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Friday, April 19, 2024
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राजस्थान में उर्दू भाषा को ख़त्म करने पर आमादा सरकार

ख़ान इक़बाल | इंडिया टुमारो  

जयपुर | राजस्थान में इन दिनों उर्दू भाषा उपेक्षा की शिकार है. प्राथमिक शिक्षा में मातृ भाषा के तौर पर पढ़ाई जाने वाली उर्दू भाषा अब प्राथमिक स्तर पर पूरी तरह ख़त्म कर दी गई है.

उच्च प्राथमिक यानी कक्षा 6 से 8 तक उर्दू भाषा अतिरिक्त या तृतीय भाषा के तौर पर पढ़ाई जाती रही है. मगर 2 सितम्बर को राजस्थान के शिक्षा निदेशक द्वारा ज़िला शिक्षा अधिकारियों को जारी एक आदेश ने उर्दू समेत अन्य अल्पसंख्यक भाषाओं जिसमें सिंधी पंजाबी और गुजराती शामिल हैं, के अस्तित्व पर नया संकट खड़ा कर दिया है.

क्या कहता है 2 सितंबर को शिक्षा निदेशक द्वारा जारी आदेश?

राजस्थान के प्राथमिक शिक्षा निदेशक सौरभ स्वामी ने 2 सितंबर को सभी जिला शिक्षा अधिकारियों को आदेशित करते हुए लिखा कि “ध्यान में लाया गया है कि जिला शिक्षा अधिकारी अपने स्तर पर ही विद्यालय विशेष में एक तृतीय भाषा का संचालन होते हुए भी अन्य तृतीय भाषा के संचालन करने की स्वीकृति दे रहे हैं, जो नियमानुसार सही नहीं है. यदि किसी विद्यालय में एक से अधिक तृतीय भाषाओं के संचालन की स्वीकृति बिना सक्षम स्तर पर दी गई है तो उस आदेश को तुरंत प्रभाव से प्रत्याहरित करें.” यानी उसे वापस लें.

इंडिया टुमॉरो से बात करते हुए राजस्थान के प्रारंभिक शिक्षा निदेशक सौरभ स्वामी ने कहा कि, “सितंबर 2 को जारी किए गए आदेश शिक्षा अधिकारियों के लिए हैं जिसमें कहा गया है किसी विद्यालय में अन्य तृतीय भाषा पढ़ाई जाए इसका अधिकार ज़िला शिक्षा अधिकारी को नहीं हैं बल्कि उन्हें उसका प्रस्ताव शिक्षा निदेशक को भेजना होगा.”

इंडिया टुमारो ने इस आदेश के बारे में राजस्थान उर्दू शिक्षक संघ के प्रदेश अध्यक्ष अमीन कायमखानी से पूछा कि यह आदेश किस तरह उर्दू भाषा को ख़त्म कर देगा तो उनका कहना था, “जब भी कोई नया विद्यालय खुलता है या क्रमोन्नत होता है तब वहाँ संस्कृत स्वतः ही तृतीय भाषा के रूप में शुरू कर दी जाती है. वहीं उर्दू समेत अन्य अल्पसंख्यक भाषाओं को शुरू करने का अधिकार जिला शिक्षा अधिकारियों को दिया गया है. ऐसा सिर्फ़ प्राथमिक शिक्षा यानी कक्षा 6 से 8 तक होता है.”

वह कहते हैं, “इस आदेश के बाद दो चीज़ें साफ़ हो गईं, पहली यह कि प्रारंभिक शिक्षा में तृतीय भाषा शुरू करने के जो अधिकार जिला शिक्षा अधिकारियों को दिए गए थे वो उनसे वापस ले लिए गए हैं. दूसरी यह कि जिन विद्यालयों में छात्र अल्पसंख्यक भाषा की शिक्षा ग्रहण कर रहे थे अब वहाँ सिर्फ़ संस्कृत ही रह जाएगी.”

2 सितंबर को जारी आदेश के बाद शिक्षा निदेशक ने 5 सितंबर को एक और आदेश जारी किया. ये आदेश 2 सितम्बर को जारी किए गए आदेश को जायज़ ठहराते हुए उसकी व्याख्या करता है.

