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Friday, March 29, 2024
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भारत में बढ़ता इस्लामोफोबिया, आखिर क्या करें मुसलमान?

सैयद ख़लीक अहमद

नई दिल्ली | इस्लामोफोबिया या यूं कहें कि इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ नफरत भारत में इस हद तक पहुंच चुकी है कि तथाकथित हिंदू साधु संतों का एक पूरा समूह मुसलमानों को सामूहिक रूप से नरसंहार का आह्वान कर रहा है.

फासीवादी-धार्मिक नेताओं द्वारा मुसलमानों के नरसंहार के आह्वान की यह घटना राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली से 200 किलोमीटर दूर स्थित प्रसिद्ध हिन्दू तीर्थ स्थल हरिद्वार में आयोजित एक कार्यक्रम में घटित हुई.

मुसलमानों को आतंकवाद का स्रोत बताकर उन्हें मारने का आह्वान किया जा रहा है. इसके अलावा नरसंहार का आह्वान करने वाले इन हिंदुत्ववादी कट्टरपंथियों का तर्क है कि अगर मुसलमानों पर अंकुश नहीं लगाया गया तो वे अगले कुछ दशकों में एक मज़बूत भू-राजनीतिक ताकत के रूप में उभर सकते हैं.

मुस्लिमों को लेकर इन अराजक तत्वों की ये बातें दक्षिणपंथी हिंदू धार्मिक नेताओं के झूठे प्रचार पर आधारित लगती है, जिनके पास इस्लाम और मुसलमानों के संबंध में अपना खुद का कोई अध्ययन नहीं है. वे पश्चिम के इस्लाम विरोधी प्रचार के आधार पर अपनी राय बनाते हैं.

एमएस गोलवलकर और वीर सावरकर के हिंदुत्व के आदर्शों पर आधारित उनके नापाक राजनीतिक एजेंडे को पूरा करने के लिए मुसलमानों का हिंदुओ के लिए खतरा होने का यह झूठ बार-बार दोहराया जा रहा है, एक ऐसा राष्ट्रवादी विचार जिसमें मुसलमानों और ईसाइयों के लिए कोई जगह नहीं है.

इसलिए, “मुस्लिम-मुक्त” भारत के सपने को साकार करने के लिए मुसलमानों के नरसंहार का आह्वान किया जा रहा है.

भारत की आबादी में मुसलमानों की संख्या 15 प्रतिशत से अधिक है, जो देश के हर कस्बे और गांव में बिखरी हुई है.

शुरुआत में तो मुसलमानों ने सांप्रदायिक नारों को बहुत गंभीरता से नहीं लिया क्योंकि भाजपा और अन्य दक्षिणपंथी संगठनों ने राज्य और राष्ट्रीय चुनावों से पहले अपने पक्ष में मतदाताओं का ध्रुवीकरण करने के लिए साम्प्रदायिक नारे लगाए थे. नतीजतन, चुनाव के बाद सांप्रदायिक नारे बंद हो गए.

लेकिन अब देश में मुस्लिम विरोधी नारे मोदी की सरकार में बिल्कुल आम हो गए हैं.

एक समुदाय विशेष विरोधी नारों पर जो राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर प्रशासन की भूमिका होनी चाहिए और इस साम्प्रदायिक संकट को दूर करने के लिए कानून व्यवस्था द्वारा जो कदम उठाए जाने चाहिए, वैसा नहीं होने के कारण वर्तमान परिस्थितियों ने भारत के मुसलमानों, ईसाइयों और हिंदू उदारवादियों को चिंता में डाल दिया है.

मुस्लिमों के नरसंहार का आह्वान जो कि सीधे तौर पर आतंकवाद के लिए एक प्रकार का उकसावा है, इसने ने देश में एक बहस छेड़ दी है. हिंदुत्ववादी फासीवादी तत्वों के हमले के केंद्र में रहने वाले मुसलमान अब चर्चा कर रहे हैं कि इस्लामोफोबिया की चुनौती का मुकाबला करने के लिए क्या कदम उठाए जाने चाहिए. पिछले सात वर्षों में, इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ नफरत हर स्तर पर फैल चुकी हैं.

सबसे बड़ी चिंता की बात यह है कि केंद्र की मोदी सरकार चुप है और फासीवादी तत्वों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है.

लेकिन ऐसा नहीं है कि इस्लामोफोबिया भारत के लिए कोई नई बात है बल्कि भारत में इस्लामोफोबिया का एक लंबा इतिहास रहा है और इसकी शुरुआत ब्रिटिश-ईसाई युग से ही हो गई थी.

