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Thursday, April 25, 2024
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दिल्ली दंगों का एक साल: पीड़ितों को मुआवज़ा तो मिला मगर न्याय कब मिलेगा?

इंडिया टुमारो की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि एक साल बाद भी पुलिस ने कई मृतक के परिवारों को पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं सौंपी है. परिवार ने एफआईआर किया है. पुलिस द्वारा परिवार को मौखिक रूप से सूचना दी जाती है. थाने पर पुलिस यह कहती है कि कागज़ात क्राइम ब्रांच के पास हैं.

मसीहुज़्ज़मा अंसारी | इंडिया टुमारो

नई दिल्ली | नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में हुए दंगों के एक साल हो गए लेकिन पीड़ितों के ज़ख्म अब भी ताज़ा हैं. इन दंगों में आधिकारिक आंकड़ों के अनुसार 54 लोगों की मौत हुई थी. किसी ने अपने पिता को खोया, किसी ने भाई तो किसी ने बेटे को खोया. रिपोर्ट्स में इन दंगों को पूर्वनियोजित बताया गया था जिसमें दक्षिणपंथी संगठनों और इससे जुड़े कार्यकर्ताओं की भूमिका थी.

इस दंगे में मरने वाले अधिकतर मुसलमान थे. नॉर्थ ईस्ट दिल्ली के मुस्लिम बाहुल्य इलाकों को निशाना बनाया गया था और गरीब, मज़दूर आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवार इस दंगे से अधिक प्रभावित हुए थे. शिव विहार और मुस्तफाबाद आदि इलाकों में तीन दिनों तक लूट और आगज़नी जारी थी और जब दंगा शांत हुआ तो ये इलाके खण्डहर जैसे मालूम पड़ते थे.

दिल्ली दंगे की पृष्ठभूमि:

नागरिकता संशोधन क़ानून (CAA) के विरोध में दिल्ली और देशभर में धरना चल रहा था. CAA के ख़िलाफ़ प्रदर्शनों को रोकने के लिए दक्षिणपंथी संगठनों द्वारा लगातार CAA प्रदर्शनकारियों को धमकी दी जा रही थी. देशभर में महिलाओं द्वारा हो रहे धरनों का सरकार पर भारी दबाव था. अचानक कुछ भाजपा समर्थित नेता प्रदर्शनकारियों को हटाने के लिए उग्र बयान देने लगे. नार्थ ईस्ट दिल्ली में हिंसा शुरू हो गई जिसमें दोनों पक्षों के 54 लोगों की जानें गईं.

इस दंगे में जिन नेताओं की कथित भूमिका थी या जिनके भाषणों और धमकियों ने इस दंगे को भड़काने का ज़िम्मेदार बताया जा रहा था उनपर अब तक कोई एफआईआर नहीं हुई और किसी भी जांच के दायरे में नहीं आए जबकि दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने अपनी रिपोर्ट में उन नेताओं को चिह्नित करते हुए यह दावा किया था कि कौन से नेता भड़काऊ बयान दिए थे. यह रिपोर्ट दिल्ली के मुख्यमंत्री और उपराज्यपाल को भी सौंपी गई थी.

कई पीड़ित परिवारों का कहना है कि दंगों में जब उनके घरों को लूटा जाने लगा और दंगाई उत्पात मचाना शुरू किये तो पुलिस को कॉल की गई लेकिन पुलिस ने कोई सक्रीयता नहीं दिखाई.

इस दंगे में घरों को जलाने, लूटने और आगज़नी का एक ही पैटर्न था. दंगाई घरों में घुसते और लूट-पाट के बाद गैस सिलेंडर से धमाका कर देते थे. लुटे और जलाए गए अधिकांश घरों के छत ध्वस्त हो गए थे. घरों को देखने से यह साफ़ ज़ाहिर होता था कि सभी जगह एक ही पैटर्न आपनाया गया है और दंगाइयों को एक ही प्रकार से ट्रेनिंग दी गई है.