यह आदेश बताता है कि 2019 के स्टॉफिंग पैटर्न (शैक्षणिक पदों के आवंटन व पदस्थापन का नियम) के अनुसार है. जो यह कहता है कि तृतीय भाषा का केवल एक ही शिक्षक विद्यालय में हो सकता है.

इस पर एतराज़ करते हुए क़ायमखानी कहते हैं, “यह सरासर तुगलकी फ़रमान है, स्टाफिंग पैटर्न शिक्षा विभाग द्वारा बनायी गई एक प्रक्रिया है. आप ऐसे कैसे कोई पैटर्न बना सकते हैं जो संवैधानिक प्रावधानों और पहले से बनाए गए नियमों का उल्लंघन करता हो.”

शिक्षा राज्यमंत्री गोविन्द सिंह डोटासरा ने स्टाफिंग पैटर्न का ज़िम्मेदार पूर्ववर्ती भाजपा सरकार को ठहराया. हालाँकि ख़ुद उनकी सरकार इसी स्टॉफिंग को अपना रही है.

पिछले साल राजस्थान विधानसभा में विद्यालयों में उर्दू विषय न होने के सवाल पर जवाब देते हुए डोटासारा ने कहा था, “उर्दू के साथ यह समस्या 2016 के स्टॉफिंग पैटर्न के बाद शुरू हुई. हम इस स्टॉफिंग पैटर्न की समीक्षा करवाएंगे और अगर तीन साल से किसी विद्यालय की एक कक्षा में तृतीय भाषा के 10 विद्यार्थी हों तो वहाँ हम स्टॉफिंग पैटर्न में संशोधन करके वह विषय शुरू करवाएंगे.”

क्या सरकार उर्दू विषय को लेकर कन्फ्यूज़ है? इस सवाल का जवाब देते हुए कायमखानी कहते हैं, “जी नहीं, सरकार चाहती ही नहीं कि किसी विद्यालय में बच्चे अपनी मादरी ज़बान उर्दू में शिक्षा ग्रहण कर सकें. उर्दू को ख़त्म करने में भाजपा और कांग्रेस दोनों का मज़बूत गठबंधन है.”

इंडिया टुमॉरो से बात करते हुए राजस्थान के प्रारंभिक शिक्षा निदेशक सौरभ स्वामी ने कहा कि, “सितंबर 2 को जारी किए गए आदेश शिक्षा अधिकारियों के लिए हैं. हमने उनसे कहा है कि अगर ऐसा कोई विद्यालय में अन्य तृतीय भाषा पढ़ाई जाती है तो उसका अधिकार ज़िला शिक्षा अधिकारी को नहीं हैं बल्कि उन्हें उसका प्रस्ताव शिक्षा निदेशक को भेजना होगा.”

शिक्षा निदेशक सौरभ स्वामी कहते हैं “ एडिशनल टीचर लगाने का अधिकार वित्त विभाग का है शिक्षा अधिकारी का नहीं.”

इस सवाल पर कि क्या किसी विद्यालय में एक से ज़्यादा तृतीय भाषाएँ पढ़ाई जा सकती हैं? जवाब देते हुए स्वामी कहते हैं, “हमने यह प्रस्ताव दिया है कि किसी विद्यालय में अगर 15 विद्यार्थी अन्य अल्पसंख्यक भाषा के हैं तो वहाँ अन्य तृतीय भाषा का शिक्षक भी नियुक्त किया जाएगा.”

कायमखानी का कहना है, “जिला शिक्षा अधिकारियों को नए प्रस्तावों के लिए आदेश नहीं दिया गया  है बल्कि उन पदों को प्रत्याहारित करने के लिए कहा गया है जो उन्होंने स्वीकृत कर दिए.”

प्रारंभिक शिक्षा राजस्थान के निदेशक ने 2004 में एक आदेश जारी किया था जिसमें बताया गया था कि अगर प्रारंभिक शिक्षा के विद्यालयों यानी कक्षा 6 से 8 तक एक कक्षा में 10 उर्दू पढ़ने वाले विद्यार्थी या पूरे विद्यालय में 40 विद्यार्थी हों वहाँ उस तृतीय भाषा के शिक्षक की नियुक्ति होगी.

