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Friday, March 29, 2024
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सिमी से जुड़े 20 साल पुराने मामले में 127 मुसलमान दोषमुक्त, 7 की हो चुकी है मौत

मसीहुज़्ज़मा अंसारी | इंडिया टुमारो

अहमदाबाद | सूरत की एक अदालत ने शनिवार को प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (SIMI) के सदस्य होने और उसके कार्यक्रम में शामिल होने का आरोप झेल रहे 127 लोगों को 20 साल बाद राहत दी है. अदालत ने सभी आरोपियों को दोषमुक्त क़रार दिया है.

अदालत ने सभी को बरी करते हुए अपने फैसले में कहा है कि सिमी से जुड़े होने का कोई प्रमाण अभियोजन पक्ष द्वारा पेश नहीं किया गया इसलिए आरोपियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता.

28 दिसंबर 2001 को सूरत में एक कार्यक्रम में शामिल होने गए सभी आरोपियों को गिरफ्तार कर लिया गया था और इनपर UAPA के तहत कार्रवाई की गई थी. इन आरोपियों में से 7 की मौत हो चुकी है.  

सभी आरोपी 11 -15 महीना जेल में रहने के बाद ज़मानत पर रिहा हुए थे और 20 साल से मुक़दमा झेल रहे थे. इस दौरान बहुत से आरोपियों की नौकरी चली गई, कई का कारोबार बिखर गया और कुछ सामाजिक तिरस्कार का सामना करते रहे.

गिरफ्तार लोगों में डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, शिक्षक और दूसरे अन्य पेशे से जुड़े हुए लोग थे जिन्हें इन आरोपों के कारण अपनी नौकरी गंवानी पड़ी और उनके परिवारों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए पीड़ित परिवारों ने बताया कि वह 20 साल तक मानसिक और सामाजिक यातना के साथ-साथ मुक़दमे की दुश्वारियां झेलते रहे जो बहुत ही तकलीफ देने वाला था.

सूरत के राजश्री हॉल में 28 दिसंबर 2001 को माइनॉरिटी एजुकेशन पर होने वाले एक कार्यक्रम में शामिल होने गए देशभर के 123 मुसलमानों को प्रतिबंधित संगठन SIMI का सदस्य होने और उसके कार्यक्रम में शामिल होने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था.

पुलिस ने आरोप लगाया था कि अल्पसंख्यकों के शैक्षिक अधिकारों के कार्यक्रम के बहाने सिमी कार्यकर्ताओं का सम्मेलन आयोजित किया जा रहा है.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए इस मामले को देख रहे वकीलों में शामिल एडवोकेट ख़ालिद शेख़ ने बताया कि, “हमें ख़ुशी है कि न्याय मिला और कोर्ट ने यह माना है कि कार्यक्रम में शामिल लोग सिमी के सदस्य नहीं थे. मगर 20 साल बाद न्याय मिला इस बात का दुख है क्योंकि इनमें बहुत से डॉक्टर थे, इंजीनियर थे और दूसरे पेशे के लोग थे जिनका इन आरोपों के कारण काफी नुकसान हुआ.”

अधिवक्ता ख़ालिद ने बताया कि, “इस मामले में सबसे हास्यास्पद और गंभीर बात यह है कि जिस पुलिस अधिकारी ने गिरफ्तार किया था उसी ने इस मामले की जांच भी की.”

उन्होंने यह भी बताया कि, “इस मामले में कई पुलिस अधिकारियों ने नियमों के विरुद्ध जाकर गैरकानूनी तरीके से आरोपियों से पूछताछ की थी जिसका ज़िक्र कोर्ट ने इस फैसले में भी किया है और इसे क़ानूनी रूप से गलत माना है.”

आरोपी गुजरात के विभिन्न इलाकों के साथ देशभर के अन्य राज्यों से इस कार्यक्रम में शामिल होने आये थे जिसमें तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश और बिहार आदि राज्यों के थे.

शनिवार को मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट ए. एन. दवे की अदालत ने आरोपियों को बरी करते हुए कहा है कि इसका कोई सबूत नहीं मिल सका कि आरोपी सिमी से जुड़े हुए थे और प्रतिबंधित संगठन के कार्यक्रम में शामिल हुए थे. कोर्ट ने कहा कि, ‘ठोस, विश्वसनीय और संतोषजनक’ साक्ष्य पुलिस पेश नहीं कर सकी.