एक साल बाद दंगा प्रभावित परिवारों का क्या हाल है:

दिल्ली दंगों में प्रभावित परिवार अपनी गृहस्थी को फिर से चलाने की फ़िराक में हैं. कुछ ने मुआवज़े की रक़म से अपना घर मरम्मत करा लिया है, कुछ अभी भी किराए के मकान में रह रहे हैं और कुछ अब भी मुआवज़े के इंतज़ार में हैं.

प्रभावित परिवारों में अधिकतर के घर दोबारा बन गए, घरों की मरम्मत हो गई, रंग रोगन हो गया मगर दंगों ने उनके दिलों पर जो ज़ख्म दिया है वो अब भी ताज़ा हैं और उसे याद करते हुए वह भावुक होने लगते हैं.

बहुत से दंगा पीड़ित जो बुरी तरह घायल थे अब भी इस स्थिति में नहीं हैं कि वह कोई काम कर सकें. कई घायलों का कहना है कि मुआवज़े की रक़म दवा और इलाज में ख़त्म हो गई, मगर अब तक पूरी तरह ठीक नहीं हो सके. जिस घर के कमाने वाले घायल हुए थे उनका गुज़ारा अब भी मुश्किल है.

दंगा प्रभावित इलाकों में घायल परिवारों से मिलकर यह बात सामने आई कि अब भी कई पीड़ित ऐसे हैं जिनको ठीक होने में लगभग एक साल लग जाएगा. यह ऐसे पीड़ित हैं जिनका हाथ या पैर तोड़ दिया गया. कई घायलों के हाथ या पैर में हड्डी टूट जाने के कारण रॉड डाला गया है जो अब भी सामान्य स्थिति में नहीं हैं.

कई परिवार ऐसे हैं जिनके घर में लोग मारे गए, घायल हुए और घर जला दिए गए, ऐसे घर के सदस्य घायलों के इलाज, घर की मरम्मत में परेशान हैं इसलिए कोई मुक़दमा, कोर्ट और कचहरी का चक्कर लगाना नहीं चाहता.

पीड़ित परिवार इतने डरे और हालात से तंग हो गए हैं कि मारे गए या घायल हुए अपने परिवार के सदस्यों के न्याय की लड़ाई में अब उनकी दिलचस्पी नहीं रही.

क्या कहते हैं पीड़ित परिवार:

कई पीड़ित परिवार ऐसे भी हैं जिनको अपनों के खोने के दर्द के साथ-साथ प्रशासन के रवैये के कारण भी दुख झेलना पड़ा.

दिल्ली दंगे में मारे गए फ़िरोज़ की विधवा रुखसाना ने बताया कि 14 दिन बाद नाले से मेरे शौहर की लाश मिली तो रिपोर्ट दर्ज कराने के लिए एक हफ्ते तक परेशान होना पड़ा.

मृतक फ़िरोज़ 24 फरवरी को अपने घर से निकले थे और 8 मार्च को करावलनगर नाले से उनकी लाश बरामद हुई.

रुखसाना ने बताया, “फ़िरोज़ की एफआईआर दर्ज कराने में उत्तर प्रदेश पुलिस और दिल्ली पुलिस के बीच चक्कर काटना पड़ा. दिल्ली पुलिस कहती रही कि तुम लोनी, उत्तर प्रदेश में रहती हो इसलिए वहां एफआईआर दर्ज होगी और उत्तर प्रदेश पुलिस कहती रही कि मामला दिल्ली का है इसलिए वहां एफआईआर दर्ज कराइए.”

रुखसाना आरोप लगाते हुए कहती हैं कि, “अगर पुलिस मौके पर पहुँचती तो मेरे पति की जान बच सकती थी मगर पुलिस ने किसी कॉल को गंभीरता से नहीं लिया.”