यह आदेश माध्यमिक शिक्षा में अल्पसंख्यक भाषा शुरू करने के मापदंड को बताते हुए कहता है कि, “अगर एक कक्षा में या पुरे विद्यालय में 60 विद्यार्थी अल्प संख्यक भाषा के हों तो वहाँ अल्पसंख्यक भाषा पढ़ाई जाएगी.”

अमीन कायमखानी कहते हैं “प्रदेश के लगभग 10 हज़ार स्कूल ऐसे हैं जहाँ इन मापदंडों के हिसाब से अल्पसंख्यक भाषी छात्र छात्राएँ विद्यालय में हैं लेकिन वहाँ उन्हें संस्कृत भाषा पढ़ने के लिए मजबूर किया जा रहा है.”

मापदंडों को पूरा करने वाले स्कूलों में भी नहीं पढ़ाई जा रही उर्दू

इंडिया टुमॉरो ने जयपुर के उन स्कूलों में जाकर इस दावे की पड़ताल की जहाँ अल्पसंख्यक भाषाई विद्यार्थियों की संख्या 90 से 100 प्रतिशत है.

इंडिया टुमॉरो की टीम जयपुर के मुस्लिम बहुल इलाक़े भट्टा बस्ती के राजकीय माध्यमिक विद्यालय भट्टा बस्ती पहुँची. वहाँ की प्रधानाध्यापिका ने हमें बताया कि, “हमारे स्कूल में कुल 504 बालक बालिकाएं हैं और वे सभी अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं लेकिन हमारे यहाँ उर्दू विषय में पढ़ाई नहीं होती.”

इस सवाल पर कि क्या आपने कभी इस बारे में उच्च अधिकारियों से बात की है, जवाब देते हुए प्रधानाध्यापिका कहती हैं, “हम कई बार उच्चाधिकारियों को सूचना दे चुके हैं, स्थानीय विधायक को भी इस बारे में पत्र भेजा है लेकिन कोई सुनवाई नहीं होती.”       

दूसरा मामला राजकीय उच्च प्राथमिक विद्यालय जोशी मार्ग झोटवाड़ा जयपुर का है जहाँ सन् 2002 से 2016 तक छात्र छात्राएँ उर्दू पढ़ सकते थे लेकिन 2016 के बाद से उसे बंद कर दिया गया. नईमा बेग़म यहाँ उर्दू की शिक्षिका हैं.

नईमा बेग़म की नियुक्ति 2002 में उर्दू शिक्षिका के रूप में हुई थी. लेकिन सन् 2016 के स्टाफिंग पैटर्न के बाद उनके पद को सामान्य कर दिया गया और अब वहाँ के विद्यार्थी संस्कृत पढ़ रहे हैं.

ऐसी ही कुछ दशा शिक्षा राज्य मंत्री के विधानसभा क्षेत्र के लक्ष्मणगढ़ ज़िला सीकर की है. यहाँ की ग्राम पंचायत खेड़ी राड़ान के उच्च माध्यमिक विद्यालय में 116 विद्यार्थी अल्पसंख्यक भाषी हैं लेकिन यहाँ न तो उर्दू विषय है और न ही उर्दू के शिक्षक.

पंचायत के निवासी रिटायर्ड सूबेदार ज़फ़र अली ख़ान कहते हैं, “मैंने हर विभाग तक यह बात पहुँचाई, शिक्षा राज्यमंत्री से बात की लेकिन आज तक हमारे यहाँ विद्यालय में उर्दू भाषा की शिक्षा शुरू नहीं की गई.”

जयपुर में 38 ऐसे स्कूल हैं जहाँ छात्रों की निर्धारित संख्या होने के बाद भी उर्दू नहीं पढ़ाया जाता

बहुत से स्कूल ऐसे हैं जहाँ छात्रों की निर्धारित संख्या होने के बाद भी उर्दू विषय नहीं पढ़ाया जाता. सिर्फ़ जयपुर में 38 ऐसे स्कूल है जहाँ अल्पसंख्यक भाषाई छात्रों की संख्या 60-100 प्रतिशत तक है लेकिन वहाँ उर्दू विषय की पढ़ाई नहीं होती. 

