सैयद ख़लीक अहमद
नई दिल्ली | हैदराबाद में 12 नवंबर को सरदार वल्लभभाई पटेल राष्ट्रीय पुलिस अकादमी में आईपीएस प्रोबेशनर्स को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने कहा कि, युद्ध का नया मोर्चा अब नागरिक समाज है जिसे अंग्रेज़ी में ‘सिविल सोसाइटी’ कहते हैं.”
अपने इस बयान से डोभाल ने यह संकेत दिया कि भारत के लिए खतरा बाहर से नहीं बल्कि अंदर से है. नागरिक समाज को “युद्ध का नया मोर्चा” बताना राष्ट्र वाकई में बहुत खतरनाक बयान है!
प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बाद अजीत डोभाल को तीसरा सबसे शक्तिशाली व्यक्ति माना जाता है, अतः उनका बयान बहुत महत्वपूर्ण हैं.
अपनी बात को विस्तार से समझाते हुए डोभाल ने कहा कि, “राजनीतिक या सैन्य उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए अब युद्ध उतने प्रभावी साधन नहीं रहे हैं. वे बहुत महंगे और पहुंच से बाहर की चीज़ बन गए हैं, और इसके साथ ही, उनके परिणाम के बारे में अनिश्चितता भी बनी रहती है. लेकिन नागरिक समाज एक ऐसा वर्ग है जो किसी भी राष्ट्र के हितों को चोट पहुंचाने के लिए काफी है. और इस तथ्य के बाद भी उनकी सुरक्षा को सुनिश्चित करना आप (आईपीएस प्रोबेशनर्स जिन्हें डोभाल संबोधित कर रहे थे) की ज़िम्मेदारी होती है.”
“युद्ध का नया मोर्चा” एक प्रकार के संघर्ष के रूप में परिभाषित किया जाता है, जिसमें आतंकवाद, दुश्मन की संस्कृति पर हमला, नागरिकों का नरसंहार, आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सैन्य दबाव बनाया जाना शामिल है. यहां तक कि कई विशेषज्ञ तो महात्मा गांधी द्वारा अंग्रेजों के खिलाफ चलाये गए अहिंसा आंदोलन और अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग जूनियर द्वारा नस्लवाद के खिलाफ निकाले गए मार्च को भी चौथी पीढ़ी के युद्ध का हिस्से करार देते हैं. दोनों समकालीन शासकों और सरकार के खिलाफ बिना हिंसा किये नैतिक शक्ति का इस्तेमाल करके संघर्ष को कम करना चाहते थे.
डोभाल भारतीय नागरिक समाज को “युद्ध का नया मोर्चा” क्यों कह रहे हैं? डोभाल या फिर मोदी सरकार नागरिक समाज से क्यों डरती है? जबकि भारत में कभी भी नागरिक समाज को सरकार के खिलाफ हिंसक कार्रवाइयों का समर्थन करने के लिए नहीं जाना जाता है.
इसके विपरीत भारत में नागरिक समाज ने हमेशा लोगों के मानवाधिकारों की रक्षा के लिए काम किया है, चाहे उनकी जाति, पंथ, लिंग, समुदाय या आर्थिक स्थिति कुछ भी हो. नागरिक समाज हमेशा सरकार की उन नीतियों या सरकार के कार्यों का विरोध करता रहा है जिन्हें आम लोगों के हित के खिलाफ माना जाता है. भारतीय नागरिक समाज ने स्वतंत्रता के बाद सरकार के ख़िलाफ़ सबसे मज़बूत प्रतिरोध की मिसाल उस वक़्त पेश की, जब इंदिरा गांधी ने जून 1975 में आपातकाल की घोषणा की. लेकिन यह प्रतिरोध भी शांतिपूर्ण था, और इसमें कोई हिंसा या विद्रोह शामिल नहीं था.
राजनीतिक जानकारों की माने तो मोदी तानाशाह शासन की राह पर हैं. वह अपनी सत्ता और शासन के प्रति लोगों से पूर्ण वफ़ादारी चाहते हैं और दूसरों की राय या परेशानियों से उन्हें कोई मतलब नहीं है. भारत 1947 से एक जीवंत लोकतंत्र रहा है और लोगों ने हमेशा अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का इस्तेमाल सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध करने के लिए किया है.
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि अगर चीन की तरह भारत में भी लोकतंत्र को निरंकुश या एक दलीय शासन में बदलने के लिए कोई प्रयास किया गया तो इसका बड़े स्तर पर विरोध होगा. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि 2014 से लोकतांत्रिक संस्थाओं का कमज़ोर होना, खुफिया विभाग का बजट 700 करोड़ रुपये कर दिया जाना जो 2012 में 17 करोड़ रुपये ही था और विपक्षी नेताओं, पत्रकारों, मानवाधिकार कार्यकर्ताओं आदि की जासूसी करने के लिए पेगासस टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल किया जाना, यह सब घटनाएं भारत के लोकतंत्र के एक तानाशाही शासन की ओर अग्रसर होने का संकेत देती हैं.