क्योंकि भारत पर जब अंग्रेज़ों ने अपना आधिपत्य स्थापित किया था तब यहां मुसलमानों की हुकूमत थी. इसलिए भारत को अंग्रेज़ो के चंगुल से मुक्त कराने में मुसलमान सबसे आगे थे.

मुसलमान को विफल करने के लिए, अंग्रेज़ो ने भारतीय मुसलमानों के खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया.

अंग्रेज़ो ने मुसलमानों के इतिहास और धर्म को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत कर उनके खिलाफ घृणा का अभियान शुरू किया उन्होंने मुस्लिम शासन के इतिहास और भारत में उनके योगदान को गलत तरीके से प्रस्तुत किया. मुस्लिम काल के दौरान आर्थिक रूप से अत्यधिक सम्पन्न और आत्मनिर्भर होने के कारण भारत को “सोने की चिड़िया” के रूप में जाना जाता था. मुस्लिम शासकों द्वारा लागू की गई इस्लाम की दूरदर्शी और प्रगतिशील नीतियों के कारण भारत यह तमगा हासिल किया था.

लेकिन अंग्रेज़ो ने अपने गुप्त उद्देश्य के तहत इस्लाम को एक आदिम और पिछड़ी व्यवस्था के रूप में चित्रित किया. उन्होंने दुष्प्रचार किया कि इस्लाम भारत में तलवार के जरिये से फैला था, और मुसलमान हिंसक, खतरनाक और खून के प्यासे थे.

अंग्रेज़ो ने सफलतापूर्वक एक आम धारणा बना दी कि मुसलमानों ने स्थानीय हिंदू आबादी पर अत्याचार किया था और अब उनका बहिष्कार करने और उन्हें समाप्त करने की आवश्यकता है. इसलिए, वर्तमान इस्लामोफोबिया की जड़ें अंग्रेज़ों द्वारा मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ नफरत का प्रचार करने तक फैली हुई है.

एक समुदाय के खिलाफ हिंसा और नरसंहार को सही ठहराने के लिए इस तरह की कहानी ज़रूरी है. जब आप किसी खास समुदाय के खिलाफ लोगों के दिमाग में इस तरह के ज़हर का सफलतापूर्वक इंजेक्शन लगाते हैं, तो इससे समाज में उनके खिलाफ नफरत पैदा होती है.

इसलिए जब जनसंहार शुरू होता है तो पीड़ित-समुदाय को ऐसी स्थिति में कोई समर्थक नहीं मिलता. इससे फासीवादी ताकतों का काम और आसान हो जाता है.

बोस्निया और म्यांमार में मुसलमानों का नरसंहार इसका सबसे सटीक उदाहरण है. मुस्लिम समुदाय को सामूहिक रूप से फांसी दिए जाने से पहले दशकों तक उनके खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान चलाया गया था. न केवल नागरिक आबादी बल्कि सशस्त्र बल, और पुलिस भी दोनों देशों में मुसलमानों के नरसंहार में शामिल थे.

1947 में अंग्रेजों द्वारा भारत छोड़ने के बाद, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के नेतृत्व में हिंदुत्ववादी ताकतों ने इस्लाम और मुसलमानों के खिलाफ चरित्र हनन का अभियान शुरू किया.

वैसे तो आरएसएस ने 1925 में अपनी स्थापना के तुरंत बाद ही इस अभियान की शुरुआत कर दी थी.

आरएसएस और उस जैसे तमाम संगठन मुसलमानों और इस्लाम को बदनाम करने के लिए विभिन्न प्रकार का साहित्य लेकर आए. उन्होंने उस झूठे ब्रिटिश प्रोपेगेंडा को जारी रखा कि मुसलमानों ने जबरन हिंदुओं का धर्मांतरण किया था.

वे अब प्रोपेगेंडा को और अधिक ताकत के साथ फैला रहे हैं क्योंकि अब सत्ता के केंद्र में भी उन्हीं के लोग हैं, और उन्होंने सभी सरकारी संस्थाओं पर कब्ज़ा कर लिया है.

इसी प्रकार एडॉल्फ हिटलर के प्रचार मंत्री जोसेफ गोएबल्स ने यहूदियों के खिलाफ झूठ पर आधारित एक अभियान चलाया था और उन्हें जर्मनी में व्याप्त सभी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराया था. आरएसएस और इसकी शाखाएं भी इसी तरह का प्रचार प्रसार कर रही हैं और भारत में सभी समस्याओं के लिए मुसलमानों को ज़िम्मेदार ठहरा रही हैं. भारत में मुसलमानों के नरसंहार के लिए कुछ हिंदुत्ववादी चरमपंथी उसी तरह के समाधान की तलाश में हैं जो हिटलर ने जर्मनी में यहूदियों के खिलाफ लागू किया था.

