय द्वारा किया जाता है, वह ज़ोर देकर कहते हैं कि, “यूनिफॉर्म सिविल कोड महिलाओं के शोषण को समाप्त करने के लिए बेहद ज़रूरी है.”

हालांकि, जब उनसे पूछा गया कि उन्होंने याचिका में क्या कहा है, तो फ़ौरन वो अपनी भाषा बदल लेते हैं. लेकिन वह यूसीसी की अपनी मांग पर अडिग हैं.

इंडिया टुमारो के सवालों के लिखित जवाब में, फिरोज़ कहते हैं कि, “इस्लामिक कानूनों में बिल्कुल भी बदलाव की आवश्यकता नहीं है.” हालांकि, उनका ही कहना है कि जिस तरह से “तथाकथित ‘ठेकेदार’ अपने हानिकारक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए चीज़ों की गलत व्याख्या करते हैं, उस स्थिति में “यूनिफॉर्म सिविल कोड ही समाधान है”.

वह स्वीकार करते हैं कि, “इस्लामिक कानूनों में कोई कमी नहीं है” और “ये कानून बिल्कुल स्पष्ट या स्व परिभाषित हैं”. याचिका में वह कहते हैं और जो वह सार्वजनिक रूप से बोलते हैं, दोनों बातों में विरोधाभास दिखाई देता है. वह यूनिफॉर्म सिविल कोड की वकालत करते हुए कहते हैं, “इस्लामी कानूनों का तथाकथित इस्लाम के शुभचिंतकों द्वारा दुरुपयोग किया जाता है और उन्हें बदनाम किया जाता है.”

उनका कहना है कि उनकी याचिका इस्लामिक कानूनों के खिलाफ नहीं है.

यूसीसी की मांग करके, वह कहते हैं कि वह केवल “चार शादी और ट्रिपल तलाक जैसी गलत चीज़ों को रोकना चाहते हैं.”

यह पूछे जाने पर कि क्या वह राज्यसभा में अपना नामांकन सुनिश्चित करने या राज्यपाल के रूप में नियुक्ति पाने के लिए यह सब कर रहे हैं, तो फ़िरोज़ बख्त ने कहा कि, “यह एक मनगढ़ंत आरोप है. वे कहते हैं, “पर्सनल लॉ के क्षेत्र में विभिन्न समुदायों के स्वछंद आचरण में संशोधन ही उनका एकमात्र उद्देश्य है”

एक अन्य सवाल कि, “मुसलमानों में से जो कोई भी यूनिफार्म सिविल कोड के लिए खड़ा हुआ है, वह समाज में न सिर्फ अपनी प्रतिष्ठा खो देता है बल्कि राजनीतिक गुमनामी में भी चला जाता है?” इसके जवाब में उन्होंने कहा कि, “कोई बात नहीं! मैं अपना काम ईमानदारी से कर रहा हूँ.”

पूरी याचिका न तो फिरोज़ और न उनके वकील आशुतोष दुबे की ओर से मूल मसौदा प्रतीत होती है. याचिका के कुछ हिस्से बिजनेस स्टैंडर्ड के एक लेख से शब्दशः लिए गए हैं.

उन्होंने अपनी वंशावली को भी याचिका से जोड़ा है जिसका याचिका के विषय से कोई लेना-देना नहीं है. उन्होंने कांग्रेस के बड़े नेता, स्वतंत्रता सेनानी और भारत के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के साथ अपने संबंधों का भी दावा किया है, शायद विभिन्न दलों को प्रभावित करने के लिए उन्होंने ऐसा किया होगा.

याचिका में उन्होंने अपनी योग्यता का ज़िक्र नहीं किया है.

वह खुद को एक स्तंभकार और एक राजनीतिक विश्लेषक बताते हैं. याचिका में, वह एक अल्पज्ञात एनजीओ, “फ्रेंड्स फॉर एजुकेशन” चलाने का भी दावा करते हैं, और उनके अनुसार उन्होंने हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी भाषाओं में शिक्षा और इतिहास के मुद्दों पर 2,000 से अधिक लेख लिखे हैं. वह अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा, इटली, पोलैंड आदि देशों में कई अंतरराष्ट्रीय कार्यशालाओं/सम्मेलनों में भारत का प्रतिनिधित्व करने का भी दावा करते हैं.

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