नईम क़ादरी
अहमदाबाद | विश्व प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने भारत में लोकतंत्र के चार स्तंभों को बचाने के लिए जन आंदोलनों की ज़रूरत पर अपने विचार रखे. उन्होंने कहा कि “जन आंदोलनों द्वारा ही हमें भारत के लोकतंत्र के चारों स्तंभों को खत्म कर रहे दीमको से मुक्ति मिलेगी.
मेधा पाटकर ने रविवार 19 दिसंबर, 2021 की शाम अहमदाबाद में इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (IMA) के सभागार में ‘जमीन-नी-संगढ़ आने पड़करो’ (भूमि और चुनौतियों के लिए संघर्ष) पर चुन्नीभाई वैद्य की स्मृति में व्याख्यान देते उक्त विचार प्रकट किए.
उन्होंने कहा कि “सभी सूक्ष्म-स्तर के संघर्ष अति सूक्ष्म-स्तरीय आंदोलनो के निर्माण के लिए ज़रूरी हैं जो आगे चलकर सभी स्तरों पर विकास के प्रतिमानों पर सवाल उठाते हैं.”
उन्होंने कहा, “चुन्नी काका कहते थे कि गाँव की ज़मीन, गाँव की है – लेकिन क्या ऐसा वास्तव में हो रहा है? क्या सरकार द्वारा कॉरपोरेट सेक्टर और खनन माफिया को दिए जा रहे जल, जंगल, ज़मीन पर ग्रामीणों का नियंत्रण है? त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था कहाँ है?” उन्होंने सवाल करते हुए कहा, “लोगों द्वारा किये जाने जाने वाले आंदोलनों का कोई विकल्प नहीं है.”
मेधा पाटकर, 67 मुंबई स्थित सामाजिक विज्ञान अनुसंधान के एक प्रमुख संस्थान TISS (टाटा सामाजिक विज्ञान संस्थान) की भूतपुर्व विद्यार्थी हैं.
मेधा पाटकर आदिवासियों, दलितों, किसानों, अल्पसंख्यकों महिलाओं और समाज के अन्य वंचित तबकों से संबंधित विभिन्न महत्वपूर्ण राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों पर काम करने वाली एक प्रसिद्ध और प्रख्यात सामाजिक कार्यकर्ता हैं.
दक्षिण गुजरात में नर्मदा नदी पर महत्वाकांक्षी सरदार सरोवर नर्मदा परियोजना में शामिल बड़े बांधों के खिलाफ 36 साल की अथक लड़ाई का नेतृत्व मेधा पाटकर ने किया. बांध ने गुजरात और मध्य प्रदेश में हज़ारों आदिवासियों को उनकी भूमि से विस्थापित कर दिया था.
लगभग 90 मिनट के अपने भाषण में, पाटकर ने विभिन्न विषयों पर विचार प्रकट किए. लंबे समय तक चलने वाले सफल किसान आंदोलन, जिसने सत्तारूढ़ सरकार को न सिर्फ रक्षात्मक मुद्रा में ला दिया, बल्कि प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने सार्वजनिक रूप से माफी भी मांगी और विवादास्पद कृषि कानूनों को वापस लेने की घोषणा की, उस किसान आंदोलन का उदाहरण देते हुए फायरब्रांड अधिकार कार्यकर्ता ने ज़ोर देकर कहा कि “यह एक ज़ोरदार सार्वजनिक आंदोलन के बिना संभव नहीं हो पाता.”
आगे अपने व्याख्यान में शाहीन बाग (दिल्ली में) के मज़बूत आंदोलन का उदाहरण देते हुए पाटकर ने अपने पूरे संबोधन में बार-बार लोगों को अधिक जागरूक और अधिक संवेदनशील बनने और मुद्दों को उठाने के लिए खुद को तैयार करने की ज़रूरत को दर्शाया. सार्वजनिक आंदोलनों की आवश्यकता पर ज़ोर देते हुए पाटकर ने कहा कि “हम कानूनी लड़ाई लड़ सकते हैं या हो सकता है कि नौकरशाहों और न्यायाधीशों के बीच से हमें कोई समर्थन मिल जाये समर्थक मिल जाए लेकिन कुछ बदलाव मैदान में लोगों के आंदोलनों के बिना नहीं आ पाएंगे.”
उन्होंने कहा कि समय की मांग है कि राजनीतिक मतभेदों से ऊपर उठकर उन लोगों द्वारा वास्तविक राजनीतिक लड़ाई लड़ी जाए, जो जनता के नाम पर बनाई गई तथाकथित कल्याणकारी नीतियों के पहले शिकार बनते हैं.