रुखसाना और कई अन्य परिवारों का कहना है कि उन्हें सरकार से मुआवज़ा मिला है मगर उनके बच्चों की पढाई और उनके देखभाल के लिए काफी नहीं है. आमदनी का कोई ज़रिया नहीं है. बच्चे छोटे हैं इसलिए ज़िम्मेदारी भी ज़्यादा है. सरकार को पढ़ाई की ज़िम्मेदारी भी लेनी चाहिए.

दंगे में मारे गए शिव विहार के जमालुद्दीन की विधवा नाज़िश कहती हैं, “सरकार से हम क्या मांग करेंगे? दोषी तो सरकार ख़ुद है, यहाँ तीन दिन तक दंगा होता रहा अगर सरकार चाहती तो दंगे रोक सकती थी. मेरे शौहर तो पांचवे दिन मारे गए, अगर सरकार दंगे रोकना चाहती तो पहले दिन ही पुलिस भेज कर मामला शांत करा देती.”

शिव विहार के एक व्यक्ति ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि, “बहुत से लोगों को हम जानते हैं जो यहीं रहते हैं और जिन्होंने दंगाइयों का साथ दिया मगर हमें रहना यहीं है इसलिए उनका नाम लेने से हम डरते हैं.”

दंगों के दौरान शिव विहार में हुई दो मौतों में एक 92 वर्षीय शरीफ़ ख़ान भी शामिल हैं. शरीफ ख़ान का परिवार शिव विहार के गली नंबर एक में रहता है.

उनके परिवार ने बताया कि पुलिस का रवैया ठीक नहीं था, सैकड़ों कॉल करने के बाद भी पुलिस मौके पर नहीं पहुंची.

दिल्ली पुलिस की भूमिका:

दंगे के दौरान और उसके बाद भी दिल्ली पुलिस की भूमिका पर सवाल उठते रहे हैं. दिल्ली दंगों के सम्बन्ध में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि, “कुछ जगहों पर पुलिस बिल्कुल मूकदर्शक बनी रही, जबकि भीड़ लूटपाट, घर जलाना और हिंसा का कार्य कर रही थी.”

दिल्ली दंगे में जो मारे गए उनमें से अधिकतर की एफआईआर पुलिस ने की है और मामले चल्र रहे हैं. कुछ आरोपियों की गिरफ्तारियां भी हुई हैं मगर कुछ पीड़ित परिवार ऐसे भी हैं जिनका यह दावा है कि पुलिस ने उन्हें पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं सौंपी. किसी परिवार का कहना है कि मुक़दमें की क्या स्थिति है उन्हें इसकी सूचना नहीं है.

इंडिया टुमारो की रिपोर्ट में यह बात सामने आई है कि एक साल बाद भी पुलिस ने कई मृतक के परिवारों को पोस्टमार्टम रिपोर्ट नहीं सौंपी है. परिवार ने एफआईआर किया है. पुलिस द्वारा परिवार को मौखिक रूप से सूचना दी जाती है. थाने पर पुलिस यह कहती है कि कागज़ात क्राइम ब्रांच के पास हैं.

महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक प्रभावित हुए:

दिल्ली दंगों में गई जान की भरपाई तो नहीं हो सकती लेकिन इसके अलावा दिल्ली दंगो में महिलाएं और बच्चे सबसे अधिक प्रभावित हुए हैं. मुआवज़े की रक़म से दोबारा घरों और दुकानों की मरम्मत तो हो गई या हो रही है मगर गृहस्थी को सम्भालने वाली महिला और घरों में रहने या स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे सबसे अधिक प्रभावित हैं. महिलाएं अपने जले और लुटे घर के अवशेष को संजोए नए घर में शिफ्ट होने का इंतज़ार कर रही हैं वहीं बच्चे स्कूल नहीं खुलने से परेशान हैं.