हिंदुत्ववादी ताकतों ने भारत में मुस्लिम इतिहास को मिटाने और आम हिंदुओं के दिमाग में ज़हर घोलने के लिए भारतीय मुस्लिम इतिहास को हिंदू विरोधी रूप में पेश करने की भव्य योजना शुरू की हुई है.

हिंदुत्ववादी ताकतें प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक, डिजिटल और सोशल मीडिया गलत जानकारी के माध्यम से आम हिंदू आबादी के दिमाग में घृणा फैलाने का काम कर रही हैं कि मुसलमान आक्रमणकारी और घुसपैठिये हैं और भारत में मुसलमानों की वही स्थिति है जो किसी और की संपत्ति पर अतिक्रमण करने वाले की होती है. वे हिंदुओं के समान भारत भूमि के मूल निवासी नहीं हैं इसलिए, उनसे विदेशी या घुसपैठिए के रूप में व्यवहार किया जाना चाहिए.

आरएसएस लगातार प्रचार कर रहा है कि उत्तर भारत में औरंगज़ेब और दक्षिण भारत में टीपू सुल्तान जैसे मुस्लिम शासकों ने हिंदू आबादी को मुसलमान बनाने के लिए और मुस्लिम आबादी को बढ़ाने के लिए बल प्रयोग किया था.

पीएम मोदी ने हर साल 14 अगस्त को विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस के रूप में याद करने की घोषणा की. उन्होंने खुले आम कहा कि लोगों को याद दिलाने के लिए यह ज़रूरी ताकि भविष्य में इस तरह की भयावहता की पुनरावृत्ति न हो. दुर्भाग्य से इस घोषणा ने आग में घी का काम किया. उनकी घोषणा के बाद एक केंद्रीय मंत्री ने केरल के मोपला विद्रोह को एक हिंदू विरोधी आंदोलन के रूप में वर्णित किया, इस तरह से सम्प्रदायिकता का वायरस दक्षिण भारत में भी पहुँच गया जो अब तक लगभग इससे मुक्त था. बीजेपी शासित राज्यों में बीजेपी नेता और मंत्री मुसलमानों के खिलाफ सांप्रदायिक ज़हर उगल रहे हैं जैसे कि मुसलमान ही भारत की सभी समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं.

सत्तारूढ़ दल के नेताओ द्वारा दिये जाने वाले सांप्रदायिक भाषणों ने निस्संदेह भारत में मुस्लिम समुदाय के बारे में आम हिंदुओं के मन में संदेह पैदा करने का काम किया है. स्वयं की तथाकथित राजनीतिक मजबूरियों के कारण कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों के खिलाफ ज़हर फैलाने वाले फासीवादियों को चुनौती देने का साहस नहीं जुटाता है. यदि कोई मुसलमान किसी हिंदू कट्टरपंथी द्वारा उसके खिलाफ की गई हिंसा की शिकायत पुलिस से करता है, तो पुलिस मुस्लिम पर मामला दर्ज करती है, न कि हिंदू आरोपी पर. मुस्लिम पीड़ितो का समर्थन करने वाले हिंदुओं को भी परेशान किया जाता है.

इसलिए, जब हिन्दू साधु संतों का चोला पहने फासीवादी तत्वों ने मुसलमानों के खिलाफ नरसंहार का आह्वान किया, तो शायद ही नागरिक समाज से कोई इसकी निंदा करने और इसके खिलाफ कार्रवाई की मांग करने के लिए आगे आया हो.

शायद प्रतिशोध के डर ने नागरिक समाज के सदस्यों को इस्लामोफोबिक धार्मिक नेताओं के खिलाफ अपना मुंह बंद रखने के लिए मजबूर कर दिया है.

घटना के एक हफ्ते बाद, सेना के कुछ पूर्व अधिकारियों और प्रबुद्ध नागरिकों ने एक खुला पत्र लिखा, लेकिन स्वयं को सेफ ज़ोन में रखते हुए पत्र लिखा गया और राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद और पीएम नरेंद्र मोदी से हरिद्वार के नफरत फैलाने वालों के खिलाफ कार्रवाई की मांग की.

हैरानी की बात यह है कि इस पर राष्ट्रपति या पीएम की ओर से कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है! केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी चुप्पी साधे बैठे हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो.