विशेषज्ञ कहते हैं कि बीजेपी सरकार द्वारा चलाई जा रही वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था की एक महत्वाकांक्षी परियोजना है और सरकार इसे हर हाल में पूरा करेगी. विशेषज्ञों का तर्क है कि यही कारण है कि पुलिस प्रबंधन के शीर्ष आईपीएस अधिकारियों को नागरिक समाज के खिलाफ किया जा रहा है जिसके परिणाम खतरनाक हो सकते हैं.
जानकारों का कहना है कि यह भारतीय लोकतंत्र के ताबूत में आखिरी कील है. विशेषज्ञों के अनुसार, सरकार की नीतियों और कार्यों के विरुद्ध किसी भी सामूहिक विरोध को विभाजनकारी और गैरकानूनी माना जाएगा और पुलिस के पास इसे पूरी ताकत से दबाने का लाइसेंस होगा.
अगर पिछले सात वर्षों में देश में जो कुछ हुआ है, उस पर गौर किया जाए तो हम पाएंगे कि कैसे असहमति या विरोध को दबाने के लिए सभी कानूनों का खुलेआम उल्लंघन किया गया है. वर्तमान में दलितों, मुसलमानों और अन्य कमज़ोर समूहों के खिलाफ नफरत और हिंसा फैलाने वालों के खिलाफ सरकार द्वारा कोई कार्रवाई नहीं की जाती है.
मुस्लिम युवकों- विशेष रूप से विश्वविद्यालय के लड़कों और लड़कियों- पर दिल्ली दंगों के संबंध में देशद्रोह और आतंक के मामलों में केस दर्ज किये गए हैं ताकि मुसलमानों में भय और आतंक पैदा किया जा सके. मुस्लिम विद्यार्थियों का यही वर्ग राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा सरकार की नीतियों का विरोध करने वाला सबसे बड़ा समूह है.
आंगनबाडी से लेकर सरकारी डॉक्टरों, शिक्षकों और विश्वविद्यालय के प्राध्यापकों के आंदोलन पर भी सरकार ने कोई ध्यान नहीं दिया. सरकार ने नागरिकता (संशोधन) अधिनियम (सीएए) के विरोध पर ध्यान नहीं दिया. किसानों द्वारा की जा रही तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग पर एक वर्ष के लंबे अरसे तक कोई ध्यान नही दिया बल्कि उन्हें कुचला गया और जब आगामी यूपी चुनाव में नुकसान होता दिखाई दिया तो ये कानून वापस ले लिए. इसके अलावा सरकार ने भीमा-कोरेगांव मामले में विश्वविद्यालयों के वामपंथी झुकाव वाले कार्यकर्ताओं के खिलाफ भी मामला दर्ज किया था.
मुसलमानों और दलितों के बाद उच्च जाति के उन हिंदुओं को भी निशाना बनाया जा रहा है जो सरकार की योजना में बाधा बन रहे हैं. इस सब से पता चलता है कि देश किस ओर जा रहा है.
अप्रैल 2015 में, मोदी ने न्यायपालिका से “फाइव-स्टार एक्टिविस्ट्स” से सावधान रहने को कहा. उनके इस बयान ने सामाजिक कार्यकर्ताओं के प्रति उनकी मानसिकता को उजागर किया था. उनके इस भाषण के बाद एमनेस्टी इंटरनेशनल और ग्रीनपीस के खिलाफ कार्रवाई की गई थी. इसके बाद, वामपंथी नेताओं और कार्यकर्ताओं को अपमानित करने के लिए “अर्बन नक्सल” शब्द का भी आविष्कार किया गया था. सरकार ने गैर-सरकारी संगठनों की मानवाधिकार सम्बन्धी उनकी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के लिए उनके लिए फंड की कमी पैदा करने के लिए एफसीआरए नियमों में भी संशोधन किया.
मानवाधिकारों को लेकर पीएम मोदी की मानसिकता का अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस साल 12 अक्टूबर को राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) के 28वें स्थापना दिवस पर एक भाषण में पीएम मोदी ने आरोप लगाया कि कुछ लोग देश को बदनाम करने के लिए मानवाधिकारों का इस्तेमाल कर रहे हैं. उन्होंने ऐसे लोगों से सावधान रहने को कहा. श्रोताओं में एनएचआरसी के अध्यक्ष न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) अरुण मिश्रा और आयोग के सदस्य शामिल थे और इन सभी ने मोदी की टिप्पणी की सराहना की थी.