महिलाओं पर दोहरी ज़िम्मेदारी है. अपने घर में घायलों की देखभाल करना, घरों की मरम्मत कराकर नए घर में शिफ्ट होना और साथ अपने बच्चों की पढाई की व घर चलाने का इंतजाम करना.

दंगों का सामाजिक-सांप्रदायिक चरित्र

नॉर्थ ईस्ट दिल्ली में हुए दंगों का सांप्रदायिक चरित्र उजागर है. यहां जाने पर और प्रभावित इलाकों में घूमने पर सब कुछ स्पष्ट हो जाता है कि दंगे पूर्वनियोजित थे. मस्जिदों को निशाना बनाया गया वहीं मुस्लिम इलाकों में मंदिरों को कोई नुकसान नहीं पहुंचा है.

दिल्ली दंगों में 11 मस्जिद, पाँच मदरसे, एक दरगाह और एक क़ब्रिस्तान को नुक़सान पहुँचाया गया. हालांकि, मुस्लिम बहुल इलाक़ों में किसी भी ग़ैर-मुस्लिम धर्म-स्थल को नुक़सान नहीं पहुँचाया गया था.

इन दंगों में मरने वालों में अधिकतर मुसलमान हैं. उनके ही घर जले और उनकी ही दुकानों को लूटा गया और मस्जिदों को निशाना बनाया गया.

यह बातें दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग ने भी अपनी फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में दर्ज की हैं.

दिल्ली दंगों के सम्बन्ध में दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग की फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में कहा गया है कि, “कुछ जगहों पर पुलिस बिल्कुल मूकदर्शक बनी रही, जबकि भीड़ लूटपाट, घर जलाना और हिंसा का कार्य कर रही थी.”

दिल्ली पुलिस द्वारा दाखिल चार्जशीट के अनुसार दंगों में व्हाट्सएप्प ग्रुप बनाकर मुसमानों को मारने की रणनीति तैयार की गई थी जिसमें ‘कट्टर हिन्दू एकता’ ग्रुप का नाम सामने आया था. इस ग्रुप में दंगाइयों ने मुसलमानों को मारने की सूचना साझा की थी और अन्य स्थानों पर उन्हें निशाना बनाने की बात की थी.

फरवरी 2020 में हुए दंगों को लेकर दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग (डीएमसी) द्वारा जारी फैक्ट फाइंडिंग रिपोर्ट में भाजपा नेताओं की भूमिका पर सवाल उठाते हुए उनके भाषण के जरिए कथित तौर पर लोगों को ‘उकसाने’ का आरोप भी लगाया गया था.

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार मुसलमानों की दुकानों को चुन-चुन कर निशाना बनाया गया और यह दंगे पूरी तरह सुनियोजित और संगठित थे.

इन दंगों में 54 लोगों की जानें गईं. दंगों को लेकर जारी कई रिपोर्ट ने ये दावा किया था कि दिल्ली पुलिस ने उन लोगों से पूछ-ताछ नहीं की जिनपर दंगे भड़काने का आरोप था.

सरकार के राहत एवं पुनर्वास कार्यों की समीक्षा

सरकार ने पीड़ितों को जो मुआवज़ा दिया है वह पीड़ित परिवारों के लिए काफी नहीं हैं. दंगों के एक साल बाद पीड़ित परिवारों से मिलकर यह स्थिति स्पष्ट होती है कि घायलों के इलाज और घरों की मरम्मत में मुआवज़े से अधिक रक़म ख़र्च हो चुकी है.

कई परिवार मुआवज़े की रक़म मिलने के बाद भी घर की मरम्मत, शिफ्टिंग, इलाज और बच्चों की पढ़ाई के लिए उधार लेने को विवश है.

कई परिवारों का यह भी आरोप है कि मुआवज़े की पूरी रक़म उनको अब तक नहीं मिली है और इसके लिए वह सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा रहे हैं.

दोषियों पर प्रशासन एवं न्यायतंत्र की अब तक चुप्पी क्यों?