वर्तमान सरकार के खिलाफ चले कुछ अग्रणी जन आंदोलनों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने टिप्पणी करते हुए आंदोलन करने वालों को ‘आंदोलनजीवी’ कहा था, पीएम की इस टिप्पणी की कड़ी आलोचना करते हुए तेज़तर्रार सामाजिक कार्यकर्ता मेधा पाटकर ने अपने अंदाज़ में कहा कि “हां, हम आंदोलनजीवी हैं क्योंकि आज की केंद्रीय नीतियां वंचित समुदायों को ओर हाशिये पर धकेल रही है. सरकार गरीबों के लिए सभी विकल्पों को ख़त्म कर रही है, सड़को पर उतरना ही अब उनके सामने एक विकल्प बचा है.”
विदेशी धन प्राप्त करने वाले गैर सरकारी संगठनों के बारे में वर्तमान सरकार द्वारा लगाए गए आरोपों पर प्रतिक्रिया देते हुए पाटकर ने कहा कि “उनका आरोप है कि हम अपने आंदोलन के लिए विदेशी धन प्राप्त करते हैं, जबकि मैंने अपनी पुरस्कार राशि भी वापस कर दी थी. हालांकि तथाकथित पीपीपी (प्राइवेट पब्लिक पार्टनरशिप) मॉडल नीतियों को लागू करने के लिए लेकिन देश में बहुत पैसा आ रहा है.
सामने से हमला करते हुए, उसने सवाल किया, “पीएम केयर्स फंड में और आपदा प्रबंधन के लिए कितना विदेशी फंड आया? कहाँ है?”
पाटकर के अनुसार, सरकार ने एक ओर दावा किया कि आदिवासियों, भूमिहीनों, गरीबों और किसानों के लिए कोई पैसा नहीं है। “लेकिन इसी सरकार के पास सेंट्रल विस्टा, सरदार पटेल की मूर्ति और कॉरपोरेट एनपीए को 68,000 करोड़ रुपए माफ करने के लिए पैसा है।”
उदाहरण देते हुए, उन्होंने वडोदरा, अहमदाबाद और गांधीनगर जैसे बड़े शहरी शहरों के पक्ष में बांध के पानी के “एकतरफा वितरण” की ओर इशारा किया। इसके विपरीत, वादा किया गया नर्मदा का पानी पश्चिमी गुजरात के सौराष्ट्र और कच्छ के सूखे खेतों तक पहुंचने में विफल रहा.
केंद्र सरकार पर हमला बोलते हुए उन्होंने सवाल किया कि “पीएम केयर्स फंड और आपदा प्रबंधन के लिए कितना विदेशी फंड आया? और वो कहाँ है?”
मेधा पाटकर के अनुसार, सरकार ने एक ओर तो सरकार ये दर्शाती है कि आदिवासियों, भूमिहीनों, गरीबों और किसानों के लिए कोई पैसा नहीं है, लेकिन वहीं दूसरी ओर इसी सरकार के पास सेंट्रल विस्टा, सरदार पटेल की मूर्ति के लिए और कॉरपोरेट एनपीए को 68,000 करोड़ रुपए माफ करने के लिए काफी पैसा है.”
मेधा पाटकर ने उदाहरण देते हुए बताया कि वडोदरा, अहमदाबाद और गांधीनगर जैसे बड़े शहरी क्षेत्रो को बांध के पानी का “एकतरफा वितरण” किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सरकारी वादे के विपरीत नर्मदा का पानी पश्चिमी गुजरात के सौराष्ट्र और कच्छ के सूखे खेतो तक पहुंचने में विफल रहा.
न्यायपालिका का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, ‘हमने कुछ अच्छे जजों को देखा है जिन्होंने झुकने से पहले और बीच का रास्ता तलाशने तक राजनीतिक दबावों का सामना किया. और हमने अयोध्या से कश्मीर तक भी देखा है और उन्हें राज्यसभा की सदस्यता लेते हुए भी देखा है.
मेधा पाटकर ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक जैसी अंतरराष्ट्रीय फंडिंग एजेंसियों के स्तर तक लड़ने का समय आ गया है, ये सारे अंतरराष्ट्रीय मंच एक ओर तो आदिवासियों और दलितों के हितों की बात करते हैं और समझते हैं, लेकिन दूसरी ओर उनके खिलाफ नीतियों को लागू करने वाली सरकारी एजेंसियों को फंड भी देते है.”
उन्होंने याद करते हुए कहा कि कैसे उनके नर्मदा बचाओ आंदोलन ने विश्व बैंक को सरदार सरोवर परियोजना के लिए धन वापस लेने के लिए मजबूर किया था. लेकिन, “नर्मदा पर विश्व बैंक के आंतरिक दस्तावेज में लिखित है कि सरकार को आदिवासी क्षेत्रों में हस्तक्षेप की अनुमति होगी.”