शिक्षा मंत्री और शिक्षा निदेशक की बातों में विरोधाभास  

उर्दू भाषा को पढ़ाये जाने को लेकर शिक्षा मंत्री और शिक्षा निदेशक की बातों में काफी विरोधाभास है. शिक्षा मंत्री कुछ और बयान देते हैं और 2004 के आदेश के बारे में शिक्षा निदेशक सौरभ स्वामी कुछ और ही कहते हैं.

इस सवाल पर कि क्या 2004 के तृतीय भाषा शुरू करने के मापदंड अब समाप्त कर दिए गए हैं, इस पर स्वामी कहते हैं, “जी हाँ 2004 का आदेश बहुत पहले ही प्रत्याहारित कर लिया गया.”

हालाँकि शिक्षा मंत्री गोविन्द सिंह डोटासरा ने 2019 में विधानसभा के बजट सत्र में देवली -उनियारा के विधायक हरीश मीणा के सवाल के जवाब में कहा था कि 2004 के आदेश अभी भी लागू हैं.

इस पर अमीन कायमखानी कहते हैं, “शिक्षा निदेशक और शिक्षा मंत्री की बातों में विरोधाभास कैसे हो सकता है? अब या तो शिक्षा निदेशक झूठ बोल रहे हैं या शिक्षा मंत्री”

मातृ भाषा उत्थान के लिए संविधान में दिया गया है विषेश महत्व

शिक्षा का अधिकार क़ानून (RTE) की धारा 29 के अनुसार, “बालक को यथा संभव प्रारंभिक शिक्षा उसकी मात्र भाषा में ही दी जानी चाहिए.”

संविधान के भाग 29 की धारा 350 (A) भाषाई अल्पसंख्यकों को उनकी संस्कृति और भाषा बचाए रखने का अधिकार देती है.

इसके अनुसार राज्य अल्पसंख्यक वर्ग के लिए मात्र भाषा की शिक्षा व्यवस्था का प्रयास करेगा.

संविधान की धारा 350 ए के क्रियान्वयन के लिए 1972 में इन्द्र कुमार गुजराल की अध्यक्षता में एक समिति बनायी गई थी जिसे गुजराल समिति कहा जाता है.

गुजराल समिति ने तीन भाषा फ़ॉर्मूला दिया था. इस समिति का मुख्य उद्देश्य उर्दू भाषा को शिक्षित सांस्कृतिक और प्रशासनिक मामलों में बढ़ावा देने के लिए सरकार को एक रूप रेखा और सिफ़ारिशें देनी थी.

उर्दू को ख़त्म करने का प्रयास

शाला दर्पण पोर्टल की एक तस्वीर दिखाते हुए कायमखानी कहते हैं “पहली से पांचवीं क्लास तक अब उर्दू शिक्षा सिर्फ़ मदरसों तक सीमित कर दी गई है. शाला दर्पण में पहली कक्षा से 5वीं कक्षा तक की उर्दू की किताबों की माँग करने का विकल्प ही मौजूद नहीं है. अब जब उर्दू की किताबें ही नहीं हैं तो विद्यार्थी कहाँ से पढ़ेंगे?”

शाला दर्पण पोर्टल राजस्थान के तमाम विद्यालयों को जोड़ता है जहाँ विद्यालयों, छात्रों, अध्यापकों की जानकारियां होती है और सभी आवेदन प्रतिवेदन ऑनलाइन शाला दर्पण पर किए जाते हैं.

जहाँ उर्दू है, वहाँ उर्दू की किताबें नहीं हैं

जिन स्कूलों में उर्दू भाषा विषय के रूप में पढ़ाई जाती है वहाँ उर्दू की किताबें नहीं हैं. अमीन कायमखानी कहते हैं, “राजस्थान के किसी भी स्कूल में उर्दू की किताबें नहीं पहुँची.”