एक लोकतांत्रिक प्रदर्शन को निशाना बनाया गया, एक वर्ग विशेष पर हमला किया गया, दंगे करवाए गए, उनकी दुकानों, घरों और इबादतगाहों पर हमले हुए लेकिन प्रशासन का रवैया पक्षपातपूर्ण दिखाई दिया.

हैरत की बात यह है कि दिल्ली दंगों के एक साल बाद भी असल मुजरिमों को गिरफ्तार करने में सरकार और दिल्ली पुलिस पूरी तरह विफल साबित हुई है. सामाजिक कार्यकर्ताओं और छात्रों को दिल्ली दंगों की साज़िश के आरोप में गिरफ्तार किया गया है और उनपर UAPA जैसे घंभीर मामले दर्ज किए गए हैं.

वहीं दूसरी तरफ कथित रूप से दंगे भड़काने के आरोपी और सत्ताधारी पार्टियों के समर्थकों पर एफ़आईआर तक नहीं हुई है. सरकार और पुलिस का यह रवैया हैरत में डालने वाला है.

मुसलमानों पर पूर्वनियोजित हमले और फिर उनकी ही गिरफ़्तारी के बावजूद कोई राजनीतिक पार्टी इस अन्यायपूर्ण रवैये के खिलाफ एक प्रदर्शन करना तो दूर एक प्रेस स्टेटमेंट देने में भी आगे नहीं दिखाई दी.

स्वयंसेवी सहायता समूहों के प्रयासों से दोबारा बहाल होती ज़िंदगी

दिल्ली दंगों में मारे गए और घायल परिवारों को सरकार ने मुआवज़ा दिया है हालांकि पीड़ितों के लिए यह काफी नहीं है. इसके अलावा बहुत से एनजीओ और स्वयंसेवी संस्थाओं ने आगे आकर दंगा पीड़ित परिवारों की मदद की है.

बहुत सी संस्थाएं इन इलाकों में प्रभावितों के बच्चों के लिए स्कूल खोल रही हैं, कुछ घायलों का इलाज करा रही हैं, कुछ लीगल हेल्प कर रही हैं तो कुछ उनके रोज़गार का प्रबंध कर रही हैं. इन कार्यों से दंगा पीड़ित परिवारों को कुछ राहत तो ज़रूर मिली होगी मगर सरकार को आगे बढ़ कर इनकी मदद करने की सबसे अधिक आवश्यकता है.

लोकतंत्र को बचाने की अपील करने वाले कहां हैं?

शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर हमला किया गया. निर्दोषों को मारा गया. महिलाओं के साथ अभद्रता की गई. संविधान की रक्षा करने की क़समें खाने वालों पर सत्ताधारी समर्थकों ने हमला किया. पुलिस ने कथित रूप से दंगाइयों का साथ दिया. मगर सत्ता समर्थकों और प्रशसन के इस अन्यायपूर्ण बर्ताव पर किसी राजनीतिक पार्टी के द्वारा कोई आंदोलन, प्रदर्शन नहीं हुए.

लोकतंत्र को बचाने की अपील करने वाले समूह, लोकतांत्रिक प्रदर्शन पर हमला करने वालों की मुजरिमाना हरकत पर मौन धारण किए हुए हैं. राजनीतिक पार्टियों के अवसरवादी मसीहा दंगे के आरोप में गिरफ्तार छात्रों के समर्थन में सड़कों पर अब तक नहीं दिखाई दिए.

राजनीतिक पार्टियों, संविधान प्रेमियों और बुद्धजीवियों को यह सोचना होगा कि अगर लोकतंत्र को बचाने वाले और संविधान की रक्षा का नारा देने वाले छात्रों और युवाओं को तिहाड़ में रखा जाएगा तो लोकतंत्र कैसे बचेगा और इस विषय पर विमर्श कौन करेगा?

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