19 दिसंबर, 2021 को चुन्नीभाई की सातवीं पुण्यतिथि थी, जिन्हें “चुन्नी काका” के नाम से जाना जाता है. 2 सितंबर, 1917 को पाटन जिले के एक छोटे से गाँव में जन्मे चुन्नीभाई का 97 वर्ष की आयु में 19 दिसंबर 2014 को अहमदाबाद में निधन हो गया था.
प्रसिद्ध गांधीवादी और सर्वोदय आंदोलन में सक्रिय रहने वाले चुन्नीभाई ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन और बाद में विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में भी भाग लिया था. 1960 के दशक में जब हिंसा भड़की तो उन्होंने असम में शांति के लिए काम किया. उन्होंने 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का विरोध किया और जेल गए.
चुन्नीभाई ने ‘भूमिपुत्र’ पत्रिका का संपादन भी किया और 1980 में एक स्वैच्छिक संगठन गुजरात लोक समिति की स्थापना की. 1986 से 1988 तक पड़े भयंकर सूखे के दौरान चुन्नीभाई पाटन जिले में राहत कार्य और चेक डैम के निर्माण में शामिल थे, जिससे 12000 हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हुई.
वह 2002 में हुई गुजरात हिंसा के भी आलोचक थे, जिसमें लगभग 3,000 लोगों ने अपनी जान गंवाई और करोड़ों रुपये की संपत्ति को दंगाइयों ने नष्ट कर दिया था.
चुन्नीभाई ने “असेसिनेशन ऑफ गांधी : फैक्ट एंड फाल्सहुड” नामक किताब लिखी और उन्होंने इसका ग्यारह भाषाओं में अनुवाद किया और प्रकाशित भी किया.
गुजरात के गांधी के रूप में जाने जाने वाले, चुन्नीभाई ने गुजरात लोक समिति के माध्यम से कई जन आंदोलनों का नेतृत्व किया, जिससे कई बड़े व्यापारिक घरानों को अपनी योजनाओं को वापस लेने या बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा.
मेधा पाटकर से पहले महुवा से भाजपा के पूर्व विधायक और सामाजिक कार्यकर्ता कनुभाई कलसारिया ने संक्षिप्त भाषण दिया. उन्होंने कहा कि “चुनीभाई ने भले ही हमें शारीरिक रूप से छोड़ दिया है, लेकिन उनकी विरासत हमारे साथ है, जो हमें ताकत प्रदान करती रहेगी.
गुजरात के भावनगर और अमरेली जिलों में निरमा और अल्ट्राटेक सीमेंट जैसे बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा हज़ारों एकड़ कृषि भूमि लेने के खिलाफ लंबे समय से चल रहे आंदोलन का नेतृत्व कर रहे कलसारिया ने सितंबर 2010 की एक बारिश वाली शाम को याद किया जब चुन्नी काका ने महुवा में ट्रैक्टर पर बनाये गए एक अस्थायी मंच से किसानों को संबोधित किया था.
कलसारिया जो कि स्वयं एक प्रशिक्षित सर्जन हैं, उनके अनुसार, “लोगों में जागरूकता लाना बहुत कठिन है. लेकिन मुश्किलें आने पर ही लोग जागरूक होते हैं.”
जाने-माने शिक्षाविद और कार्यकर्ता प्रो संजय एस भावे ने चुन्नी काका और मेधा पाटकर का परिचय दिया. चुन्नी काका की पोती मुदिता विद्रोही ने कार्यक्रम का संचालन किया, जबकि महादेवभाई विद्रोही ने धन्यवाद भाषण दिया.
प्रो विद्युत जोशी, प्रोफेसर हेमंत कुमार शाह, द्वारकानाथ रथ, एसपीआरएटी के एमएच जौहर, अशोक श्रीमाली, राजकोट के अशोकभाई पटेल, चुन्नी काका की बेटी निताबेन सहित कई प्रमुख शिक्षाविद और सामाजिक कार्यकर्ता कार्यक्रम में उपस्थित थे.
कार्यक्रम की शुरुआत नरेंद्र सिंह सोलंकी ने गीत प्रस्तुत करके की.
मेधा पाटकर मध्य प्रदेश के गरीब बुनकरों द्वारा बुनी गई खूबसूरत साड़ियों को अपने साथ लाई थीं. 950 रुपये प्रति साड़ी की कीमत पर, पाटकर ने इकट्ठे मेहमानों से कम से कम एक साड़ी खरीदने और 950 रुपये / साड़ी से अधिक का भुगतान करने की अपील की, ताकि इस छोटे से कदम से बुनकरों की कुछ मदद हो सके.