मुसलमानों को क्या करना चाहिए?

ऐसे में मुसलमानों को क्या करना चाहिए? क्या हरिद्वार कांड पर नागरिक समाज की चुप्पी मुसलमानों के नरसंहार के आह्वान की स्वीकृति के समान नहीं है?

जमात-ए-इस्लामी हिंद (JIH) के उपाध्यक्ष प्रो. मोहम्मद सलीम इंजीनियर ने एक बहस में भाग लेते हुए कहा कि नागरिक समाज की चुप्पी को कुबूल नहीं किया जाना चाहिए.

उनके अनुसार, अधिकांश हिंदू उन तथाकथित धार्मिक नेताओं के विचारों से सहमत नहीं हैं, जिन्होंने हरिद्वार की सभा में ज़हर उगला.

उन्होंने कहा कि मुसलमानों को हिंदुत्ववादी कट्टरपंथी ताकतों से मुकाबला करने के लिए ज़रूरी है कि वो नागरिक समाज के सदस्यों को अपने साथ लें और एक लोकतांत्रिक और कानूनी लड़ाई शुरू करें.

उर्दू दैनिक इंकलाब के संपादक अब्दुल वदूद साजिद ने एक कार्यक्रम में बोलते हुए मुसलमानों से विवादास्पद धार्मिक नेताओं के मुस्लिम विरोधी बयानों पर राजनीतिक रूप से उग्र प्रतिक्रिया ज़ाहिर नहीं करने को कहा क्योंकि मुस्लिम विरोधी ताकतें इसका भी दुरुपयोग कर सकती हैं.

उन्होंने कहा कि इसका मुकाबला करने का सबसे अच्छा तरीका कानूनी और संवैधानिक उपाय अपनाना है और उपद्रवियों के खिलाफ अदालती मामले दर्ज करना है.

वेलफेयर पार्टी ऑफ इंडिया के अध्यक्ष डॉ. एसक्यूआर इलियास ने प्रो. सलीम के विचारों का ही समर्थन किया. उनका कहना है कि इस्लामोफोबिया का मुकाबला करने के लिए मुसलमानों को नागरिक समाज को लामबंद करना चाहिए. डॉ इलियास के अनुसार, भारत के आम हिंदू हरिद्वार में मुसलमानों के खिलाफ ज़हर उगलने वाले उन चंद लोगों के विचारों का समर्थन नहीं करते हैं.

उस्मानिया विश्वविद्यालय के एक पूर्व प्रोफेसर मोहसिन उस्मानी का कहना है कि विरोध, प्रदर्शन, आंदोलन और अदालती मामलों का दर्ज किया जाना इस समस्या का अस्थायी समाधान है.

उनका कहना है कि मुसलमानों और इस्लाम के खिलाफ हिंदू आबादी के दिमाग में भरी गयी गलतफहमी को दूर करना स्थायी समाधान है.

उनके अनुसार, मुसलमानों को इस्लाम पर बड़े पैमाने पर जानकारी और साहित्य प्रकाशित करना चाहिए और साथ ही जब मुसलमान भारत में सत्ता में थे उस वक़्त के भारत के विकास और प्रगति में मुसलमानों के योगदान पर भी जानकारी व लिटरेचर प्रकाशित किया जाना चाहिए.

प्रो. उस्मानी का तर्क है कि इसे हिंदी के अलावा उन सभी क्षेत्रीय भाषाओं में प्रकाशित करने की आवश्यकता है, जो अधिकांश राज्यों में पढ़ी और बोली जाती है. मुसलमानों को हिंदुओं को यह समझाने की जरूरत है कि इस्लाम हिंसा का धर्म नहीं है और यह कि इस्लाम भारत में तलवार से नहीं फैला था जैसा कि अंग्रेजों और फिर आरएसएस द्वारा बताया जाता है.

हालांकि यह एक मुश्किल काम है, लेकिन उस्मानी का मानना ​​है कि इस्लामोफोबिया का मुकाबला करने के लिए यह एकमात्र भरोसेमंद और स्थायी समाधान है.

हाल ही में एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में, सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता और मानवाधिकार कार्यकर्ता प्रशांत भूषण ने इस्लामोफोबिया के खतरे का मुकाबला करने के लिए प्रोफेसर उस्मानी के जैसे ही समाधान पेश किया. उन्होंने कहा कि मुसलमानों को स्वतंत्रता संग्राम में अपने योगदान का प्रचार करना चाहिए जिसे मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार लोगो के ज़हन से मिटा रही है.

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