एक स्वतंत्र गूगल सर्वे में यह सवाल पूछा गया कि, “क्या राजस्थान में स्कूलों में उर्दू की किताबें आगई हैं?” इस सर्वे में 526 लोगों ने भाग लिया इसमें से लगभग 90 प्रतिशत लोगों का कहना था कि विद्यालयों में उर्दू की किताबें नहीं पहुँची हैं.”

उर्दू किताबें पहुंची या नहीं, यह जानने हम जयपुर के राजकीय उच्च माध्यमिक विद्यालय द्वारकापुरी पहुँचे. यहाँ 1800 से अधिक छात्र छात्राएँ हैं. हमने विद्यालय इंचार्ज पंकज सिंह से उर्दू किताबों के बारे में पूछा. उनका कहना है, “उर्दू के अलावा हमारे पास सभी किताबें आ गई हैं. हमने जुलाई में ही किताबों की डिमांड भेजी थी लेकिन उर्दू की किताबें सत्र शुरू होने के 4 महीने के बाद भी नहीं आई है और इससे बच्चों का नुक़सान हो रहा है”

उर्दू माध्यम के स्कूलों का ख़त्म हो जाना

पूर्व में राजस्थान में उर्दू माध्यम से चलने वाले स्कूलों की संख्या 32 हुआ करती थी जो अब सिमटकर 6 रह गई है. स्कूल के बाहर लगे साईन बोर्ड पर हिंदी में  “उर्दू माध्यम” लिखा होने तक ही इन्हें उर्दू माध्यम के स्कूल कहा जा सकता है. यहाँ सारी पढ़ाई अब हिन्दी माध्यम से ही होती है. हमने राजकीय प्राथमिक विद्यालय जालूपूरा जयपुर में इस तथ्य की पड़ताल की.

घनी आबादी वाले क्षेत्र में स्थित यह प्राथमिक विद्यालय स्वतंत्रता के बाद ही स्थापित हो गया था जिसे बाद में उर्दू माध्यम का स्कूल बनाया गया था.

एक समय तक यहाँ सभी विषयों की किताबें उर्दू में पढ़ाई जाती थीं लेकिन अब ऐसा नहीं है. कक्षाओं की दीवारों पर ज़रूर उर्दू वर्णमाला लिखी गई है. यहाँ नियुक्त शिक्षकों की नियुक्ति उर्दू शिक्षक के रूप में मगर अब यहाँ कोई भी विद्यार्थी उर्दू नहीं पढ़ता.         

आख़िर उर्दू माध्यम स्कूलों का यह हाल कैसे हुआ? इस सवाल का जवाब देते हुए अमीन कहते हैं,  “1997 के बाद से ही उर्दू माध्यम की किताबें छपना बंद हो गईं. ऐसे में बच्चों का नुक़सान न हो इसलिए उन्हें हिन्दी माध्यम से पढ़ाई करवाने के लिए मजबूर किया गया. शिक्षकों के पास और विकल्प भी नहीं था.”

राजस्थान में उर्दू की इस बदहाली के लिए कोई एक दल ज़िम्मेदार नहीं है. ऐसा लगता है कि उर्दू को लेकर पूरा सिस्टम पूर्वाग्रह से ग्रसित है क्योंकि इस भाषा को एक धर्म से जोड़कर देखा गया है.

हालाँकि देवली उनियारा के विधायक हरीश मीणा उर्दू को सब की भाषा कहते हैं.

इंडिया टुमॉरो से बात करते हुए मीणा ने कहा, “जब हम विदेशी भाषाएँ जर्मन फ्रेंच बच्चों को सिखा रहे हैं तो उर्दू ज़बान तो भारत में पनपी, यहीं पैदा हुई. हमारे यहाँ ऐसे भी विद्यालय हैं जहाँ शत प्रतिशत बच्चे ग़ैर-अल्पसंख्यक होने के बाद भी वो उर्दू पढ़ते हैं.”

उर्दू ज़बान ने इन्किलाबी नज़्मों और गीतों के माध्यम से आज़ादी की लड़ाई में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. ये वो ज़बान है जिसमें इश्क़ भी है और इंकिलाब भी, जिस ज़बान की इस मुल्क को ज़रूरत है मगर आज ये ज़बान सरकारी तंत्र की फ़ाइलों और सियासी वादों में दम तोड़ रही है.

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