इंडिया टुमारो से बात करते हुए, इस केस के वकील, अहमदाबाद के एडवोकेट सादिक़ शेख़ ने बताया कि, “हमें ख़ुशी है कि न्याय मिला मगर इसमें 20 साल लग गए. इस मामले में सभी आरोपी इतने वर्षों तक तमाम दिक्क़तों को झेलते हुए मुक़दमें का सामना किये. कई परिवार सामाजिक उत्पीड़न के शिकार हुए और बहुत से लोगों को नौकरी से निकाल दिया गया.”

उन्होंने बताया कि, “सूरत की अठवालाइंस पुलिस ने 28 दिसंबर 2001 को 124 लोगों को सिमी का सदस्य होने के आरोप में UAPA के तहत गिरफ्तार किया था. जेएम पंचोली पुलिस इंस्पेक्टर के द्वारा यह कार्रवाई की गई थी जो कि इस मामले में जांच अधिकारी भी था.”

इस मामले में आरोपियों में से एक बिलाल ने बताया कि, “हम शिक्षा पर आयोजित कार्यक्रम में शामिल होने गए थे मगर साल भर जेल में रहना पड़ा, 2001 में गिरफ्तार हुए थे और 2002 में ज़मानत पर रिहा हुए थे.”

बिलाल उत्तर प्रदेश के भदोही के रहने वाले हैं और कालीन बनाने के काम से जुड़े हैं.

बिलाल ने बताया कि, “इस दौरान काफी परेशानियों का सामना करना पड़ा. शुरू में मुक़दमें की तारीख जल्दी पड़ती थी और बार-बार अपना काम छोड़ कर हमें सूरत आना पड़ता था.”

गिरफ़्तारी के बाद बिलाल 9 महीने बड़ोदरा सेन्ट्रल जेल में रहे फिर 2 महीना सूरत जेल में बंद रहे.

फैसला 20 साल बाद आने पर बिलाल ने कहा कि, “एक ऐसे मामले में जिसमें किसी ने कोई जुर्म ही नहीं किया, फैसला आने में 20 साल लग गए. यह बहुत ही गंभीर और दुखद है.”

इस मामले में मुक़दमें का सामना करने वालों में शामिल इलाहबाद के अनवर आज़म कहते हैं कि, “हमें ख़ुशी है कि फैसला हमारे हक़ में आया है लेकिन हमें बहुत इंतज़ार करना पड़ा.”

उन्होंने बताया कि इस अर्से में क़ानूनी प्रक्रिया से जूझना पड़ा. बहुत सी दिक्कतें आईं. लोकल पुलिस स्टेशन और मुक़दमें की तारीख़ पर हाज़िर होना पड़ता था. कोई भी मामला होता तो पुलिस हमारे घर आती थी.”

अनवर ने बताया कि इस मामले में कई आरोपियों की नौकरी चली गई और बहुत से लोगों का कारोबार में नुकसान हुआ.

एक और पीड़ित अमजद रशीद ने बताया कि, पुलिस यह कह कर हमें थाने ले गई कि पूछ-ताछ के बाद आप को छोड़ दिया जाएगा लेकिन तीन दिन तक हमें छोड़ा नहीं गया. फिर यह पता चला कि पुलिस ने हमें 14 दिन की रिमांड पर बंद किया है.”

उन्होंने बताया कि पुलिस कस्टडी में काफी उत्पीड़न हुआ और धर्म विशेष को निशाना बनाते हुए सवाल पूछे गए.

अमजद को एक साल जेल में रहने के बाद 2002 में गुजरात हाईकोर्ट से इस शर्त पर ज़मानत मिली कि हर सप्ताह करीबी थाने पर जाकर हाजिरी देना है और मुक़दमें में हर तारीख पर उपस्थित होना है.

इस दौरन अमजद की कार्पेट कारखाने की नौकरी चली गई और दूसरी जगह काम तलाश करने में भी दिक्कत का सामना करना पड़ा.

अन्य पीड़ित परिवारों का कहना है कि उन्हें इस बात की ख़ुशी तो है कि कोर्ट से न्याय मिला मगर दुख यह है कि इस न्याय के इंतज़ार में 20 साल की सामाजिक यातना भी शामिल है जो न्याय की ख़ुशी को कम कर देती है.

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